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संस्कृत साहित्य पर उद्धरण

पाणिनि के सामने संस्कृत वाङ्मय और लोक-जीवन का बृहत् भंडार फैला हुआ था। वह नित्य प्रति प्रयोग में आनेवाले शब्दों से भरा हुआ था। इस भंडार में जो शब्द कुछ भी निजी विशेषता लिए हुए था, उसी का उल्लेख सूत्रों में या गणपाठ में गया है।

वासुदेवशरण अग्रवाल

किसी स्त्री ने न्यायसूत्र या वात्स्यायनभाष्य जैसा कोई शास्त्रग्रंथ रचा हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। उपनिषत्काल के बाद शास्त्रार्थ में स्त्री विस्मृत हाशिए पर है। किसी कोने से उसकी आवाज सुनाई देती है, पर वह जब कभी अपने अवगुंठन से बाहर निकल कर आती है तो एक विकट चुनौती सामने रखती है और दुरंत प्रश्न उठाती है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

शास्त्रीय वाङ्मय ही नहीं; रामायण, महाभारत, कालिदास, भवभूति और बाणभट्ट जैसे कतिपय महाकवियों को छोड़ दें, तो लगभग सारा का सारा संस्कृत साहित्य ही पुरुषवादी दृष्टि और पुरुष के वर्चस्व के आख्यान से रचा हुआ है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

पाणिनि ने जब व्याकरणशास्त्र की रचना करने की बात सोची, तो उन्होंने घूम-घूमकर शब्द-सामग्री का संकलन किया, और जो देश की भिन्न-भिन्न राजधानियाँ या प्रसिद्ध स्थान थे, उनमें जाकर उन्होंने उच्चारण, अर्थों, शब्दों, मुहावरों और धातुओं के विषय में अपनी सामग्री का संकलन किया।

वासुदेवशरण अग्रवाल

बहस के स्वरूप को लेकर जितनी बहस संस्कृत के शास्त्रकारों ने की है, उतनी कदाचित् संसार की किसी अन्य भाषा के साहित्य में नहीं मिलेगी।

राधावल्लभ त्रिपाठी

रामगिरि से हिमालय तक, प्राचीन भारतवर्ष के जिस विशाल खंड के मध्य से 'मेघदूत' के मंदाक्रांता छंद में जीवन स्त्रोत प्रवाहित हुआ है, वहाँ से केवल वर्षाकाल नहीं—चिरकाल की भाँति हम भी निर्वासित हो गए हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर

वस्तुतः करुणा और स्नेह के साथ-साथ, वाल्मीकि मनुष्य की दुराधर्षता और अपराजेयता के भी महान गायक हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

संस्कृत के कई प्रसिद्ध मुहावरे, वाल्मीकि की लेखनी से ही प्रचलन में लाए गए।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि ने यथार्थ की ठोस बंजर ज़मीन पर चलते हुए, उस पर जीवन की महनीय आदर्शों का प्रासाद खड़ा किया है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

श्युआन च्वाङ नामक चीनी यात्री सम्राट; हर्ष के समय सातवीं शताब्दी में भारत में आया था। वह चीन से मध्य-एशिया और गंधार देश के रास्ते से यहाँ आया। सिंधु नदी के समीप शलातुर गाँव में जाकर उसने जो कुछ वहाँ सुना और देखा, उसका वर्णन अपने यात्रा-ग्रंथ में लिखा है—"यह स्थान ऋषि पाणिनि का जन्मस्थान है। जहाँ वे उत्पन्न हुए थे, वहाँ उनकी मूर्ति बनी है। यहाँ के लोग पाणिनि के शास्त्र का अब भी अध्ययन करते हैं। इसी कारण यहाँ के मनुष्य अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक प्रतिभाशाली और विद्वान् है।"

