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लोक पर उद्धरण

लोक का कोशगत अर्थ—जगत

या संसार है और इसी अभिप्राय में लोक-परलोक की अवधारणाएँ विकसित हुई हैं। समाज और साहित्य के प्रसंग में सामान्यतः लोक और लोक-जीवन का प्रयोग साधारण लोगों और उनके आचार-विचार, रहन-सहन, मत और आस्था आदि के निरूपण के लिए किया जाता है। प्रस्तुत चयन में लोक विषयक कविताओं का एक विशेष और व्यापक संकलन किया गया है।

वेद और लोक, इन दोनों के बीच संवाद के द्वारा भारतीय संस्कृति का विकास हुआ है। कभी तनाव भी रहा है, द्वन्द भी रहा है लेकिन चाहे वह द्वन्द हो, चाहे वह तनाव हो—इन सबके साथ बराबर एक संवाद बना रहा हैं।

नामवर सिंह

इस देश की परंपरा रही है कि लोक और शास्त्र, लगातार संवाद करते रहे हैं।

नामवर सिंह

पाणिनि के सामने संस्कृत वाङ्मय और लोक-जीवन का बृहत् भंडार फैला हुआ था। वह नित्य प्रति प्रयोग में आनेवाले शब्दों से भरा हुआ था। इस भंडार में जो शब्द कुछ भी निजी विशेषता लिए हुए था, उसी का उल्लेख सूत्रों में या गणपाठ में गया है।

वासुदेवशरण अग्रवाल

जन-रागिनी और उसकी अंत:श्रद्धा जाने कितनी घटनाओं को अपनी गहराई के जादू से दैवी रूप प्रदान कर देती है, इतिहास विफल रहता है, कला समय का आघात बर्दाश्त नहीं कर पाती और साहित्य कभी-कभी पन्नों में सोया रह जाता है, किन्तु लोक-रागिनी का स्वर आँधी-पानी के बीच समय की उद्दाम-धारा के बहाव के बीच, विस्मृति के कितने अभिचारों के बीच भी शाश्वत बना रहता है और यद्यपि यह नहीं पता चलता कि किस युग से, किस घटना से और किस देश से उसका संबंध है और यह भी नहीं पता चलता कि उसके कितने संस्करण अपने-आप अनजाने कण्ठों द्वारा हो गए हैं, पर उसमें जो सत्य सत्त बनकर खिंच आता है, उसे कोई भी हवा उड़ा नहीं पाती, क्योंकि वह सत्य बहुत भारी होता है।

विद्यानिवास मिश्र

मैं इसलिए यह कहना जरूरी समझता हूँ कि जब से संस्कृत और लोकभाषाओं के बीच संवाद समाप्त हुआ है—भाषाओं की क्षति हुई है।

नामवर सिंह

जिन लोगों के मन में केशव के काव्य के बारे में रूखेपन और पाण्डित्य का भ्रम है, उन्हें कदाचित् यह पता नहीं है कि केशव हिंदी के उत्तर-मध्य युग के कवियों में सबसे अधिक व्यवहारविद्, लोक-कुशल और मनुष्य के स्वभाव के मर्मज्ञ कवि हैं।

विद्यानिवास मिश्र

तुलसीदास ने रामराज्य के रूप में एक यूटोपिया की सृष्टि की है। भक्त इस लोक को अपर्याप्त समझते थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। स्वप्नदर्शी भी थे इसलिए उन्होंने एक ऐसे लोक की भी कल्पना की, कम-से-कम उसका स्वप्न देखा और समाज के सामने आदर्श रखा।

नामवर सिंह

हिंदुस्तान का जीवन देहातों के जरिए ही है।

महात्मा गांधी

अहा! इस लोक में प्रणय की भी कैसी महिमा है! तात, माता, भ्राता, भ्रातृज—कोई सत्य नहीं है।

श्रीलाल शुक्ल

उर्दू कवियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका मातृभूमि-प्रेम है। इसलिए बंबई और कलकत्ता में भी वे अपने गाँव या क़स्बे का नाम अपने नाम के पीछे बाँधे रहते हैं और उसे खटखटा नहीं समझते। अपने को गोंडवी, सलोनवी और अमरोहवी कहकर वे कलकत्ता-बंबई के कूप-मंडूक लोगों को इशारे से समझाते हैं कि सारी दुनिया तुम्हारे शहर ही में सीमित नहीं है। जहाँ बंबई है, वहाँ गोंडा भी है।

