राम पर दोहे

सगुण भक्ति काव्यधारा

में राम और कृष्ण दो प्रमुख अराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित हुए। राम की प्रतिष्ठा एक भावनायक और लोकनायक की है जिन्होंने संपूर्ण रूप से भारतीय जीवन को प्रभावित किया है। समकालीन सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रमों ने भी राम को कविता चिंतन का प्रसंग बनाया। इस चयन में राम के अवलंब से अभिव्यक्त बेहतरीन दोहों और कविताओं का संकलन किया गया है।

राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।

बरषत वारिद-बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥

राम-नाम का आश्रय लिए बिना जो लोग मोक्ष की आशा करते हैं अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों परमार्थों को प्राप्त करना चाहते हैं वे मानो बरसते हुए बादलों की बूँदों को पकड़ कर आकाश में चढ़ जाना चाहते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार पानी की बूँदों को पकड़ कर कोई भी आकाश में नहीं चढ़ सकता वैसे ही राम नाम के बिना कोई भी परमार्थ को प्राप्त नहीं कर सकता।

तुलसीदास

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।

राग रोष दोष दुख, दास भए भव पार॥

तुलसी कहते हैं कि जिनकी श्री राम में ममता और सब संसार में समता है, जिनका किसी के प्रति राग, द्वेष, दोष और दुःख का भाव नहीं है, श्री राम के ऐसे भक्त भव सागर से पार हो चुके हैं।

तुलसीदास

तुलसी जौं पै राम सों, नाहिन सहज सनेह।

मूंड़ मुड़ायो बादिहीं, भाँड़ भयो तजि गेह॥

तुलसी कहते हैं कि यदि श्री रामचंद्र जी से स्वाभाविक प्रेम नहीं है तो फिर वृथा ही मूंड मुंडाया, साधु हुए और घर छोडकर भाँड़ बने (वैराग्य का स्वांग भरा)।

तुलसीदास

दंपति रस रसना दसन, परिजन बदन सुगेह।

तुलसी हर हित बरन सिसु, संपति सहज सनेह॥

तुलसी कहते हैं कि रस और रसना पति-पत्नी है, दाँत कुटुंबी हैं, मुख सुंदर घर है, श्री महादेव जी के प्यारे 'र' और 'म' ये दोनों अक्षर दो मनोहर बालक हैं और सहज स्नेह ही संपत्ति हैं।

तुलसीदास

रैदास हमारौ राम जी, दशरथ करि सुत नाहिं।

राम हमउ मांहि रहयो, बिसब कुटंबह माहिं॥

रैदास कहते हैं कि मेरे आराध्य राम दशरथ के पुत्र राम नहीं हैं। जो राम पूरे विश्व में, प्रत्येक घर−घर में समाया हुआ है, वही मेरे भीतर रमा हुआ है।

रैदास

तुलसी परिहरि हरि हरहि, पाँवर पूजहिं भूत।

अंत फजीहत होहिंगे, गनिका के से पूत॥

तुलसी कहते हैं कि श्री हरि (भगवान् विष्णु) और श्री शंकर जी को छोड़कर जो पामर भूतों की पूजा करते हैं, वेश्या के पुत्रों की तरह उनकी अंत में बड़ी दुर्दशा होगी।

तुलसीदास

हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम।

मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥

हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण स्वरूप की सुंदर झांकी और जीभ से सुंदर राम-नाम का जप करना। तुलसी कहते हैं कि यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।

तुलसीदास

जपमाला छापैं तिलक, सरै एकौ कामु।

मन-काँचे नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥

माला लेकर किसी मंत्र-विशेष का जाप करने से तथा मस्तक एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक-छापा लगाने से तो एक भी काम पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब तो आडंबर मात्र हैं। कच्चे मन वाला तो व्यर्थ ही में नाचता रहता है, उससे राम प्रसन्न नहीं होते। राम तो सच्चे मन से भक्ति करने वाले व्यक्ति पर ही प्रसन्न होते हैं।