वासुदेवशरण अग्रवाल

मनुष्य की मनस्तत्त्व की परीक्षा में वाल्मीकि संस्कृत कवियों में सर्वाधिक निपुण हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि के कवि रूप का आकलन सुकर कार्य नहीं है। शिल्प के स्तर पर वे नितांत प्रचलित, लोकभाषा में व्यवहृत शब्दों को उनकी सप्राणता और सहजता की क्षति किए बिना, अकल्पित सामर्थ्य से भर देते हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि की रचना का उपोद्घात एक आदर्श मानव की खोज से होता है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

अभिव्यंजना की दृष्टि से सरल से सरल भाषा में; अर्थ की कई-कई लयें एक साथ झँकृत करने की क्षमता के साथ, वैदिक युग से इतिहास काल तक के लंबे समय के अंतराल को निरूपित करते हुए, भारतीय चेतना की पहचान कराने का काम—व्यास के साथ केवल वाल्मीकि ही संपन्न कर सके हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि में मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं ही करना है, तुलसी में उसका उद्धार करने के लिए राम हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

संस्कृत के समाज में शास्त्रार्थ की शताब्दियों की परंपरा है; पर उसमें स्त्री की भूमिका पर बात कम हुई है, स्त्री की भूमिका भी कहीं है तो वह उपेक्षित रही है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

बृहदारण्यक उपनिषद् में; याज्ञवल्क्य के साथ जनक की सभा में, उस समय के सबसे बड़े ज्ञानियों के साथ बहस को गार्गी ने ब्रह्मोद्य कहा है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

अपनी दुर्बलताओं के कारण विनाश को प्राप्त होते हुए मनुष्य की गरिमा को भी, वाल्मीकि ने क्षति नहीं पहुँचाई है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

सीता, तारा और मंदोदरी, पुरुषों के वर्चस्ववाले समाज में अपने वाणी की ऊर्जा से अपने लिए स्थान बनाती हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

जगत में जो कुछ भी भव्य, रमणीय और कोमल है; उस पर तो वाल्मीकि की दृष्टि पड़ी ही है, साथ ही जो कुछ भी प्रचंड और विस्तीर्ण है, उसे भी उन्होंने अपनी कविदृष्टि का विषय बनाया है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि और कालिदास दोनों ही उस क्षेत्र के अन्वेषक हैं, जहाँ जीवन के कर्दम में से स्वतः शतदल खिल उठते हैं। तुलसी जीवन के ललित पक्ष से बचकर रामभक्ति में आश्वासन खोजते हैं अथवा नीतिवादी शब्दावली में उसे धिक्कारते हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि पाणिनि अत्यंत बुद्धिशाली आचार्य थे।

वासुदेवशरण अग्रवाल

गार्गी और मैत्रेयी का विलक्षण बौद्धिक व्यक्तित्व और अपने समय के सबसे बड़े ज्ञानी के साथ संवाद कर सकने का उनका साहस—दोनों पूरी भारतीय शास्त्रार्थ परंपरा के इतिहास में बेजोड़ हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वन्यजीवन की सूक्ष्मताओं का वाल्मीकि ने जैसा विशद चित्र खींचा है, यह सुदुर्लभ है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

कविता में व्यंजना के असीम सामर्थ्य तथा उसके प्रसार की गहराई को, अनंत संभावनाओं के साथ वाल्मीकि का काव्य प्रकट करता है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

होमर और वाल्मीकि को उन्हीं के विशिष्ट संदर्भों के बीच जाँचने पर हम देखते हैं कि दो महान संस्कृतियों का अंतराल इन दोनों महान कवियों को अलग कर देता है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि संत कवि हैं, तो व्यास एक दार्शनिक कवि हैं। वाल्मीकि के हृदय में महामना रावण के लिए भी करुणा और आस्था है, व्यास दुःख के दारुण झंझावातों में भी अविचलित रहते हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि के काव्य-संसार में सुकुमारता, हृदय की पवित्रता तथा आदर्श की प्रतिष्ठा है। होमर के काव्यसंसार में मनुष्य की दुराधर्षता तथा पराक्रम की।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि की आर्ष दृष्टि ने मनुष्य के संसार में देवत्व का सृजन किया है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि की तुलना में कालिदास का समाज संकुचित है, वे नागरक संस्कृति के कवि है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

