लोक पर उद्धरण
लोक का कोशगत अर्थ—जगत
या संसार है और इसी अभिप्राय में लोक-परलोक की अवधारणाएँ विकसित हुई हैं। समाज और साहित्य के प्रसंग में सामान्यतः लोक और लोक-जीवन का प्रयोग साधारण लोगों और उनके आचार-विचार, रहन-सहन, मत और आस्था आदि के निरूपण के लिए किया जाता है। प्रस्तुत चयन में लोक विषयक कविताओं का एक विशेष और व्यापक संकलन किया गया है।
वेद और लोक, इन दोनों के बीच संवाद के द्वारा भारतीय संस्कृति का विकास हुआ है। कभी तनाव भी रहा है, द्वन्द भी रहा है लेकिन चाहे वह द्वन्द हो, चाहे वह तनाव हो—इन सबके साथ बराबर एक संवाद बना रहा हैं।
इस देश की परंपरा रही है कि लोक और शास्त्र, लगातार संवाद करते रहे हैं।
पाणिनि के सामने संस्कृत वाङ्मय और लोक-जीवन का बृहत् भंडार फैला हुआ था। वह नित्य प्रति प्रयोग में आनेवाले शब्दों से भरा हुआ था। इस भंडार में जो शब्द कुछ भी निजी विशेषता लिए हुए था, उसी का उल्लेख सूत्रों में या गणपाठ में आ गया है।
कविता-कहानी-नाटक के बाज़ार में जिन्हें समझदारों का राजपथ नहीं मिलता; वे आख़िर देहात में खेत की पगडंडियों पर चलते हैं, जहाँ किसी तरह का महसूल नहीं लगता।
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जन-रागिनी और उसकी अंत:श्रद्धा जाने कितनी घटनाओं को अपनी गहराई के जादू से दैवी रूप प्रदान कर देती है, इतिहास विफल रहता है, कला समय का आघात बर्दाश्त नहीं कर पाती और साहित्य कभी-कभी पन्नों में सोया रह जाता है, किन्तु लोक-रागिनी का स्वर आँधी-पानी के बीच समय की उद्दाम-धारा के बहाव के बीच, विस्मृति के कितने अभिचारों के बीच भी शाश्वत बना रहता है और यद्यपि यह नहीं पता चलता कि किस युग से, किस घटना से और किस देश से उसका संबंध है और यह भी नहीं पता चलता कि उसके कितने संस्करण अपने-आप अनजाने कण्ठों द्वारा हो गए हैं, पर उसमें जो सत्य सत्त बनकर खिंच आता है, उसे कोई भी हवा उड़ा नहीं पाती, क्योंकि वह सत्य बहुत भारी होता है।
मैं इसलिए यह कहना जरूरी समझता हूँ कि जब से संस्कृत और लोकभाषाओं के बीच संवाद समाप्त हुआ है—भाषाओं की क्षति हुई है।
'पद्मावत' में प्रेम की प्रधानता निर्विवाद है, परंतु उस प्रेम के स्वरूप के बारे में मतभेद है। विवाद का विषय यह है कि वह प्रेम मूलतः लौकिक है या अलौकिक।
जिन लोगों के मन में केशव के काव्य के बारे में रूखेपन और पाण्डित्य का भ्रम है, उन्हें कदाचित् यह पता नहीं है कि केशव हिंदी के उत्तर-मध्य युग के कवियों में सबसे अधिक व्यवहारविद्, लोक-कुशल और मनुष्य के स्वभाव के मर्मज्ञ कवि हैं।
कबीर की कविता का लोक और उसका धर्म; दूसरे भक्त कवियों से अलग है, क्योंकि उनके जीवन का अनुभवलोक भी दूसरों से भिन्न है।
कबीर के लोकधर्म में, व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष से अधिक महत्त्वपूर्ण है—समाज में मनुष्यत्व का जागरण।
भक्त कवियों ने प्रेममार्ग की जिन बाधाओं का वर्णन किया है, वे भी लोकजीवन में प्रेम की अनुभूति की बाधाएँ हैं।
रूढ़ियाँ केवल शास्त्र की ही नहीं होतीं, लोक की भी होती हैं।
भक्ति आंदोलन, जनसंस्कृति के अपूर्व उत्कर्ष का अखिल भारतीय आंदोलन है। ऐसे आंदोलन में अनेक स्वरों का समावेश कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
