मिसफ़िट होने की कला
शंखधर दुबे
03 दिसम्बर 2025
एक मित्र और उनके मात्र ग्यारह साल के बेटे के बीच महीनों का अबोला पसरा है। अबोला अचानक नहीं आया है। कई-कई टकराव और असहमतियों के बाद यह समय आया है। मित्र हैरान हैं। ऐसा तो कहाँ होता था! उस उम्र में तो हम पिता की पसंद की चड्डी तक पहनते थे। अपनी कोई चॉइस ही न थी। सब निर्णय पिता जी ही लेते थे। किसी को कोई कन्फ़्यूज़न न था।
अबोलापन के और सो भी इतनी जल्दी आने पर मैं भी हैरान हूँ। पहले अबोलापन सीधे नहीं आता था। क़िस्तों में धीरे-धीरे आता था। पहले काफ़ी दिन आस्था का दौर चलता था। आज के बच्चों को यह जानकर हैरानी होगी कि पहले बच्चे एग्ज़ाम में अपने आदर्श व्यक्ति के नाम पर अपने ही पिता पर निबंध लिखते थे। अभी पिता पर लिखना हो तो मुझे डर है लगभग बड़ी संख्या में बच्चे अपने बाप का तटस्थ और भावना रहित मूल्यांकन करते हुए शर्तिया उसकी बुराई करेंगे। फिर आस्थाओं के खंडित होने का दौर आता था। आदर फिर भी बना रहता था। सबसे अंतिम में और बाल बच्चेदार होने के बाद छोटे पहलवान और कुसहर प्रसाद का दौर शुरू होता था। यह बदलाव क्रमिक होता था और इससे दोनों पक्षों को मानसिक रूप से तैयार होने का सुभीता मिल जाता है। इसलिए प्रेम से अप्रेम यह ट्रांजिशन इतना मारक नहीं होता था।
उनकी बात सुनते हुए मुझे अपनी चिंता हो आती है। यह आस-पास और जीवन के हर पक्ष में उठ रहे बदलाव से एकदम ग़ाफ़िल और पीछे छूट गए आदमी की चिंता है। आपसे सहमत हूँ कि पढ़ा-लिखा और चिंतनशील मनुष्य उभरती प्रवृत्तियों के साथ तालमेल बिठाता चलता है। एक कड़क अध्यापक पिता को अपने जवान बच्चों के साथ क्रिकेट खेलते और दारू पीते देखा तो समझ में आया कि यह हमेशा रेलेवेंट बना रहेगा और इज़्ज़त भी पाएगा। एक हम हैं, लगता है कि फ़ॉरेस्टर साहब को राउंड और फ़्लैट कैरेक्टर को परिभाषित करते समय फ़्लैट के फ़ीचर्स मुझसे ही प्रेरित लगते हैं। एक दम वन डायमेंशन। जहाँ खड़े हैं, वही पड़े हैं। बिल्कुल हम तो भाई जैसे हैं वैसे रहेंगे। हम मिट्टी के लोंदे हैं, ऊपर से सितम यह है कि अपने अनगढ़पन पर घमंड भी है। घमंड अज्ञानता से उपजता है, फ़िलहाल जिसकी हमारे पास कोई कमी नहीं। समझ और विवेक फ़्लेक्सबिलिटी से आते हैं। जो बक़ौल ग़ालिब मौत आती है, पर नहीं आती। बदलते मूल्यों और संस्कारों के बीच ऐसे में अपने ही क्या खिलौने के बच्चे बग़ावत कर देंगे।
आजकल के बच्चे, आमतौर पर मेरे बच्चे तो ख़ासतौर से जल्दी—किसी से भी और अपने माँ-बाप से तो क़तई प्रभावित नहीं होते हैं। बड़े से बड़ा आदर्श और संघर्ष उन्हें हास्यास्पद लगता है, मुँह दबाकर हँसते हैं। यह बात तो ख़ासी दिल दुखाऊँ है कि जिन बातों पर हम रोए हैं, उन बातों पर यह पीढ़ी हँसती है। बताइए... हम गाते हैं कि ‘हम लाए हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के’, बच्चे कहते हैं कि तुम्हारी कश्ती में सौ-सौ छेद हैं। हमारा सागर अलग है, हम क्या करें तुम्हारी कश्ती का। अपना बोझा ख़ुद उठाओ बाबा। भाषा और भंगिमा का जो सिरा हम जान की बाज़ी लगाकर लाए हैं, वे चिमटे से भी न छुना चाह रहे। हम जिन्हें औलाद समझ कर गले लगाए बैठे थे, वे जनरेशन से अल्फ़ा हैं। माँ-बाप से प्रोफ़ेशनल टाइप का संबंध है, फ़िल्मी काहे हो रहे हो पिता जी! हम कहीं के ना रहे। बीमारों के चक्कर में भावुक लोगों के लड़ियाने के कितने ही तरीक़े सभ्य समाज में एब्यूज की श्रेणी में आ गए। ऊपर से हम देहाती, सो भी निपट वाले। एक मित्र की छुटकी-सी बेटी की कान की लौ छू ली कि भाभी ने लगभग डपट ही दिया। उसके बाद धर्म पत्नी द्वारा अलग से घूरे गए। अब लाड़ भी ससुर ब्लूटूथ से ही करना होगा शायद। कुंठाओं की कृपा से कितनी ही मासूम हसरतें संदिग्ध और क़ानून के दायरे में आ गई हैं।