मेघदूत की अनेक मनोहर कल्पनाओं के मूल में वाल्मीकि रामायण है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

कभी-कभी यह भी हुआ कि परवर्ती ग्रंथकारों ने किसी विचारधारा विशेष या संप्रदाय विशेष के प्रचार के लिए ग्रंथ लिखा और उसे लोकप्रिय बनाने के लिए उपनिषद् का नाम दे दिया।

राधावल्लभ त्रिपाठी

तुलसी ने उदात्त आदर्शों को रामकृपा के आसरे जीवन में उतारना चाहा है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि की लेखनी से पहली बार मनुष्य के संपूर्ण जीवन तथा आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करनेवाला महाकाव्य भाषा (लौकिक संस्कृत) में लिखा गया, जिसमें महाकाव्य का ढाँचा तथा मानदंड निर्मित हुआ।

राधावल्लभ त्रिपाठी

याज्ञवल्क्य की तरह के पुरुष कम मिलते हैं, जो गार्गी की मेधा को पहचानकर समस्तर पर आकर उससे बहस कर सकें।

राधावल्लभ त्रिपाठी

सूत्र-साहित्य की एक विशेष प्रकार की शैली है। यह शैली केवल भारतवर्ष में ही मिलती है।

वासुदेवशरण अग्रवाल

वाल्मीकि में जिस जीवन-संघर्ष की महती गाथा है, उसके स्वल्प अंश ही ग्रहण कर कालिदास कविकुलगुरु की पदवी पा गए हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

कालिदास की कविचेतना उदात्त और निस्संग रहते हुए भी, धरती के आदिम भावों का सहजता से ग्रहण करती है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि से प्राप्त सामग्री को कालिदास ने अपनी सौंदर्यन्वेषिणी दृष्टि से संवार कर दिया है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि तथा होमर दोनों की चारित्रिक सृष्टि में संपूर्ण राष्ट्र की आस्था तथा ऊर्जा अभिव्यक्त है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाल्मीकि के काव्य का मूल-स्वर; मनुष्य की मनुष्य के प्रति आस्था, स्नेह, ममत्व और करुणा का है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वाद या बहस की सैद्धांतिकी पर स्वतंत्र रूप से लिखा हुआ पहला ग्रंथ धर्मकीर्ति का वादन्याय है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

हमारी साहित्यशास्त्र की परंपरा में महाभारत को शांत रस का सबसे बड़ा महाकाव्य माना गया है।

राधावल्लभ त्रिपाठी

वैदिकयुग में अध्ययन के प्रमुख विषयों में से एक छंदस् (छंद) भी था, जिसे छह वेदांगों में एक माना गया।

राधावल्लभ त्रिपाठी

कालिदास ने वाल्मीकि के काव्य का गहन अनुशीलन ही नहीं किया, उन्होंने विनम्र शिष्य के भांति अपने गुरु से बहुत कुछ ग्रहण भी किया।

राधावल्लभ त्रिपाठी

गाथा और नाराशंसी ये दोनों प्रकार के काव्य मूलतः प्रशस्तिपरक काव्य रहे हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

कालिदास की शकुंतला अपनी सुकुमारता और माधुर्य में वाल्मीकि की सीता से कथमपि न्यून नहीं हैं, पर नारीत्व की गरिमा, व्यथा और करुणा में सीता बड़ी हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी

जिसमें हेतु की उपस्थिति पर संदेह हो, पर जिसमें हेतु की उपस्थिति सिद्ध की जानी हो, वह पक्ष है। जिसमें हेतु की उपस्थति अनिवार्यतः देखी जाती रही है, वह सपक्ष है और जिसमें हेतु का होना संभव हो वह विपक्ष है।

राधावल्लभ त्रिपाठी