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भोजपुरी मेरी मातृभाषा

मेरी मातृभाषा भोजपुरी है। मेरी पैदाइश, परवरिश और तरबियत सब भोजपुरी के भूगोल में हुई है। मैं सोचता भोजपुरी में हूँ; मुझे सपने भोजपुरी में आते हैं। सपने में जब बड़बड़ाता हूँ तो वह भी भोजपुरी में ही होता है।

हिंदी मेरी सीखी हुई ज़बान है। इससे पहला वास्ता रेडियो, टीवी और स्कूल में हुआ; वह भी तब तक, जब तक रेडियो बजता था, टीवी चलता था या कि जब तक हम स्कूल में होते थे। इसके बाद की हमारी सारी दुनिया भोजपुरी में ही थी।

घर की भाषा तो भोजपुरी थी ही; घर के बाहर भी जो दोस्त बने, सब के सब भोजपुरिया थे। हमने उनके साथ पहली गाली भी भोजपुरी में ही सीखी। छुटपन के उन दिनों में भविष्य के जो ख़्वाब बुने, उस ख़्वाब की भाषा भी भोजपुरी ही थी। पहली मुहब्बत जो इज़हार तक नहीं पहुँच पाई, उसका इज़हारनामा भी हमने भोजपुरी में ही तैयार किया था; बेशक उसे कभी बयाँ नहीं किया।

बचपन के वो सारे क़िस्से जिन्हें माँ ने सुनाया, सब के सब भोजपुरी में ही थे। मेरी माँ की भाषा भोजपुरी थी; या यों कहें कि उन्हें सिर्फ़ भोजपुरी ही आती थी। मेरी माँ के पास जो सबसे नायाब चीज़ थी—वह उनकी भाषा ही थी। मैंने इतनी ख़ूबसूरत भोजपुरी फिर किसी और के ज़बान से नहीं सुनी। तक़रीबन हर बात में वह मुहावरों और लोकोक्तियों का इस्तेमाल करती थीं; ग़ौरतलब यह कि उनके ये मुहावरे, लोकोक्तियाँ दूसरी ज़बानों से आयातित न होकर भोजपुरी लोकरंग के ही होते थे।

मेरी माँ हमारे यहाँ शादियों में गाये जाने वाले ‘गीतों’ और ‘गारियों’ (विवाह में गाये जाने वाला गीत जिसमें गालियाँ शामिल होती हैं) की उस्ताद थीं। जिस कलात्मकता के साथ वह अपनी भाषा में इन गालियों की रचना करती थीं, वह अद्भुत था; वे लोग ख़ुशक़िस्मत थे जिन्हें मेरी माँ की ‘गारियाँ’ नसीब हुईं।

नानी के मरने के बाद माँ जिस तरह से रोई थीं; नानी को याद करते हुए जिस तरह के मेटाफ़र का इस्तेमाल किया था, उसे किसी दूसरी भाषा के शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता। माँ ने अपनी भाषा के ज़रिये अपने उस रोने में नानी की पूरी जीवन-गाथा को उसकी पूरी मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त कर दिया था। माँ के उस रुदन को सुनकर नानी की पूरी जीवनगाथा लिखी जा सकती थी; लेकिन वह भी सिर्फ़ भोजपुरी में। हिंदी में लिखा जाता तो वह महज अनुवाद होता मेरी माँ के शब्दों का; लेकिन वह दुख नहीं अनूदित होता जो एक बेटी के कंठ से फूटा था, अपनी माँ के गुज़र जाने पर।

माँ के पास ऐसा कोई भाव नहीं था, जिसे वह अपनी भाषा में व्यक्त नहीं कर पातीं; उनकी भाषा उनके हर भाव के लिए हमेशा तत्पर-तैयार रहती थी। अफ़सोस सिर्फ़ माँ के जाने का नहीं है; अफ़सोस इस बात का भी है कि माँ के साथ उनकी भाषा भी चली गई, जिसे अब हम कभी नहीं सुन पाएँगे।

मैं इस बात से उदास हो जाता हूँ कि मेरी माँ वाली भोजपुरी को बरतने वाले लोगों का दायरा बहुत तेज़ी के साथ सिमट रहा है। उनकी भाषा में बात करने वाली उनकी सहेलियाँ भी उन्हीं की तरह एक-एक करके इस दुनिया से विदा ले रही हैं। माँ की सहेलियों को देखता हूँ तो न चाहते हुए भी यह सोचने लगता हूँ कि अब ये और कितने बरस जियेंगी; उनके बचे हुए बरसों में उनकी भाषा की उम्र का भी अंदाज़ा लगा लेता हूँ, जो उनके साथ ही चली जाएगी, हमेशा के लिए। मैं गुम हो रही अपनी भाषा के लिए उदास नहीं हो रहा; मैं उन कहानियों, उन क़िस्सों के लिए उदास हो रहा हूँ, जो सिर्फ़ मेरी माँ की भाषा में कहे जा सकते थे—सुने जा सकते थे।

