धूप पर उद्धरण
धूप अपनी उज्ज्वलता और
पीलेपन में कल्पनाओं को दृश्य सौंपती है। इतना भर ही नहीं, धूप-छाँव को कवि-लेखक-मनुष्य जीवन-प्रसंगों का रूपक मानते हैं और इसलिए क़तई आश्चर्यजनक नहीं कि भाषा विभिन्न प्रयोजनों से इनका उपयोग करना जानती रही है।
तितलियाँ वे फूल ही हैं जो किसी धूप वाले दिन उड़ गए, जब प्रकृति स्वयं को सबसे अधिक आविष्कारशील और उपजाऊ महसूस कर रही थी।
जब सूरज उगता है तो केवल कुछ कलियाँ खिलती हैं, सारी नहीं। क्या इसके लिए सूरज को दोषी ठहराया जाएगा? कलियाँ स्वयं नहीं खिल सकतीं और इसके लिए सूरज की धूप का होना भी ज़रूरी है।
धूप जब सामने से आती है तब बहुत तेज़ लगती है। वही धूप अगर पीछे से आए, तो तेज नहीं लगती। धूप की अगाड़ी और धूप की पिछाड़ी में फ़र्क़ होता है। नदी के प्रवाह के साथ और प्रवाह के विपरीत तैरने में जो फ़र्क़ होता है, कुछ-कुछ वैसा ही। जीवन-सरिता का भी यही हाल है। पैंसठ-सत्तर बरस की उम्र के बाद की ज़िंदगी, अप-स्ट्रीम तैराकी है। (और हाँ, ज़िंदगी प्रायः दोहरा चालान काटती है—एक सुख का, एक दुःख का। हमें ज़िंदगी की इस इच्छा का भी अभिनंदन करना चाहिए।)
सूर्य-प्रकाश जब सीधे आता है तो धूप कहलाता है, जब चंद्र-ताल में नहाकर आता है तो चाँदनी कहलाता है।