बिहारी

राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।

बरसत बारिद बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥

जो राम नाम का सहारा लिए बिना ही परमार्थ और मोक्ष की आशा करता है, वह तो मानो बरसते हुए बादल की बूँदों को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है (अर्थात् जैसे वर्षा की बूँदों को पकड़कर आकाश पर चढ़ना असंभव है, वैसे ही राम नाम का जप किए बिना परमार्थ की प्राप्ति असंभव है)।

तुलसीदास

सुख सागर नागर नवल, कमल बदन द्युतिमैन

करुणा कर वरुणादिपति, शरणागत सुख दैन॥

हृदयराम

गैंणा गांठा तन की सोभा, काया काचो भांडो।

फूली कै थे कुती होसो, रांम भजो हे रांडों॥

फूलीबाई

राम नाम रति राम गति, राम नाम बिस्वास।

सुमिरत सुभ मंगल कुसल, दुहुँ दिसि तुलसीदास॥

तुलसीदास कहते हैं कि जिसका राम नाम में प्रेम है, राम ही जिसकी एकमात्र गति है और राम नाम में ही जिसका विश्वास है, उसके लिए राम नाम का स्मरण करने से ही दोनों ओर (इस लोक में और परलोक में) शुभ, मंगल और कुशल है।

तुलसीदास

राम भरोसो राम बल, राम नाम बिस्वास।

सुमिरत सुभ मंगल कुसल, मांगत तुलसीदास॥

तुलसीदास जी यही माँगते हैं कि मेरा एक मात्र राम पर ही भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरण मात्र ही से शुभ, मंगल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस राम नाम में ही विश्वास रहे।

तुलसीदास

हरे चरहिं तापहिं बरे, फरें पसारहिं हाथ।

तुलसी स्वारथ मीत सब, परमारथ रघुनाथ॥

वृक्ष जब हरे होते हैं, तब पशु-पक्षी उन्हें चरने लगते हैं, सूख जाने पर लोग उन्हें जलाकर तापते हैं और फलने पर फल पाने के लिए लोग हाथ पसारने लगते हैं (अर्थात् जहाँ हरा-भरा घर देखते हैं, वहाँ लोग खाने के लिए दौड़े जाते हैं, जहाँ बिगड़ी हालत होती है, वहाँ उसे और भी जलाकर सुखी होते हैं और जहाँ संपत्ति से फला-फूला देखते हैं, वहाँ हाथ पसार कर मांगने लगते हैं)। तुलसी कहते है कि इस प्रकार जगत में तो सब स्वार्थ के ही मित्र हैं। परमार्थ के मित्र तो एकमात्र श्री रघुनाथ जी ही हैं।

तुलसीदास

नाम गरीबनिवाज को, राज देत जन जानि।

तुलसी मन परिहरत नहिं, धुरविनिआ की वानि॥

तुलसीदास कहते हैं कि गरीब निवाज (दीनबंधु) श्री राम का नाम ऐसा है, जो जपने वाले को भगवान का निज जन जानकर राज्य (प्रजापति का पद या मोक्ष-साम्राज्य तक) दे डालता है। परंतु यह मन ऐसा अविश्वासी और नीच है कि घूरे (कूड़े के ढेर) में पड़े दाने चुगने की ओछी आदत नहीं छोड़ता (अर्थात् गदे विषयो में ही सुख खोजता है)।

तुलसीदास

लहइ फूटी कौड़िहू, को चाहै केहि काज।

सो तुलसी महँगो कियो, राम ग़रीबनिवाज॥

तुलसी कहते हैं कि जिसको एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती थी (जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं थी),उसको भला कौन चाहता और किसलिए चाहता। उसी तुलसी को ग़रीब-निवाज श्री राम जी ने आज महँगा कर दिया (उसका गौरव बढ़ा दिया)।

तुलसीदास

राम भरत लछिमन ललित, सत्रु समन सुभ नाम।

सुमिरत दसरथ सुवन सब, पूजहिं सब मन काम॥

श्री राम,भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्न ऐसे जिनके सुंदर और शुभ नाम हैं,दशरथ जी के इन सब सुपुत्रो का स्मरण करते ही सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है॥

राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ऐसे जिनके सुंदर और शुभ नाम हैं, दशरथ के इन सब सुपुत्रों का स्मरण करते ही सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