श्रीलाल शुक्ल

काव्यप्रणयन के लिए व्याकरणशास्त्र, छंदःशास्त्र, शब्दकोश, व्युत्पत्ति-शास्त्र, ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाओं, लोकव्यवहार, तर्कशास्त्र और कलाओं का मनन करना चाहिए।

भामह

घाघ की लोकोक्तियों में सुख की चरमसीमा यही है कि घर पर पत्नी घी से मिली हुई दाल को तिरछी निगाहों से देखते हुए परोस दे। ऐसी स्थिति में गाँव का आदमी जब बाहर निकलता है तो पहला कारण तो यही समझना चाहिए कि संभवतः वहाँ दाल-रोटी का साथ छूट चुका है, तिरछी निगाहें टेढ़ी निगाहों में बदल गई हैं।

श्रीलाल शुक्ल

दिल्ली से लेकर शिवपालगंज तक; काम करनेवाली देसी बुद्धि सब जगह एक-सी है।

श्रीलाल शुक्ल

हमने विलायती तालीम तक देसी परंपरा में पाई है और इसलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है, बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता है।

श्रीलाल शुक्ल

पढ़कर आदमी पढ़े-लिखे लोगों की तरह बोलने लगता है। बात करने का असली ढंग भूल जाता है।

श्रीलाल शुक्ल

गालियों और ग्राम-गीतों का कॉपीराइट नहीं होता।

श्रीलाल शुक्ल

सूक्ष्म अभिव्यक्ति के लिए लोकभाषाओं से बल प्राप्त करना ही होगा।

कुबेरनाथ राय

आदमी की पहचान केवल नाम से ही नहीं होती, रूप से भी होती है। इसलिए भक्तों ने भगवान को रूप ही नहीं दिया बल्कि भगवान जिस देश में आए, उस देश के प्रत्येक प्रदेश को और उसकी अपनी भाषाई अस्मिता में आत्मसात् किया।

नामवर सिंह

छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास भारतीय इतिहास में भक्ति की जो ऐतिहासिक क्रान्तिकारी घटना हुई थी, उसका जन्म लोकजीवन में हुआ था, लोकभाषा में हुआ था। उसका श्रेय आदि-अद्विज अब्राह्मणों को है। इसे दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों ने शुरू किया था।

नामवर सिंह

भारतीय कला की शब्दावली और रूपों का संग्रह लोक-संस्कृति के उद्धार का आवश्यक अंग है।

वासुदेवशरण अग्रवाल

बाल साहित्य एक आधुनिक चीज़ है जिसकी प्रेरणा के स्त्रोत लोक साहित्य निधि में पहचाने जा सकते है।

कृष्ण कुमार

वैष्णवों का कृष्ण—लोकल और क्लासिकल का संयुक्त रूप है।

नामवर सिंह

एक ख़ास तरह का मध्यवर्ग शहर में विकसित होता रहा है, जो गाँवों से आया है। आधुनिक हिंदी साहित्य उन्हीं लोगों का साहित्य है।

केदारनाथ सिंह

आम बोलचाल की भाषा से पात्रों की भाषा एकदम अलग नहीं हो सकती। हुई तो पाठक पात्र से एकात्म नहीं होंगे।

मृदुला गर्ग

यमुना अद्भुत रसमय चरित्र के साथ हमारे मानस लोक में प्रतिष्ठित है।

कुबेरनाथ राय

जन्मभूमि के प्रेम से ही देश-प्रेम पैदा होता है।

श्रीलाल शुक्ल

अगर आप जनता की भाषा में बहुतेरी बातों को समझ ही पाएँ, तो भला साहित्यिक और कलात्मक सृजन की बात कैसे कर सकेंगे?

माओ ज़ेडॉन्ग

तुलसीदास ने कहा कि केवल वह कीजिए, जो लोक-सम्मत हो, जो केवल लोगों को अच्छा लगे। वह कीजिए जो साधु सम्मत हो, अर्थात् विवेकपूर्ण हो, उचित हो, बुद्धिसंगत हो, सिद्धान्ततः सही हो। इसलिए लोकमत और साधुमत, दोनों को ध्यान में रखिए।

नामवर सिंह

जो प्रेम ‘लोक और वेद’, दोनों के प्रलोभनों से दूर है, उसे लोक-विरोधी अथवा लोक-निरपेक्ष कैसे कहा जा सकता है?

