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क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.”
Kamal replied enthusiastically, “Immortality!”

(The Cairo Trilogy, Palace of Desire, 725)

क़ाहिरा की बात करो तो पहले उसका इतिहास आ पहुँचता है—जिसके पैर कब्रों में हैं और हज़ारों हाथ, तन पर से रेत झाड़ रहे हैं। ग़ालिब ने जब कहा कि क़तरे में दजला दिखाई न दे… तो लगा कि दजला और फ़ुरात की तरह क्या नील भी कभी ग़ज़ल में उतरी होगी?

मुझे क़ाहिरा के नाम पर दो मित्र याद आते हैं; एक वह, जो बारिश होती देखकर, चलती क्लास से बेतरह बाहर भागी और दूसरा दफ़्तर का वह सहकर्मी जो क़ाहिरा के उन इलाक़ों के बारे में बताता था जहाँ रोमन, यहूदी, कॉप्टिक (ईसाई), इस्लामी और प्राचीन मिस्र की बसाहटों से जुड़ी इमारतें और अवशेष हैं। यह इलाक़ा अपने नाम से ही Old Cairo या मिस्र अल-क़दीमा (पुराना क़ाहिरा) कहलाता है।  

नजीब महफ़ूज़ इसी पुराने क़ाहिरा के बाशिंदे थे और तमाम उम्र इसको अपने लिखे में दोहराते रहे।

यह आलेख नजीब महफ़ूज़ के उपन्यास, क़ाहिरा के प्रति उनका लगाव और उनके साहित्यिक अवदान पर बात करता है। यह मुख्यतः उनकी प्रसिद्ध त्रयी (The Cairo Trilogy) पर केंद्रित है लेकिन उनके कुछ अन्य उपन्यासों का भी इसमें हवाला है।

1. अरब उपन्यास और नजीब महफ़ूज़ 

नजीब महफ़ूज़ की उम्र 2 साल थी, जब लेखक मुहम्मद हुसैन हेकल 'ज़ैनब' लिख चुके थे—जिसे आधिकारिक तौर पर पहला अरब उपन्यास माना जाता है। हेकल ने इसका मसौदा, फ़्रांस में डॉक्टरेट के दौरान लिखा और 1913 में यह मिस्र में प्रकाशित हुआ। उपन्यास की कथा ज़ैनब नाम की ग्रामीण नवयुवती पर केंद्रित है, जिसके तीन दीवाने हैं।

‘ज़ैनब’ का मसौदा फ्रांस में लिखा जाना एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है, क्योंकि उपन्यास (Novel) जैसी आधुनिक गद्य-रूप वाली कथा विधा, अरब साहित्य में अपेक्षाकृत देर से आई—मुख्य रूप से 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी की शुरुआत में।

अरब साहित्य में कथा हमेशा मौजूद रही, जिसे हम Frame story कहते हैं; वह पाली, संस्कृत, फ़ारसी और अरबी में कई सदियों तक चलन में रही कथा-विधा रही है। जातक, हितोपदेश, पंचतंत्र, हज़ार अफ़साना, सहस्र रजनी चरित्र (अल्फ़ लैला व लैला) जैसे सैंकड़ों ग्रंथ हैं, जिनके अति-यथार्थवादी और जादुई-यथार्थवादी शिल्प वाले अनेकों आधुनिक उपन्यासों का arch-text कह सकते हैं।

नजीब महफ़ूज़ को जब 1988 में पुरुस्कार मिला तो उनकी नोबेल प्रशस्ति में उन्हें ‘अरब कथा-शैली’ गढ़ने का श्रेय दिया गया। यह कथा-शैली महफ़ूज़ की अथक लेखन यात्रा से हासिल हुई थी, जिसका रूप, पारंपरिक अरब कथा-शैली और पश्चिमी ढंग के शास्त्रीय उपन्यासों, दोनों से भिन्न था। महफ़ूज़ ने जिन उपन्यासों से अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत की, उनका कथानक प्राचीन मिस्र की पृष्ठभूमि में रचा गया था—फिर भी ये रचनाएँ उस समय के अन्य अरब उपन्यासों की तुलना में कई स्तरों पर अधिक परिपक्व और समृद्ध थीं। उनका पहला उपन्यास अब्सर्डिटी ऑफ़ फेट्स (अबात अल-अक़दार) कालांतर में उनकी प्राचीन इतिहास केंद्रित त्रयी की प्रथम कड़ी बनता है।  