लोक की रूढ़ियाँ, शास्त्र की रूढ़ियों से कम दमनकारी नहीं होतीं।
'पद्मावत' का अंतर्लोक भी लोक-अनुभवों से भरा हुआ है।
कबीर यह नहीं मानते कि लोक में धर्म के नाम पर जो कुछ है, वह सब विवेक-सम्मत है।
प्रायः जिसे लोकधर्म कहा जाता है, उसमें बहुत कुछ ऐसा भी होता है जिसे कबीर लोकभ्रम मानते हैं : 'लोका जानि न भूलौ भाई।'
टालस्टाय एक बड़ा योद्धा था, पर जब उसने देखा कि लड़ाई अच्छी चीज़ नहीं हैं तब लड़ाई को मिटा देने की कोशिश करते-करते वह मर गया। उसने कहा है कि दुनिया में सबसे बड़ी शक्ति लोकमत है और वह सत्य और अहिंसा से पैदा हो सकता है।
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एंतोनियो ग्राम्शी ने लोकमत का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है कि लोकमत अनुभवाश्रित, यथार्थपरक, समयसापेक्ष और भौतिकतावादी होता है।
जो पंच कहता है वह परमेश्वर की आवाज़ होती है, ऐसा कहते हैं। जो जगत है वह पंच के समान है। इसलिए जो जगत कहता है, वही सही तरीक़े से ईश्वर का न्याय है।
उर्दू कवियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका मातृभूमि-प्रेम है। इसलिए बंबई और कलकत्ता में भी वे अपने गाँव या क़स्बे का नाम अपने नाम के पीछे बाँधे रहते हैं और उसे खटखटा नहीं समझते। अपने को गोंडवी, सलोनवी और अमरोहवी कहकर वे कलकत्ता-बंबई के कूप-मंडूक लोगों को इशारे से समझाते हैं कि सारी दुनिया तुम्हारे शहर ही में सीमित नहीं है। जहाँ बंबई है, वहाँ गोंडा भी है।
तुलसीदास ने रामराज्य के रूप में एक यूटोपिया की सृष्टि की है। भक्त इस लोक को अपर्याप्त समझते थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। स्वप्नदर्शी भी थे इसलिए उन्होंने एक ऐसे लोक की भी कल्पना की, कम-से-कम उसका स्वप्न देखा और समाज के सामने आदर्श रखा।
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पढ़कर आदमी पढ़े-लिखे लोगों की तरह बोलने लगता है। बात करने का असली ढंग भूल जाता है।
गालियों और ग्राम-गीतों का कॉपीराइट नहीं होता।
अहा! इस लोक में प्रणय की भी कैसी महिमा है! न तात, न माता, न भ्राता, न भ्रातृज—कोई सत्य नहीं है।
हिंदुस्तान का जीवन देहातों के जरिए ही है।
काव्यप्रणयन के लिए व्याकरणशास्त्र, छंदःशास्त्र, शब्दकोश, व्युत्पत्ति-शास्त्र, ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाओं, लोकव्यवहार, तर्कशास्त्र और कलाओं का मनन करना चाहिए।
हमने विलायती तालीम तक देसी परंपरा में पाई है और इसलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है, बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता है।
दिल्ली से लेकर शिवपालगंज तक; काम करनेवाली देसी बुद्धि सब जगह एक-सी है।
भक्तिकाल के लोकधर्म को लेकर आलोचना में जो धर्मयुद्ध चला है; उसमें शास्त्रीय धर्म से लोकधर्म के द्वंद्व की पहचान हुई है, लेकिन लोकधर्म के आंतरिक द्वंद्व की उपेक्षा हुई है।
घाघ की लोकोक्तियों में सुख की चरमसीमा यही है कि घर पर पत्नी घी से मिली हुई दाल को तिरछी निगाहों से देखते हुए परोस दे। ऐसी स्थिति में गाँव का आदमी जब बाहर निकलता है तो पहला कारण तो यही समझना चाहिए कि संभवतः वहाँ दाल-रोटी का साथ छूट चुका है, तिरछी निगाहें टेढ़ी निगाहों में बदल गई हैं।
सूक्ष्म अभिव्यक्ति के लिए लोकभाषाओं से बल प्राप्त करना ही होगा।