तुलसीदास

रामहि सुमिरत रन भिरत, देत परत गुरु पायँ।

तुलसी जिन्हहि पुलक तनु, ते जग जीवत जाएँ॥

भगवान् श्रीराम का स्मरण होने के समय, धर्मयुद्ध में शत्रु से भिड़ने के समय, दान देते समय और श्री गुरु के चरणों में प्रणाम करते समय जिनके शरीर में विशेष हर्ष के कारण रोमांच नहीं होता, वे जगत में व्यर्थ ही जीते हैं।

तुलसीदास

जानि राम सेवा सरस, समुझि करब अनुमान।

पुरुषा ते सेवक भए, हर ते भे हनुमान॥

श्री राम की सेवा में परम आनंद जानकर पितामह ब्रह्माजी सेवक जांबवान् बन गए और शिव जी हनुमान् हो गए। इस रहस्य को समझो और प्रेम की महिमा का अनुमान लगाओ।

तुलसीदास

मीठो अरु कठवति भरो, रौंताई अरु छेम।

स्वारथ परमारथ सुलभ, राम नाम के प्रेम॥

मीठा पदार्थ (अमृत) भी हो और कठौता भरकर मिले, यानी राज्यादि अधिकार भी प्राप्त हों और क्षेमकुशल भी रहे (अर्थात् अभिमान और भोगों से बचकर रहा जाए) अर्थात् स्वार्थ भी सधे तथा परमार्थ भी संपन्न हो; ऐसा होना बहुत ही कठिन है परंतु श्री राम नाम के प्रेम से ये परस्पर विरोधी दुर्लभ बातें भी सुलभ हो जाती है।

तुलसीदास

हरन अमंगल अघ अखिल, करन सकल कल्यान।

रामनाम नित कहत हर, गावत बेद पुरान॥

राम नाम सब अमंगलों और पापों को हरने वाला तथा सब कल्याणों को करने वाला है। इसी से श्री महादेव जी सर्वदा श्री राम नाम को रटते रहते हैं और वेद-पुराण भी इस नाम का ही गुण गाते हैं।

तुलसीदास

रे मन सब सों निरस ह्वै, सरस राम सों होहि।

भलो सिखावन देत है, निसि दिन तुलसी तोहि॥

रे मन! तू संसार के सब पदार्थों से प्रीति तोड़कर श्री राम से प्रेम कर। तुलसीदास तुझको रात-दिन यही शिक्षा देता है।

तुलसीदास

रसना सांपिनी बदन बिल, जे जपहिं हरिनाम।

तुलसी प्रेम राम सों, ताहि बिधाता बाम॥

जो श्री हरि का नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणी के समान केवल विषय-चर्चा रूपी विष उगलने वाली और मुख उसके बिल के समान है। जिसका राम में प्रेम नही है, उसके लिए तो विधाता वाम ही है (अर्थात् उसका भाग्य फूटा ही है)।

तुलसीदास

जग ते रहु छत्तीस ह्वै, रामचरन छ: तीन।

‘तुलसी’ देखु विचारि हिय, है यह मतौ प्रबीन॥

संसार में तो छत्तीस के अंक के समान पीठ करके रहो, और राम के चरणों में त्रेसठ के समान सम्मुख रहो। चतुर पुरुषों के इस मत को अपने हृदय में विचार करके देख लो। भाव यह है कि 36 के अंक में 3 और 6 इन दोनों अंकों की आपस में पीठ लगी रहती है पर 63 में 6 और 3 इन दोनों के मुख आमने-सामने होते हैं। इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि वे संसार से तो सदा 36 के अंक के समान पीठ फेर कर विरक्त रहें परंतु भगवान् राम के चरणों के प्रति 63 के अंक के समान सदा अनुकूल रहें।

तुलसीदास

हम लखि लखहि हमार लखि, हम हमार के बीच।

तुलसी अलखहि का लखहि, राम नाम जप नीच॥

तू पहले अपने स्वरूप को जान, फिर अपने यथार्थ ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव कर। तदनंतर अपने और ब्रह्म के बीच में रहने वाली माया को पहचान। अरे नीच ! (इन तीनों को समझे बिना) तू उस अलख परमात्मा को क्या समझ सकता है? अतः (अलख-अलख चिल्लाना छोडकर) राम नाम का जप कर।

