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सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना

सिट्रीज़ीन—वह ज्ञान के युग में विचारों की तरह अराजक नहीं है, बल्कि वह विचारों को क्षीण करती है। वह उदास और अनमना कर राह भुला देती है। उसकी अंतर्वस्तु में आदमी को सुस्त और खिन्न करने तत्त्व हैं। उसके सेवन से चिर सजग आँखें भी उनींदी हो सकती हैं और दूर जाने से इनकार कर सकती हैं। 

इस समय के विरोधाभासी यथार्थ का एक और उदाहरण वह इस प्रकार है कि वह जिस असर का दावा करती है, उस पर पूरी तरह कभी खरी नहीं उतरती। तंबाकू की झार और ब्लीचिंग पाउडर की झरार तो मेरी नाक में है ही, ग़ज़ा से लेकर ग्राम सरयूटोला में धोबी घाट और श्मशान घाट के पास चल रहे सफ़ाई-खुदाई-कार्य में उड़ रही धूल भी मेरी ही नाक में है। मैं यात्रा में हूँ और बस का इंजन मेरी नाक में बज रहा है। मौसम मेरी नाक में बदल रहा है और बिगड़ रहा है और बन रहा है। कुंभ का प्रदूषण प्रयाग से उठकर सबसे पहले मेरी नाक में पहुँचेगा। इटावा-मुरादगंज के बीच शार्ट-डैश की तरह मौजूद ‘एकदिल नगर पंचायत’—जहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग गुज़रता है—के ‘सराय इकदिल’ चौराहे के ख़ुशबू डिजिटल फ़ोटो स्टूडियो में फिज़िकल फ़ोटो खिंचाने आए प्रेमी जोड़ों के हाथ में जो गुलाब-गुलदस्ता है उसे सूँघकर, अवसर का लिहाज़ किए बिना मैं ही छींकूँगा। ...और उसे हाँ-हाँ उसे ही फाँककर सो जाऊँगा जो ज्ञान के युग में विचारों की तरह अराजक नहीं है, बल्कि विचारों को क्षीण करती है।

जामा मस्जिद-परिसर में पदचापों की धूल है। इस धूल को शांत करने के लिए दिल्ली में रेंग रहे वाटर-टैंकरों के पहियों से उड़ने वाली धूल है। पुरानी किताबों पर जमी हुई धूल है। ये किताबें सब यात्राओं में साथ रहीं, लेकिन कभी नहीं पढ़ी गईं। धूल पढ़ी गई। अदृश्य ब्रह्मांड का समूचा परागकण, धुआँ और विस्मृति की राख—मेरी ही नाक में है। धूल से ढकी हुई स्मृतियों में भी धूल ही है। 

मन में धूल के अनेक संस्मरण हैं, जैसे रघुवीर सहाय के मन में पानी के थे :

कौंध। दूर घोर वन में मूसलधार वृष्टि
दुपहर : घना ताल : ऊपर झुकी आम की डाल

बयार : खिड़की पर खड़े, आ गई फुहार
रात : उजली रेती के पार; सहसा दिखी

शांत नदी गहरी
मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं

आधुनिकता के उस खाँसते हुए कोरस का ऐसा हिस्सा; जिसमें वैज्ञानिक दावे, विज्ञापन की फुसफुसाहट और शरीर के भीतर के रहस्य सब एक साथ उलझते हैं... इसका रूप इतना मामूली है कि कोई भी इसे गंभीरता से नहीं लेता। नींद के साथ प्रेम और सतर्कता के साथ विद्रोह करने वाली इस गोली का असर—नवरात्रि में व्रत करके चाट-पकौड़ी के ठेले पर आँखें गड़ा रही स्त्री, दफ़्तर में चौकन्ने पुरुष से लेकर बरसात में भीगते बच्चे—सभी पर एक बराबर होता है। आदमी छींकते-छींकते जब जीवन के सारे प्रश्नों से थक जाता है, तब वह इसे फाँक लेता है। 

