हिंसा पर उद्धरण
हिंसा अनिष्ट या अपकार
करने की क्रिया या भाव है। यह मनसा, वाचा और कर्मणा—तीनों प्रकार से की जा सकती है। हिंसा को उद्घाटित करना और उसका प्रतिरोध कविता का धर्म रहा है। इस चयन में हिंसा विषयक कविताओं को शामिल किया गया है।
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पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा।
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क्रूरताएँ और उजड्डताएँ किसी भी जन-समाज को बचा नहीं सकते।
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हत्या की संस्कृति में प्रेम नहीं होता है।
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संसार में छल, प्रवंचना और हत्याओं को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत ही नरक है।
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एक रंग होता है नीला और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है।
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पुरुष जब बिस्तर में बेकार हो जाए, बेरोज़गार हो जाए, बीमार हो जाए तो पत्नी को सारे सच्चे-झूठे झगड़े याद आने लगते हैं। तब वह आततायी बन जाती है। उसके सर्पीले दाँत बाहर निकल आते हैं।
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अगर चेहरे गढ़ने हों तो अत्याचारी के चेहरे खोजो अत्याचार के नहीं।
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हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए। जो कविता हम सबको लाचार बनाती है?
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दूसरों द्वारा किए गए अपमान का बदला हम अपने से कमज़ोर से लेते हैं।
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चीता अपनी जीवनधारा कभी नहीं बदलता।
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जिस दिन सब समेटना होता है, उसे तांडव या महारास या प्रलय कह दिया जाता है।