नामवर सिंह

लोक जीवन का प्रकृति के प्रति वैयक्तिक नही, सामूहिक सम्बन्ध रहता है।

विजयदान देथा

भक्ति महारस है और यह 'नाट्यशास्त्र' के विभिन्न रसों में से एक है। वह रस ऑब्जेक्टिव निर्वैयक्तिक हो सकता है। कालिदास ने कहा है कि यह भावयिक रस है। इसमें भक्ति के अनुभव पर ज़ोर है। भाव पर है। 'भक्ति-भाव' शब्द का प्रयोग आम तौर पर व्यवहार में होता है।

नामवर सिंह

लोक जीवन और प्रकृति का घनिष्ट रिश्ता है। प्रकृति का प्रत्येक उपकरण अपने-अपने तरीको से किसान की ज़िन्दगी को प्रभावित करता है।

विजयदान देथा

लोक तो वेद के आगे-आगे चलता है और इसी से पंचांग की घोषित तिथि से पंद्रह दिन पहले ही लोक-मानस मान लेता है कि संवत्सर बदल गया।

कुबेरनाथ राय
  • संबंधित विषय : वेद

भरत मुनि ने जब 'नाट्यशास्त्र' लिखा तो 'नाट्यशास्त्र' को उन्होंने पंचम् वेद कहा; अर्थात् चार वेदों की परम्परा में एक नये वेद की आवश्यकता है। उस नए वेद की घोषणा के साथ इस देश का जन-समुदाय एक नए परिवर्तन की, एक नई क्रांति की सूचना देता है।

नामवर सिंह

लोक-रूचि, प्रकृति को रंजन-सामग्री ही में नि:शेष नही कर डालती।

विजयदान देथा

पंचतंत्र में शामिल ज़्यादातर लोककथाओं की संरचना में ज़िंदगी के अलावा संसार को पलट देने की तरक़ीबें निबद्ध हैं। विधा के रूप में लोककथा इतनी संक्षिप्त और कसी हुई होती हैं कि संसार को पलटने वाले चरित्र की ज़िंदगी पर रोशनी डालने का समय नहीं देती।

कृष्ण कुमार

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो घर की देहरी लाँघते ही विश्व-नागरिक बन जाते हैं।

श्रीलाल शुक्ल

फगुनी हवा का परस लोक को उत्तेजना देता है और सभ्यता का ओढ़ना लोग उतार फेंकते हैं।

कृष्ण बिहारी मिश्र

लोक-जीवन की संस्कृति की जानकारी होने से बुद्धिवादी ओरी से लटकने वाला ब्रह्मराक्षस बन जाता है।

यू. आर. अनंतमूर्ति

ब्रज के हवा-पानी में ही वह रस है जो घूँघट का पट विदीर्ण कर देता है।

कृष्ण बिहारी मिश्र

हम-आप सभी जानते हैं कि हमारी भाषा के मुहावरे दो ही जगहों पर सुरक्षित हैं—या तो हमारे घर-परिवार में औरतों के बीच या उन लोगों में जो हाथ का काम करते हैं, जो मेहनत करते हैं।

नामवर सिंह

हमारी संस्कृति को उन्हीं ग्रामीण लोगों ने जीवित रखा हुआ है जो अँगूठाछाप हैं।

यू. आर. अनंतमूर्ति

व्याकरण कोई भी ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं कर सकता—जिसका भाषा के आम-प्रचलन में स्वयं अपना अस्तित्व हो

विजयदान देथा

जो शब्द जितने लंबे समय से लोक-व्यवहार में रहता है, उस पर उतनी ही ज़्यादा मानवीय जीवन की ऐतिहासिक छाप पड़ती चली जाती है।

केदारनाथ सिंह

मेरी आधुनिकता में मेरे गाँव और शहर के बीच का संबंध किस तरह घटित होता है, इस प्रश्न की विकलता मेरे भाव-बोध का एक अनिवार्य हिस्सा है।

केदारनाथ सिंह

मेरी आधुनिकता की एक चिंता यह है कि उसमें लालमोहर कहाँ है? मेरी बस्ती के आख़िरी छोर पर रहने वाला लालमोहर वह जीती-जागती सचाई है, जिसकी नीरंध्र निरक्षरता और अज्ञान के आगे मुझे अपनी अर्जित आधुनिकता कई बार विडंबनापूर्ण लगने लगती है।

केदारनाथ सिंह

बहैसियत एक रचनाकार के मेरे लिए आधुनिकता सबसे पहले मेरा अनुभव है।

केदारनाथ सिंह