महफ़ूज़ ने अपना पहला यथार्थवादी उपन्यास ‘अल-क़ाहिरा अल-जदीदा’ (Cairo modern) सन् 1945 में प्रकाशित किया, जिसने अरब उपन्यास को औपचारिक रूप में पहली बार शहरी संदर्भ में स्थापित किया। इस समय तक, महफ़ूज़ विश्व साहित्य के दिग्गजों को पढ़ चुके थे, और उन्होंने मिस्र के पिछले चालीस वर्षों के हलचल भरे इतिहास के प्रति गहरी समझ विकसित कर ली थी—ऐसा मिस्र जो जर्जर हो चुकी उस्मानी ख़िलाफ़त से बाहर निकल रहा था, जिस पर प्रथम विश्व युद्ध की छाया थी, गलियों में ब्रिटिश सैनिक मौजूद थे, और जो एक नए रास्ते फोड़ने के लिए बेचैन था।

इस परिवेश में, महफ़ूज़ के लेखन में पश्चिमी उपन्यासों की, Existentialised modernity, पारंपरिक उदासी, एकाकी, जीवन के अर्थ की खोज में भटकते नायक की छवि की जगह, उनके रूपक, नायक, स्थानीयताएँ और कथानक एक ‘कलेक्टिव’ की ओर बढ़ने लगे—जिसकी सबसे समृद्ध अभिव्यक्ति उनकी प्रसिद्ध त्रयी ‘Cairo trilogy’ में होती है।

2. क़ाहिरा

नजीब महफ़ूज़ का जन्म क़ाहिरा के ‘अल-जमालिया’ मुहल्ले में हुआ था। उनकी रचनाओं में यह शहर और इसकी गलियाँ मात्र स्थान-सूचक नहीं, बल्कि इतिहास और स्मृति की पात्र हैं। महफ़ूज़ का क़ाहिरा-चित्रण कोई ‘अर्बन रोमांस’ नहीं, बल्कि गहन सामाजिक-सांस्कृतिक आत्मपाठ है।

यह आत्मपाठ डिकेंस और जॉयस के शहरी चित्रण से भिन्न है। महफ़ूज़ मिस्री समाज का बेलौस चित्रण करते हैं—उसकी बुनावट, इतिहास तथा सामाजिक समीकरणों को व्यक्त करने के लिए उनके पास जो भाषा और दृष्टि है, उसमें उपनिवेशवाद की मौजूदगी से आतंकित होने जैसी झिझक नहीं है। उन्होंने बेहद कुशलता से अरब उपन्यास को क़ाहिरा में इस तरह स्थापित किया कि वह शहर मिस्र के अतीत और भविष्य को एक साथ प्रतिबिंबित कर सके।

महफ़ूज़ उपनिवेशवाद की वजह से आई ‘आधुनिकता’ की विडंबनाओं से भलीभांति परिचित थे। यदि काहिरा महफ़ूज़ का प्रिय नगर है भी, तो वे इसकी विडंबनाओं और त्रासदियों के ईमानदार दस्तावेज़कार भी हैं। इस क्रम में उनकी कई कहानियाँ हैं। पहले जिस तरह ‘अल-क़ाहिरा अल-जदीदा’ का ज़िक्र हो चुका है—इसी क्रम में मिदाक़ एले (ज़ुक़ाक अल-मिदाक़) एक गली में रहने वाले बाशिंदों की, विशेषकर हमीदा की कहानी है, जिसकी महत्त्वाकांक्षाओं के ज़रिए महफ़ूज़ उस मिस्र की छवि रचते हैं, जो बदलती दुनिया में जगह बनाने को व्याकुल है। हमीदा ग़रीबी से निकलकर एक आरामदायक जीवन की कामना करती है, यह चाह उसे छल, शोषण और वेश्यावृत्ति की ओर ले जाती है। मिदाक़ गली के रहवासियों की यह व्याकुलता—बदलती दुनिया की ट्रेन में सवार होने की जल्दबाज़ी—दरअस्ल उस पूरे राष्ट्र (मिस्र) की आकांक्षा है, जिसकी परिणति अक्सर त्रासदी में होती है। इस रूपक में हमीदा ख़ुद मिस्र का प्रतीक बन जाती है।