तुलसीदास

सीता लखन समेत प्रभु, सोहत तुलसीदास।

हरषत सुर बरषत सुमन, सगुन सुमंगल बास॥

तुलसी कहते हैं कि सीता और लक्ष्मण के सहित प्रभु श्री रामचंद्र जी सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं। भगवान का यह सगुण ध्यान सुमंगल-परम कल्याण का निवास स्थान है।

तुलसीदास

‘तुलसी’ श्री रघुवीर तजि, करौ भरोसौ और।

सुख संपति की का चली, नरकहुँ नाहीं ठौर॥

गोस्वामी जी कहते हैं कि जो भगवान् राम को छोड़ कर किसी दूसरे पर भरोसा रख कर बैठते हैं, उन्हें भला सुख-संपत्ति तो मिलेगी ही कहाँ से! उन्हें तो नरक में भी स्थान मिलेगा। भाव यह कि मनुष्य को भगवान् के सिवा किसी दूसरे का कभी भरोसा नहीं करना चाहिए।

तुलसीदास

संकर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास।

ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक महुँ बास॥

(भगवान् श्री रामचंद्र जी कहते हैं कि) जिनको शिव जी प्रिय हैं, किंतु जो मुझसे विरोध रखते हैं; अथवा जो शिवजी से विरोध रखते हैं और मेरे दास बनना चाहते हैं, मनुष्य एक कल्प तक घोर नरक में पड़े रहते हैं (अतएव श्री शंकर जी में और श्री राम जी में कोई ऊँच-नीच का भेद नहीं मानना चाहिए।)।

तुलसीदास

जाति हीन अघ जन्म महि, मुक्त कोन्हि असि नारि।

महामंद मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहि बिसारि॥

जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री (शबरी) को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महामूर्ख मन। तू ऐसे प्रभु श्री राम को भूलकर सुख चाहता है?

तुलसीदास

तुलसी हठि-हठि कहत नित, चित सुनि हित करि मानि।

लाभ राम सुमिरन बड़ी, बड़ी बिसारें हानि॥

तुलसी नित्य-निरंतर बड़े आग्रह के साथ कहते हैं कि हे चित्त! तू मेरी बात सुनकर उसे हितकारी समझ। राम का स्मरण ही बड़ा भारी लाभ है और उसे भुलाने में ही सबसे बड़ी हानि है।

तुलसीदास

राम दूरि माया बढ़ति, घटति जानि मन माँह।

भूरि होति रवि दूरि लखि, सिर पर पगतर छाँह॥

जैसे सूर्य को दूर देखकर छाया लंबी हो जाती है और सूर्य जब सिर पर जाता है तब वह ठीक पैरों के नीचे जाती है, उसी प्रकार श्री राम से दूर रहने पर माया बढ़ती है और जब वह श्री राम को मन में विराजित जानती है, तब घट जाती है।

तुलसीदास

अनुदिन अवध बधावने, नित नव मंगल मोद।

मुदित मातु-पितु लोग लखि, रघुवर बाल विनोद॥

श्री अयोध्या जी में रोज बधावे बजते हैं, नित नए-नए मंगलाचार और आनंद मनाए जाते हैं। श्री रघुनाथ जी की बाल लीला देख-देखकर माता-पिता तथा सब लोग बडे प्रसन्न होते हैं।

तुलसीदास

बिनु सतसंग हरिकथा, तेहि बिनु मोह भाग।

मोह गएँ बिनु रामपद, होइ दृढ़ अनुराग॥

सत्संग के बिना भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को नहीं मिलती, भगवान की रहस्यमयी कथाओं के सुने बिना मोह नहीं भागता और मोह का नाश हुए बिना भगवान् श्री राम के चरणों मे अचल प्रेम नहीं होता।

तुलसीदास

काल करम गुन दोष जग, जीव तिहारे हाथ।

तुलसी रघुबर रावरो, जानु जानकीनाथ॥

तुलसी कहते हैं कि हे रघुनाथजी! काल, कर्म, गुण, दोष, जगत्-जीव सब आपके ही अधीन हैं। हे जानकीनाथ! इस तुलसी को भी अपना ही जानकर अपनाइए।