आप कह सकते हैं कि भोजपुरी का बाज़ार इतना बड़ा हो गया है; इतनी फ़िल्मे, इतने गाने बन रहे हैं—यह भाषा गुम कैसे हो सकती है! तो मैं बता दूँ कि यह दूसरी भोजपुरी है। मैं उस भोजपुरी की बात नहीं कर रहा हूँ जो ‘लगावेलू तू लिपिस्टिक’ की धुन में धुत्त है। मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें बरसों के बाद मिलने वाली दो सहेलियाँ घंटों बात करती हैं; मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें चूड़ीवाला चूड़ी पहनाते वक़्त ग्रामीण स्त्रियों से बात करता है; मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें संख्या में बहुत कम बच गए गाड़ीवान-ताँगेवाले बात करते हैं। मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें पुरानी चाय की दुकानों पर पुराने लोग बात करते हैं; मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें गंगा स्नान करने जाती बूढ़ी औरतें बात करती हैं; मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें गाँव-जवार के बुज़ुर्ग आशीर्वाद देते हैं; या कि मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें हमारी पीढ़ी और हमसे पहले की पीढ़ियों की माएँ, दादियाँ और नानियाँ दुआएँ देती हैं।

मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें आँखों को सजल कर बधाइयाँ और शोक ज़ाहिर किया जाता है; मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें छठ के गीत गाये जाते हैं, जिन्हें सुनने के लिए तमाम पुरबिये अपने देस का रुख़ कर लेते हैं। मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें धान की रोपनी के गीत हैं; जिसमें फ़सलों की कटाई के गीत हैं; जिसमें माड़ों का गीत है, विदाई और कोहबर का गीत है; जिसमें कजरी, चैता, सोहर और बिरहा है। मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जिसमें लोरिक–चंदा की कथा है; जिसमें भिखन मल्लाह की कथा है; जिसमें सती बिहुला की कथा है। मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जो भिखारी ठाकुर से बनती है; महेंद्र मिश्र से बनती है। मैं उस भोजपुरी की बात कर रहा हूँ जो प्रकाश उदय और उनके इस प्रेमगीत से बनती है, जो तमाम मुश्किलों-झंझावतों में भी उम्मीद बँधाती है और साथ होने की ज़रूरत, साथ होने की अहमियत पर रौशनी डालती है—

आहो आहो
रोपनी के रऊँदल देहिया, सँझही निनाला तनि जगइह पिया 
जनि छोड़ि के सुतलके सुति जइह पिया
आहो आहो
हर के हकासल देहिया, सँझही निनाला तनि जगइह धनी 
जनि छोड़ि के सुतलके सुति जइह धनी
आहो आहो
चुल्हा से चऊकिया तकले, देवरू ननदिया तकले 
दिनवा त दुनिया भरके, रतिये हऊवे आपन जनि गँवइह पिया 
धईके बहिंया प माथ, बतिअइह पिया
आहो आहो
घर से बधरिया तकले, भइया भउजईया तकले 
दिनवा त दुनिया भरके, रतिये हऊवे आपन जनि गँवइह धनी 
धईके बहिंया प माथ, बतिअइह धनी
आहो आहो
दुखवा दुहरवला बिना, सुखवा सुहरवला बिना 
रहिये ना जाला कि ना, कईसन दो त लागे जनि सतइह पिया 
कहियो रुसियो फुलियो जाईं, त मनइह पिया
आहो आहो
काल्हु के फिकिरिये निनिया, उड़ि जाये जो आँखिन किरिया 
आ के पलकन के भिरिया, सपनन में अँझुरइह-सझुरइह धनी
जनि छोड़ि के जगलके सुति जइह धनी 
जनि छोड़ि के जगलके सुति जइह पिया 
जनि छोड़ि के जगलके सुति जइह धनी

यह प्रेमगीत मेरी भाषा का सिरमौर है। मेरी माँ की भाषा का सिरमौर है। हमारी भोजपुरी का सिरमौर है।

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