‘औलाद हारतना’ (चिल्ड्रन ऑफ़ गेबलावी) भी इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। यह नजीब महफ़ूज़ का सबसे विवादास्पद उपन्यास रहा—न सिर्फ़ इसकी विषयवस्तु को लेकर प्रकाशन पर लंबे समय तक प्रतिबंध लगा रहा, बल्कि ख़ुद लेखक के जीवन पर ताउम्र ख़तरा रहा। यह कथा अब्राहमी धर्मों के केंद्रीय आख्यानों पर आधारित एक कथा है, जिसमें महफ़ूज़ ने धार्मिक प्रतीकों के सहारे मनुष्य के मूल्यबोध, न्याय और आध्यात्मिक संघर्षों को रूपक के रूप में बरता है। इस का लोक भी क़ाहिरा की ही एक काल्पनिक गली है। यह तथ्य प्रासंगिक है कि सलमान रुश्दी और नजीब महफ़ूज़—दोनों ही लेखकों के उन उपन्यासों को प्रतिबंध और जानलेवा हमलों का सामना करना पड़ा, जिनकी पृष्ठभूमि धार्मिक आख्यानों की पुनर्व्याख्या या प्रतीकात्मक पुनर्रचना पर आधारित थी।


3. क़ाहिरा त्रयी  (The Cairo Trilogy)

महफ़ूज़ के ‘अरब उपन्यास’ का जो संक्षिप्त उल्लेख हमने किया है, वह Cairo trilogy में बेहतरीन तरीक़े से अभिव्यक्त होता है। यह कहना ग़लत होगा कि पश्चिम में परिवार केंद्रित या शासन व्यवस्थाओं के संक्रमण पर आधारित उपन्यास नहीं हैं; अरब साहित्य के आलोचक साबरी हाफिज़ गाल्सवर्दी के उपन्यास ‘The Forsyte Saga’ और थॉमस मान के ‘Buddenbrooks’ को इसी श्रेणी में स्थान देते हैं। लेकिन महफ़ूज़ के उपन्यासों में पारिवारिक त्रासदियों के माध्यम से मिस्र में हुए सामाजिक बदलावों की पहचान करना अरब कथा साहित्य में पहली बार संभव हुआ था।

यह त्रयी मिस्र के सामाजिक और राजनीतिक संक्रमण के बीच एक परिवार की तीन पीढ़ियों की कथा है, जिसकी हर पुस्तक का शीर्षक किसी गली का नाम है। पहली पुस्तक का नाम है बैन अल-क़स्रैन। यद्यपि इसका अँग्रेज़ी अनुवाद Palace Walk हुआ है, किंतु अधिक सटीक अनुवाद ‘दो हवेलियों के बीच’ ही होगा।

यह हवेली अहमद अब्दुल जवाद की है—एक पारंपरिक, अनुशासनप्रिय परिवार का मुखिया, जिसकी ज़िंदगी दोहरी है। अपने परिवार के सामने वह एक कठोर, नैतिकतावादी पिता की छवि बनाए रखता है, जबकि घर के बाहर वह एक परस्त्रीगामी और मद्यपान करने वाला पुरुष है। उसकी पत्नी अमीना को उसकी इन आदतों की आंशिक जानकारी है, किंतु वह इसमें कोई नाराज़गी नहीं जताती, क्योंकि यही जीवन उसने स्वीकृत कर लिया है।