तुलसीदास

राम नाम कलि कामतरु, राम भगति सुरधेनु।

सकल सुमंगल मूल जग, गुरुपद पंकज रेनु॥

कलियुग में राम नाम मनचाहा फल देने वाले कल्पवृक्ष के समान है, रामभक्ति मुँह माँगी वस्तु देने वाली कामधेनु है और श्री सद्गुरु के चरण कमल की रज संसार में सब प्रकार के मंगलों की जड़ है।

तुलसीदास

बरषा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास।

रामनाम बर बरन जुग, सावन भादव मास॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री रघुनाथ जी की भक्ति वर्षा-ऋतु है, उत्तम सेवकगण (प्रेमी भक्त) धान हैं और राम नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादों के महीने हैं (अर्थात् जैसे वर्षा-ऋतु के श्रावण, भाद्रपद- इन दो महीनो में धान लहलहा उठता है, वैसे ही भक्ति पूर्वक श्री राम नाम का जप करने से भक्तों को अत्यंत सुख मिलता है।

तुलसीदास

मो सम दीन दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।

अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु बिषम भव भीर॥

हे रघुवीर! मेरे समान तो कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनबंधु नही है। ऐसा विचारकर हे रघुवंश-मणि! जन्म-मरण के महान् भय का नाश कीजिए।

तुलसीदास

जेहि सरीर रति राम सों, सोइ आदरहिं सुतान।

रुद्र देह तजि नेह बस, संकर भे हनुमान॥

चतुर लोग उसी शरीर का आदर करते हैं, जिस शरीर से श्री राम में प्रेम होता है। इस प्रेम के कारण ही श्री शंकर जी अपने रुद्र देह को त्यागकर हनुमान बन गए।

तुलसीदास

राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर॥

तुलसी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो राम नाम के दीप को अपनी देहरी पर हमेशा जलाए रख अर्थात् अपनी देह की देहरी जीभ पर हमेशा राम-नाम का सुमिरन रखना। इससे तुम्हारे भीतर और बाहर दोनों और चेतना का उजाला रहेगा।

तुलसीदास

सबहि समरथहि सुखद प्रिय, अच्छम प्रिय हितकारि।

कबहुँ काहुहि राम प्रिय, तुलसी कहा बिचारि॥

(संसार की यह दशा है कि) जो समर्थ पुरुष है उन सबको तो सुख देने वाला प्रिय लगता है और असमर्थ को अपना भला करने वाला प्रिय होता है। तुलसी विचारकर ऐसा कहते हैं कि भगवान श्री राम (विषयी पुरुषों में) कभी किसी को भी प्रिय नहीं लगते।

तुलसीदास

घर-घर माँगे टूक पुनि, भूपति पूजे पाय।

जे तुलसी तब राम बिनु, ते अब राम सहाय॥

तुलसी कहते हैं कि जिस समय मैं राम से (श्री राम के आश्रय से) रहित था, उस समय घर-घर टुकड़े माँगता था। अब जो श्री राम जी मेरे सहायक हो गए हैं तो फिर राजा लोग मेरे पैर पूजते हैं।

तुलसीदास

तुलसी रामहु तें अधिक, राम भगत जियें जान।

रिनिया राजा राम में, धनिक भए हनुमान॥

तुलसी कहते हैं कि श्री राम के भक्त को राम जी से भी अधिक समझो। राजराजेश्वर श्री रामचंद्र जी स्वयं ऋणी हो गए और उनके भक्त श्री हनुमान जी उनके साहूकार बन गए (श्री राम-जी ने यहाँ तक कह दिया कि मैं तुम्हारा ऋण कभी चुका ही नहीं सकता)।

तुलसीदास

राम नाम कलि कामतरु, सकल सुमंगल कंद।

सुमिरत करतल सिद्धि सब, पग-पग परमानंद॥

श्री राम का नाम कलियुग में कल्पवृक्ष के समान है और सब प्रकार के श्रेष्ठ मंगलों का परम सार है। रामनाम के स्मरण से ही सब सिद्धियाँ वैसे ही प्राप्त हो जाती हैं, जैसे कोई चीज़ हथेली में ही रक्खी हो और पग-पग पर परम आनंद की प्राप्ति होती है।

