आलसी पाठकों से मुझे अत्यंत घृणा है।
आलसी सोने वाले मनुष्य को दरिद्रता प्राप्त होती है तथा कार्य-कुशल मनुष्य निश्चय ही अभीष्ट फल पाकर ऐश्वर्य का उपभोग करता है।
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जिन कामों को हम अपने-आप कर सकते हैं, उन सबको अलग छोड़कर केवल दूसरों पर अभियोग लगाना और सदा-सर्वदा कर्महीन उत्तेजना में दिन बिताना—इसे मैं राष्ट्रीय कर्तव्य नहीं समझता।
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दिल्ली से लेकर शिवपालगंज तक; काम करनेवाली देसी बुद्धि सब जगह एक-सी है।
रुप्पन बाबू अठारह साल के थे। वे स्थानीय कॉलिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से और ख़ासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।
निश्चय ही इस संसार में इच्छारहित प्राणी को संपदाएँ नहीं अपनाती और संपूर्ण कल्याणों की उपस्थिति उनके हाथ में नित्य रहती है जो आलसी नहीं हैं।
आलस्य सुखरूप प्रतीत होता है परंतु उसका अंत दुःख है तथा कार्यदक्षता दुःखरूप प्रतीत होती है परंतु उससे सुख का उदय होता है।
तरक़्क़ी मिलने की शुरुआत आराम त्यागने के साथ ही होती है।
मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था। दारोग़ाजी उस पर बैठे भी थे, लेटे भी थे।
इतना काम है कि सारा काम ठप्प पड़ा है।
संसारी जन बड़े आलसी होते हैं जो सुलभ सौहार्द वाले महापुरुषों के मनों को जिस किसी वस्तु से नहीं ख़रीदते हैं।
'अलसस्य कुतो शिल्पं, अशिल्पस्य कुतो धनम्!'—एक आलसी के लिए शिल्प कहाँ, एक शिल्प-विहीन के लिए धन कहाँ।