परिवार में अनुशासन इतना सख़्त होता है कि एक बार जब अब्दुल जवाद पोर्ट सईद जाता है—उसी समय अमीना सजदे के लिए घर से बाहर निकलती है और अल-हुसैन मस्जिद से लौटते हुए सड़क में दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है। ठीक होने तक उसका ख़याल रखा जाता है और फिर तबियत दुरुस्त होते ही अब्दुल जवाद, अवज्ञा के कारण उसे घर से बाहर निकाल देता है। इतने अनुशासनों के बावजूद कई गोपनीय प्रसंग कथा में घटते हैं; जिसमें जवाद की बेटी आयशा का एक अँगरेज़ सैनिक को घर के झरोखे से देखना और बेटे फ़हमी का राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होना। इन सभी प्रसंगों की परिणति आगे आने वाले राजनीतिक बदलावों से जुड़ी होती है। जवाद की हवेली अहम है। वह आस-पास बदलते संसार को समझता है और उससे तार बैठाता है; उसके घर के पास बैरक हैं, पेट्रोलिंग चलती है और अल-जमालिया पुलिस स्टेशन है। उपन्यास का अंत होते-होते उसकी पकड़ और उपन्यास में मौजूदगी ढीली और अप्रभावी होना शुरू होती है और उपन्यास अगली हवेली की घटनाओं में अपना कथानक का फैलाव करता है।  

दूसरे खंड में कथा अगली हवेली क़स्र अश-शौक़/Palace of Desire (कामनाओं की हवेली) तक पहुँचती है, जहाँ अब जवाद का बेटा, यासीन अपने परिवार के साथ रहता है। यह खंड मुख्यतः जवाद के सबसे छोटे बेटे कमाल के आदर्शवादी चरित्र के विकास का ख़ाक़ा पेश करता है। साथ ही पात्रों की दैहिक इच्छाओं (ख़ासकर यासीन), संबंधों के बनने-बिगड़ने, और आत्मसंघर्षों पर केंद्रित है। हवेली के नाम में ‘शौक़’—शायद इन्हीं इच्छाओं और लालसाओं का प्रतीक है। इस खंड में महफ़ूज़ का विश्व साहित्य से गहरा परिचय झलकता है; वे फ़्रेंच साहित्य के एक गंभीर और आत्मचिंतनशील पाठक-लेखक के रूप में उभरते हैं, और उनके पात्रों की बेचैनी में एक गूढ़ अस्तित्ववादी स्वर व्याप्त है, जिसे वे बेहद दिलचस्पी के साथ चित्रित करते हैं।

कमाल, इस त्रयी में, एक ऐसा किरदार है जो मिस्र की नई पीढ़ी की महत्त्वाकांक्षाओं और आत्मसंघर्षों का प्रतिनिधित्व करता है। वह आदर्शों में विश्वास करता है, बदलाव के लिए उत्सुक है, और एक नया रास्ता तलाशने की कोशिश करता है। लेकिन भीतर से वह मानसिक रूप से विचलित, बिखरा हुआ और बेचैन है—मानो उसके भीतर ही मिस्र के भावी संक्रमण की छवि पल रही हो।

तीसरे खंड, शुगर स्ट्रीट (अस-सुक्करिया)  में आते-आते अब्दुल जवाद और अमीना दोनों ही बूढ़े हो चुके हैं। उनके पोते-पोतियाँ हो चुके हैं, और परिवार अब अगली गली की हवेली अस-सुक्करिय्या (Sugar Street) में रहने लगा है। यह हवेली मिस्र के तीव्र राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की साक्षी बनती है। अब परिवार के कुछ सदस्य नवगठित मुस्लिम ब्रदरहुड से जुड़े हैं, तो कुछ कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुयायी बन चुके हैं। युद्ध और सामाजिक बदलाव इतने तीव्र हैं कि अंत तक आते-आते वह पुराना संसार पूरी तरह बिखर जाता है—इतना कि कोई अब उसका कोई नामलेवा नहीं बचता।

त्रयी में अनेक स्थानों और गलियों का उल्लेख मिलता है, पर ये केवल भौगोलिक संदर्भ नहीं हैं, बल्कि एक सुव्यवस्थित रचनात्मक योजना के अंतर्गत आते हैं। जैसे पहले खंड में अमीना का अल-हुसैन मस्जिद जाना और वहाँ दुर्घटना का होना उसकी सीमाओं और सामाजिक बंधनों का प्रतीक है। जबकि अंतिम खंड में उसी स्थान पर उसका सहज रूप से बार-बार जाना उसकी स्वतंत्रता और आत्मविकास की ओर इशारा करता है। दुकानों के बंद होने और उनकी जगह नई इमारतों के खड़े होने का क्रम हर खंड में शहर के रूपांतरण और समय के बदलाव को प्रतिबिंबित करता है। इसी तरह, कमाल का पिरामिड की ईंटों पर बैठकर पुराने क़ाहिरा को ढूँढ़ने की कोशिश करना, और उसके मित्र हसन शद्दाद की हवेली—जहाँ यूरोपीय विचारधाराओं की वकालत होती है—ये दोनों स्थान स्वयं में जीवंत चरित्र बन जाते हैं।