तुलसीदास

गौतम तिय गति सुरति करि, नहिं परसति पग पानि।

मन बिहसे रघुबंस मनि, प्रीति अलौकिक जानि॥

मुनि गौतम की पत्नी अहल्या की गति को याद करके (जो चरणस्पर्श करते ही देवी बनकर आकाश में उड़ गई थी) श्री सीता जी अपने हाथों से भगवान् श्री राम जी के पैर नहीं छूतीं। रघुवंश-विभूषण श्री राम सीता के इस अलौकिक प्रेम को जानकर मन-ही-मन हँसने लगे।

तुलसीदास

ब्रह्म राम तें नामु बड़, बर दायक बर दानि।

राम चरित सत कोटि महँ, लिय महेस जियँ जानि॥

ब्रह्म और राम से भी राम नाम बड़ा है, वह वर देने वाले देवताओं को भी वर देने वाला है। श्री शंकर जी ने इस रहस्य को मन में समझकर ही राम चरित्र के सौ करोड़ श्लोकों में से (चुनकर दो अक्षर के इस) राम नाम को ही ग्रहण किया।

तुलसीदास

सेवा सील सनेह बस, करि परिहरि प्रिय लोग।

तुलसी ते सब राम सों, सुखद संजोग वियोग॥

तुलसी कहते हैं कि जगत के संबंधी प्रियजनों को (उनके मोह को) त्याग कर सेवा, शील और प्रेम से श्री राम को वश करो। श्री राम के प्रति सेवा, प्रेम आदि करने पर प्रत्येक संयोग-वियोग सुखप्रद हो जाएगा (क्योकि मोहवश ही मनुष्य को जन्म-मरणशील प्रियजनों या प्रिय पदार्थों के संयोग-वियोग में सुख-दुख होता है और राम से तो कभी वियोग हो ही नहीं सकता।

तुलसीदास

राम नाम नर केसरी, कनककसिपु कलिकाल।

जापक जन प्रहलाद जिमि, पालिहि दलि सुरसाल॥

श्री राम नाम नृसिंह भगवान् है,कलयुग हिरण्यकशिपु है और श्री राम नाम का जप करने वाले भक्तजन प्रह्लाद जी के समान हैं जिनकी वह राम नाम रूपी नृसिंह भगवान् देवताओं को दुःख देने वाले हिरण्यकशिपु को (भक्ति के बाधक कलियुग को) मारकर रक्षा करेगा।

तुलसीदास

तुलसी बिलसत नखत निसि, सरद सुधाकर साथ।

मुकुता झालरि झलक जनु, राम सुजसु सिसु हाथ॥

तुलसीदास जी कहते है कि शरत्पूर्णिमा के चंद्रमा के साथ रात्रि में नक्षत्रावली ऐसी शोभा देती है, मानो श्री राम जी के सुयश रूपी शिशु के हाथ में मोतियों की झालर झलमला रही हो।

तुलसीदास

सुद्ध सच्चिदानंदमय, कंद भानुकुल केतु।

चरित करत नर अनुहरत, संसृति सागर सेतु॥

शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगल विग्रह), सच्चिदानंदकंदस्वरूप, सूर्यकुल के ध्वजा रूप भगवान् श्री राम मनुष्यों के समान ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार-सागर से तारने के लिए पुल के समान हैं (अर्थात् उन चरित्रों को गाकर और सुनकर लोग भवसागर से सहज ही तर जाते हैं)।

तुलसीदास

ज्यों जग बैरी मीन कौ, आपु सहित बिनु वारि।

त्यों ‘तुलसी’ रघुवीर बिनु, गति अपनी सुविचारि॥

जिस प्रकार पानी के बिना मछली के सब शत्रु हो जाते हैं, यहाँ तक कि वह स्वयं भी अपने आप ही अपनी शत्रु हो जाती है वैसी ही भगवान् राम के बिना मनुष्य के सब शत्रु हो जाते हैं। इसलिए गोस्वामी जी अपने मन को समझाते हुए कहते हैं कि तू भी अपना कल्याण चाहता है तो भगवान् की शरण में जा ताकि तेरा उद्धार हो जाय।

तुलसीदास

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