हिंसा पर उद्धरण
हिंसा अनिष्ट या अपकार
करने की क्रिया या भाव है। यह मनसा, वाचा और कर्मणा—तीनों प्रकार से की जा सकती है। हिंसा को उद्घाटित करना और उसका प्रतिरोध कविता का धर्म रहा है। इस चयन में हिंसा विषयक कविताओं को शामिल किया गया है।

पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा।

अपने जीवन में नियमित और व्यवस्थित रहो, ताकि तुम अपने लेखन में हिंसक और मौलिक बन सको।

लोकयात्रा का निर्वाह करने के लिए ही धर्म का प्रतिपादन किया गया है। सर्वथा हिंसा न की जाए अथवा दुष्ट की हिंसा की जाए, यह प्रश्न उपस्थित होने पर जिसमें धर्म की रक्षा हो, वहीं कार्य श्रेष्ठ मानना चाहिए।

हिंसा के भाले दोमुँहे हैं, वे इसका सहारा लेने वालों को उनके दुश्मनों से अधिक घायल करते हैं।

हत्या की संस्कृति में प्रेम नहीं होता है।

क्रूरताएँ और उजड्डताएँ किसी भी जन-समाज को बचा नहीं सकते।

यदि आपको झगड़ा करके ईश्वर का नाम लेना है; तो वह नाम तो ईश्वरका होगा, पर काम शैतान का होगा।

हिंसा से मुक्त हो जाने का अर्थ है उस प्रत्येक चीज़ से मुक्त हो जाना, जिसे एक मनुष्य को साँप रखा है, जैसे—विश्वास, धार्मिक मत, कर्मकाँड तथा इस तरह की मूढ़ताएँ : मेरा देश, मेरा ईश्वर, तुम्हारा ईश्वर, मेरा मत, तुम्हारा मत, मेरा आदर्श, तुम्हारा आदर्श।

दुनिया में इतने लोग आज भी ज़िंदा हैं, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार बल पर नहीं है, बल्कि सत्य, दया और आत्मबल पर है।

सिद्धांत यह है कि जिस कार्य में हिंसा न हो, वही धर्म है। महर्षियों ने प्राणियों की हिंसा न होने देने के लिए ही धर्म का प्रवचन किया है।

तात! मेरे विचार से प्राणियों की हिंसा न करना ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है। किसी की प्राण-रक्षा के लिए झूठ बोलना पड़े तो बोल दे, किंतु उसकी हिंसा किसी तरह न होने दे।

एक रंग होता है नीला और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है।

संसार में छल, प्रवंचना और हत्याओं को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत ही नरक है।

पुरुष जब बिस्तर में बेकार हो जाए, बेरोज़गार हो जाए, बीमार हो जाए तो पत्नी को सारे सच्चे-झूठे झगड़े याद आने लगते हैं। तब वह आततायी बन जाती है। उसके सर्पीले दाँत बाहर निकल आते हैं।

हिंसा से हम हक़ ले नहीं सकते।

असत्य और बुराई के साथ तो कभी समझौता नहीं करना चाहिए।

सभी लोग हिंसा का त्याग कर दें तो फिर क्षात्रधर्म रहता ही कहाँ है? और यदि क्षात्रधर्म नष्ट हो जाता है तो जनता का कोई नाता नहीं रहेगा।

तलवार के ज़ोर से अगर कोई आदमी कुछ ले लेता है तो उससे बड़ी दूसरी तलवार से वह छीन लिया जाता है।

हिंसा की भूख और प्यास बढ़ाना सत्ता का कर्तव्य बन गया है।

यदि भारत ने हिंसा को अपना धर्म स्वीकार कर लिया और यदि उस समय मैं जीवित रहा, तो मैं भारत में नहीं रहना चाहूँगा। तब तक वह मेरे मन में गर्व की भावना उत्पन्न नहीं करेगा।

जो काम गुंडेपन से किया जाता है, उसमें फिर वह करने वाले माँ-बाप अथवा पत्नी या बेटे ही क्यों न हों—मैं कभी भी साथ नहीं दे सकता।

धर्म का पालन जोर-जबरदस्ती से नहीं हो सकता। धर्मका पालन करनेके लिए मरना होगा।

झूठ के सहारे जीवन की रक्षा या आततायी की हत्या करना–दर्शन तथा अध्यात्म के साए में ही सार्थक ठहर सकता है।

सभी धर्म कहते हैं, इतिहास भी साक्षी देता है और अनुभव की भी बात है कि असत्य, हिंसा आदि से युक्त साधनों द्वारा सत्य की खोज करना असंभव है।

हिंसा का अहिंसा से प्रतिशोध करने के लिए महाप्राण चाहिए।

जनरल युद्ध स्थल पर दुश्मनों के मृतकों की संख्या गिनता है जबकि कवि इस बात का हिसाब लगाता है कि युद्ध में कितने जीवित लोग मारे गए।

इच्छाशक्ति भी हिंसा का ही सारभूत तत्व है।

प्रेम, घृणा या हिंसा का विपरीत नहीं है।

प्रेम किसी चीज़ का विपरीत नहीं है।

हम एक ऐसा समाज और एक ऐसी नैतकिता के अभ्यस्त हैं जो हिंसा पर आधरित है।

यहूदी-संहार और भारत-पाक विभाजन के सैकड़ों संस्मरण बताते हैं कि भयानक अनुभवों के बाद भी, माता-पिता बच्चों के सामने ज़िंदगी की सामान्यता का अभिनय करते हैं।

अराजक देश में मनुष्य का कुछ भी अपना नहीं होता। जल में मछलियों के समान मनुष्य एक दूसरे को हड़पने लगते हैं।

महाभारत का युद्ध भारतीय इतिहास की एक अति दारुण घटना है।


अगर चेहरे गढ़ने हों तो अत्याचारी के चेहरे खोजो अत्याचार के नहीं।


दुनिया में बहुत से झगड़े केवल क़रार के अर्थ के कारण उत्पन्न होते है।
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एक मानव के रूप में मैं पता लगाना चाहता हूँ कि हिंसा का अतिक्रमण कैसे करूँ, हिंसा से परे कैसे जाऊँ।

दृष्ट लक्षणों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि इनके स्थूल साधन होने पर भी, अपने या दूसरे के हृदय में अहिंसावृत्ति कितनी विकसित हुई है—उसका इन लक्षणों से साधारणतः अंदाज़ मिल जाता है।
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हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए। जो कविता हम सबको लाचार बनाती है?

हिंसा और घृणा की चारदीवारी में ही क़ैद है आपकी नैतिकता और आपके सद्गुण। जब तक आप हिंसा और घृणा को पूरी तरह नकारते नहीं तब तक सही अर्थों में सद्गुणी नहीं हो सकते है।

दूसरों द्वारा किए गए अपमान का बदला हम अपने से कमज़ोर से लेते हैं।

चीता अपनी जीवनधारा कभी नहीं बदलता।

जिस दिन सब समेटना होता है, उसे तांडव या महारास या प्रलय कह दिया जाता है।

शरीर या मन की अपवित्रता को छिपाने से असत्य और हिंसा पैदा होगी ही।