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लल्लेश्वरी

1320 - 1392 | श्रीनगर, जम्मू कश्मीर

लल्लेश्वरी की संपूर्ण रचनाएँ

सवैया 1

 

उद्धरण 7

अभी में अल्पायु बाला थी। दम भर में ही पूर्ण-यौवना बनी। अभी मैं चलती-फिरती थी और अभी जलकर राख बन गई।

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विचारहीन लोग धर्मग्रंथों को उसी प्रकार बाँचते रहते हैं, जिस प्रकार पिंजरे में तोता राम-राम की रट लगाता है।

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हे मूढ़! व्रतधारण और साज-सज्जा कर्तव्य कर्म नहीं है। ही मात्र काया की रक्षा कर्तव्य कर्म है। भोले मानव! देह की सार-संभाल ही कर्तव्य कर्म नहीं। सहज विचार (आत्म-तत्त्वचिंतन) वास्तविक उपदेश है।

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वह तेरे निकट है, दूर खोजने की आवश्यकता नहीं। वह शून्य के साथ शून्य मिल जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

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उसका जो भी कुछ नाम हो, शिव हो, केशव हो, जिन हो अथवा कमलजनाथ हो—मुझ अबला को भव-रोग से मुक्त कर दे।

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