ऊपर जिसे नोबेल प्रशस्ति में महफ़ूज़ की ‘अरब कथा-शैली’ कहा गया है, वह यही है जो अपनी पहचान भिन्न परंपराओं से हासिल करने के बावजूद मौलिक है। क़ाहिरा त्रयी के लगभग हर दूसरे-तीसरे पृष्ठ पर बातचीत के दौरान क़ुरआन की कोई आयत उद्धृत होती है। बहुत सारे नैतिक और सामाजिक संघर्षों के दृश्यों में क़ुरान उद्धृत करना, अभिवादन में लंबे-लंबे वाक्यों का इस्तेमाल नजीब की कथाओं का मामूल है। गद्य की यह शैली न पश्चिमी है न ही अपने रूप में पारंपरिक अरबी। इसमें सांस्कृतिक विस्मृति की तरफ़ ध्यान दिलाती एक बेचैनी है, लेकिन उसकी विडंबना को समझने के प्रति एक धैर्यपूर्ण आग्रह भी है और यही वह चीज़ है जो नजीब के उपन्यासों को ‘Sermon’ में नहीं बदलने देती। वह मिस्र के लिए कोई सुझाव नहीं देते, न ही उनके पास कोई रिवाइवलिस्ट आवाज़ है जो अक्सर फ़्योदोर दोस्तोयेवस्की जैसे महान् उपन्यासकार के यहाँ तक मिल जाती है। बल्कि नजीब के सबसे ज़्यादा सुलझे और ईमानदार लेकिन भटके हुए किरदारों का त्रासद अंत होता है—शुगर स्ट्रीट में कमाल की यही नियति होती है और पहले खंड में फ़हमी की।

क़ाहिरा का शहरज़ाद

नजीब महफ़ूज़ की ‘अरबियन नाइट्स एंड डेज़’ मूल अरेबियन नाइट्स की उत्तरकथा है, जो पुरानी कथा परंपरा को समकालीन सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में ढालती है। कहानी की शुरुआत इस मोड़ से होती है कि अब शह्रयार, शहरज़ाद को मारने का इरादा छोड़ चुका है। लेकिन यहाँ की कहानियाँ अब तिलिस्मी नहीं हैं; यहाँ रिश्वतखोर पुलिस है, बदनीयत जिन्न हैं और सपनों में भी सेंध लग चुकी है। कहानी 17 अध्यायों में बटी हुई है—शुरू के चार अध्यायों को छोड़कर, यह पुराने कथात्मक ढांचे को बनाए रखते हुए—कथा के भीतर कथा के शिल्प में आगे बढ़ती है।

नजीब महफ़ूज़, उन अर्थों में शहरज़ाद नहीं है जिसकी ज़िंदगी अगली कहानी पर निर्भर करती है। वह एक और प्रकार की शहरज़ाद हैं जो सिर्फ़ कहानी से ही क़ाहिरा को पूरी तरह अपना बना सकते हैं। नजीब का क़ाहिरा, सबका क़ाहिरा नहीं है। जिस दिल्लगी से वह इसकी गलियों का बाशिंदा होने का अर्थ ढूँढ़ते रहे, वह सबका हासिल नहीं है। वह लोग जो क़ाहिरा देखते हैं, उन्हें नजीब की आँखें चाहिए—जिन्हें आँखें मिल चुकी हैं, वह अपना क़ाहिरा ढूँढ़ रहे हैं।

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निशांत कौशिक को और पढ़िए : सब कुछ ऊब के ख़िलाफ़ एक तिलिस्म है | दिन के सारे काम रात में गठरी की तरह दिखते हैं

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