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आज हमारे यहाँ का लोकमत इस तरह जाग्रत नहीं है। अगर जाग्रत होता तो मेरे-जैसा निक़म्मा व्यक्ति महात्मा न बन बैठता।
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जन्मभूमि के प्रेम से ही देश-प्रेम पैदा होता है।
यमुना अद्भुत रसमय चरित्र के साथ हमारे मानस लोक में प्रतिष्ठित है।
आदमी की पहचान केवल नाम से ही नहीं होती, रूप से भी होती है। इसलिए भक्तों ने भगवान को रूप ही नहीं दिया बल्कि भगवान जिस देश में आए, उस देश के प्रत्येक प्रदेश को और उसकी अपनी भाषाई अस्मिता में आत्मसात् किया।
छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास भारतीय इतिहास में भक्ति की जो ऐतिहासिक क्रान्तिकारी घटना हुई थी, उसका जन्म लोकजीवन में हुआ था, लोकभाषा में हुआ था। उसका श्रेय आदि-अद्विज अब्राह्मणों को है। इसे दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों ने शुरू किया था।
बाल साहित्य एक आधुनिक चीज़ है जिसकी प्रेरणा के स्त्रोत लोक साहित्य निधि में पहचाने जा सकते है।
भारतीय कला की शब्दावली और रूपों का संग्रह लोक-संस्कृति के उद्धार का आवश्यक अंग है।
वैष्णवों का कृष्ण—लोकल और क्लासिकल का संयुक्त रूप है।
एक ख़ास तरह का मध्यवर्ग शहर में विकसित होता रहा है, जो गाँवों से आया है। आधुनिक हिंदी साहित्य उन्हीं लोगों का साहित्य है।
सामाजिकता लोकालय का प्राण है, लेकिन नगर में सामाजिकता सुदृढ़ नहीं हो सकती। नगर का आयतन विस्तृत होता है और स्वभावतः लोगों के पारस्परिक सामाजिक संबंध शिथिल से हो जाते हैं।
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आम बोलचाल की भाषा से पात्रों की भाषा एकदम अलग नहीं हो सकती। हुई तो पाठक पात्र से एकात्म नहीं होंगे।
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अगर आप जनता की भाषा में बहुतेरी बातों को समझ ही न पाएँ, तो भला साहित्यिक और कलात्मक सृजन की बात कैसे कर सकेंगे?
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वाल्मीकि में पहली बार लोक-जीवन में रची-बसी कविता की सृष्टि हुई और वेद के बाद पहली बार छंद का एक नया या एक भिन्न स्तर पर अवतरण हुआ।
तुलसीदास ने कहा कि केवल वह न कीजिए, जो लोक-सम्मत हो, जो केवल लोगों को अच्छा लगे। वह कीजिए जो साधु सम्मत हो, अर्थात् विवेकपूर्ण हो, उचित हो, बुद्धिसंगत हो, सिद्धान्ततः सही हो। इसलिए लोकमत और साधुमत, दोनों को ध्यान में रखिए।
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लोक जीवन का प्रकृति के प्रति वैयक्तिक नही, सामूहिक सम्बन्ध रहता है।
लोक-कलाओं का भविष्य क्या है ? इस प्रश्न पर उत्तर पहले तो 'लोक' के बदलते रूप पर निर्भर होगा, दूसरे हमारी सांस्कृतिक नीतियों पर।
जो प्रेम ‘लोक और वेद’, दोनों के प्रलोभनों से दूर है, उसे लोक-विरोधी अथवा लोक-निरपेक्ष कैसे कहा जा सकता है?
भक्ति महारस है और यह 'नाट्यशास्त्र' के विभिन्न रसों में से एक है। वह रस ऑब्जेक्टिव निर्वैयक्तिक हो सकता है। कालिदास ने कहा है कि यह भावयिक रस है। इसमें भक्ति के अनुभव पर ज़ोर है। भाव पर है। 'भक्ति-भाव' शब्द का प्रयोग आम तौर पर व्यवहार में होता है।
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