अब, ऐसी ही स्थिति में भरी जवानी में ही और लगभग हर जगह के साथ-साथ अपने ही घर में मिस-फ़िट हुआ जा रहा हूँ। कोई नहीं समझता कि कवि क्या चाहता है? मुझे हक्सले याद आते हैं। ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ उपन्यास में उनका नायक जॉन द सेवेज अपने मैकेनिकल समय से दुर्घटनावश पीछे छूट गया है। शेक्सपीयर को पढ़ता-गुनता है। अपनी दुनिया में मगन रहने वालों के बीच उसके जीने के परंपरागत टूल नाकाफ़ी रहते हैं। उसे प्रेम, स्नेह, मित्रता और करुणा से भरा सदियों पुराना मन मिला है। सोमा और संभोग में डूबे बाज़ार की ज़रूरत से तैयार जेनेटिकली मोडिफ़ाइड पीढ़ी के बीच वह स्थिर और गृहस्थ प्रेम की तलाश में है। उसकी प्रेम-यात्रा हैरानी से हँसती है, हँसती ही रहती है। अंत में वह आत्महत्या करता है। हमारे पीढ़ियों के अर्जित संस्कार भोथरे, जड़ और मृतप्राय लगने लगे हैं।
घबराहट होती है। क्या करूँ। किसका हाथ थाम लूँ। ऐसा तो है नहीं कि यह चुनौती सिर्फ़ हमारी है। हर युग के अपने ट्रांज़िशन रहे हैं। हाँ उनकी गति ज़रूर धीमी थी। धरती घूमती है इस रिवॉल्यूशन से ही लोग खड़े-खड़े गिर पड़े। दरअस्ल हम विचार और संस्कार से जिस सिकहर से लटके हैं, उसकी कमज़ोरी पर विचार किए बिना ही उसके प्रति मोहग्रस्त हो जाते हैं। हर सिकहर एक्सपायरी डेट के साथ ही आता है। अल्फ़्रेड लॉर्ड टेनीसन की कविता ‘पासिंग द आर्थर’ याद आई। टेनीसन का युग भी तो भयंकर उथल-पुथल का युग था। ‘द वन इज़ डेड एंड द अदर इज़ पावरलेस टू बी बोर्न’। यह संसार इवॉल्यूशन का परिणाम है विधाता की किसी डिजाइन का नहीं। विक्टोरियन के मन में महाभारत चल रहा है। ऐसे में टेनीसन की कविता अपने समय में बदलाव को लेकर आश्वस्ति पैदा करती है।
अपनी तलवार एक्सकैलिवर से बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ जीतने वाले आर्थर का अंत समय आ गया है। उन्हें अब तलवार लौटानी होगी। वे अपने दुखी विश्वस्त सिपहसलार को आश्वस्त करते हैं—बदलाव अपरिहार्य है। तलवार घिस गई है, पर मोह में उसकी मूठ गहकर घूमने का कोई अर्थ नहीं है। ठीक ही है, अपनी परंपरा और अपने संस्कार से ख़ुद हो मुक्त करना मुश्किल होता है।
मैं मित्र को तमाम उदाहरण देकर समझाता हूँ। पर ख़ुद समझ नहीं पा रहा कि ‘तेरा क्या होगा कालिया’। अपने ही कहे गए विचार पर भरोसा नहीं हो रहा! क्योंकि वह भीतर जैविक तरीक़े से नहीं उगा है। उसे दिमाग़ ने रचा है और कन्विंस किया है कि यही सच है। यह विचारों और कर्मों के स्थाई संबंध-विच्छेद का समय है, जहाँ प्रार्थनाएँ सिर्फ़ रिचुअल हैं, अभ्यास हैं। इसलिए वे ताक़त नहीं देती। प्रार्थना कर पाना बहुत बड़ी ताक़त है। बड़ी ताक़त तो प्रेम, करुणा, क्षमा, त्याग और दान भी है। ख़ैर...
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