ज़िला अस्पतालों और सामुदायिक-स्वास्थ्य भवनों में उसके ढेर लगे हैं। वह मोनालिसा-पेंटिंग और प्रेमचंद-साहित्य की तरह कॉपीराइट-फ़्री है। उसे कोई भी बना सकता है। उसे कोई भी बेच सकता है। उसके सर्वाधिकार सुरक्षित नहीं हैं। उसके किसी भी रूप में—संपूर्ण या किसी अंश के—पुनरुत्पादन/उपयोग के लिए किसी की भी पूर्वानुमति आवश्यक नहीं है। उसे  कोई भी ख़रीद सकता है। फिर भी वह गर्भनिरोधक गोलियों से कम बिकती है, क्योंकि वह सभ्यता के निर्णायक प्रश्नों से नहीं जुड़ी। वह पैरासिटामॉल से बहुत पीछे है और लंबे अनुशासन की स्थायी साथी जैसी मधुमेह की गोलियों से उसका दूर-दूर तक कोई मुक़ाबला नहीं। 

बिक्री के आँकड़ों पर ग़ौर किया जाए तो बाज़ार में उसकी होड़ सिर्फ़ मैकडॉवेल नंबर वन से है। यह उस क़िस्म की लोकप्रियता है, जो पटरियों पर बिकने वाले सस्ते उपन्यासों या ठेले पर मिलने वाली चाउमीन के हिस्से आती है... हर जगह मौजूद, लेकिन कभी किसी को गौरवान्वित न करने वाली। हर जगह मौजूद, मगर कभी स्मरणीय नहीं। मनुष्य की याददाश्त में बीमारी, ऑपरेशन या संक्रामक महामारी दर्ज नहीं है। 

छींक मनुष्य-शरीर का सबसे सार्वजनिक रहस्य है। बिजली के झटके की तरह अचानक और अकेले में बहाए गए आँसू की तरह निजी। इसीलिए इसका इलाज करने वाली इस दवा का कोई ब्रांड-एम्बेसडर नहीं है। न ही इसके विज्ञापनों में क्रिकेटर-एक्टर आते हैं। कोई विराट कोहली या दीपिका पादुकोण इसे हाथ में लेकर कैमरे से नहीं कहता—“लाइफ़ बिना छींक के...” न ही इसका प्रचार दर्दनिवारक स्प्रे, विक्स, टूथपेस्ट, सॉफ़्ट ड्रिंक या स्मार्टफ़ोन की तरह होता है। यह स्टेशन पर समोसे की तरह अपने आप बिकती है। मेडिकल स्टोर का कोई भी लड़का, जिसे इस ब्रांड की स्पेलिंग तक न आती हो, इसे थमा सकता है। बिना प्रतिष्ठा, बिना अलंकरण, किसी महाकाव्यात्मक उपस्थिति की माँग किए बिना, सभ्यता के इस खाँसते-छींकते संगीत में, यह दवा उस तबले की तरह है; जिसे कोई याद नहीं रखता।

मनुष्य की सभ्यता में जब भी रोगों से संघर्ष की कथा लिखी जाएगी, तब पैरासिटामॉल को सरदार की तरह खड़ा किया जाएगा, एंटीबायोटिक को विजेता और वैक्सीन को किसी उद्धारक की तरह; पर इस दवा का नाम वहाँ भी फ़ुटनोट में लिखा जाएगा—छोटे-छोटे अक्षरों में—एस्टरिस्क [*] के साथ। यह ज़िक्र वैसा ही है, जैसा इतिहास में उन किरदारों का हुआ करता है जो अस्ल में भीड़ में गुम हो गए।

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अतुल तिवारी को और पढ़िए : फ़ैटी लिवर प्रतीक्षा की बीमारी हैपिन-कैप्चा-कोड की दुनिया में पिता के दस्तख़तबीएड वाली लड़कियाँ |

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