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विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना

दादा (विनोद कुमार शुक्ल) से दुबारा मिलना ऐसा है, जैसे किसी राह भूले पंछी का उस विशाल बरगद के पेड़ पर वापस लौट आना—जिसकी डालियों पर फुदक-फुदक कर उसने उड़ना सीखा था। विकुशु को अपने सामने देखना जादू है। उनको देखते ही मन के भीतर से जो प्रेम और आदर का झरना फूटता है, उसका बयान मैं क्या ही करूँ? दादा से दूसरी बार मिलकर, यह बात उनको याद दिलाना कि पहली बार उनसे कब और कहाँ मिली थी और तीसरी बार उनसे कब मिलने आऊँगी—यह सब बहुत अलग है किसी सुंदर सपने जैसा। कितने ही लोग है जो विनोद कुमार शुक्ल को जानते तक नहीं हैं और एक यहाँ मैं हूँ जो उन्हीं की मिट्टी में पैदा हुई जहाँ विकुशु रहते हैं। दूसरे राज्यों के पढ़ने-लिखने वाले दोस्त जब मुझे याद करते हैं तो उन्हें विकुशु याद आते हैं और कभी बातों-बातों में वे विकुशु को याद करते हैं तो उन्हें मैं याद आती हूँ। जैसे कि “अच्छा आप छत्तीसगढ़ से हैं, वहाँ से तो प्यारे विनोद कुमार शुक्ल भी हैं!” कितनी भाग्यशाली हूँ मैं।

दादा अब घर से कम ही निकलते हैं, आयोजनों में जाना तो लगभग बंद ही है। पर ‘हिन्द युग्म’ उत्सव में दादा आए। उनके आए बिना कैसे चलता? पूरा आयोजन तो उनको ही समर्पित था। मुझे याद है, 2022 में मानव कौल उनसे मिलने रायपुर आए थे और वह समय था जब सारी दुनिया को यह पता चल पाया कि सालों से दादा को उनके प्रकाशकों से कितनी कम रॉयल्टी मिलती है। बहुत बुरा लगा था यह जानकर कि एक हिंदी का लेखक कितना सम्मान कमाता है, लेकिन उसके बराबरी में उतनी रोटी उसको नहीं मिलती। यह महत्त्वपूर्ण बात उस दिन सबके सामने उजागर हो गई थी।

‘हिन्द युग्म’ से प्रकाशित उनकी किताब ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ इतनी चर्चित हुई कि दादा को उसके लिए तीस लाख रूपये रॉयल्टी में मिले। यह बहुत ख़ुशी की बात है। साथ ही यह युवाओं का मनोबल भी बढ़ाती है कि वे करियर में लेखक बनने के बारे में भी सोच सकते हैं। साथ ही लेखक होने साथ-साथ उन्हें साथ में कोई दूसरे काम के भरोसे रहना पड़ेगा ऐसा ज़रूरी नहीं, मेहनत और लगन से पाया जा सकता है सबकुछ।

‘हिन्द युग्म’ उत्सव के पहले दिन सेशन ब्रेक के समय दादा से दुबारा मुलाक़ात हुई। वह रेस्ट रूम में, एक भूरे गेहुँए रंग के सोफ़े पर नरेश सक्सेना के साथ बैठे थे। वहाँ और भी लोग थे जो बाजू में रखे सोफ़े पर बैठे हुए थे और विनोद कुमार शुक्ल के साथ बैठकर फ़ोटो खिंचवा रहे थे। मैं भी गई, दादा से आशीर्वाद लिया। अब वह थोड़ा ऊँचा सुनते हैं, इसलिए उनसे दूर बैठकर ज़ोर से बोलकर बात की जा सकती थी या फिर पास बैठकर उनके कानों में आराम से बोल कर। मुझे दूसरा वाला विकल्प ज़्यादा बेहतर लगा, इसलिए मैं दादा के पास ही बैठ गई। दादा से मिलकर ऐसा लगता है जैसे मन के भीतर का ख़ाली कटोरा लबालब हो गया है। ऐसा कटोरा जिसे अपने भीतर लिए हर रोज़ घूमा करती हूँ। जैसा मैं महसूस करती हूँ दादा के लिए, शायद वैसा ही बाक़ी लोग भी महसूस करते हों, वरना उनको केवल एक नज़र भर देखने के लिए लोगों की इतनी भीड़ नहीं लगती। पूरे उत्सव का केंद्र बिंदु विनोद कुमार शुक्ल ही थे, जितना उनके पाठक उनसे प्यार करते हैं, उतनी ही मुहब्बत वह भी अपने पाठकों से भी करते हैं। इसका पता इस बात से ही लगता है कि उत्सव के दूसरे दिन वह नहीं आने वाले थे, उनका किसी भी सेशन में नाम नहीं था, पर उनका प्यार तो देखिए कि दोनों ही दिन दुपहर के बारह से शाम के छह तक वह ऑडिटोरियम में ही रहे। लगभग नब्बे की उम्र में किसी दूसरे का हाथ पकड़कर सहारा लेते हुए झुकी कमर के साथ धीरे-धीरे चलते हुए इतने समय के लिए किसी कार्यक्रम में वह चले आए तो इसका कारण केवल प्रेम ही हो सकता है। बहुत से लोग भी दूसरे राज्यों से सफ़र करके लाइन लगाकर विनोद कुमार शुक्ल की क़िताब हाथ में लिए खड़े थे—केवल एक बुज़ुर्ग लेखक के काँपते हाथों से ‘विकुशु’ लिखवाने के लिए, यह भी उनका प्यार नहीं तो और क्या है?

जब भी दादा को देखती हूँ—सोचती हूँ कि यह व्यक्ति इस उम्र में इतना पढ़ रहा है, लिख रहा है, जो दुनिया को कहता है कि कभी छोड़ना मत उम्मीद का दामन! पढ़ती रहना, लिखती रहना। मैं कैसे छोड़ सकती हूँ? कैसे हार मान सकती हूँ? दुनिया केवल हिम्मत से चलती है, और जो हौसला रखता है उससे वह डरती है, दब के रहती है। हिम्मत रखना है और उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना और सबसे ज़रूरी बात अपने प्रति ईमानदार रहना। यह सब दादा अपने मुँह से नहीं भी कहते, तब भी उनके चेहरे और उनके व्यक्तित्व से यह झलकता है। विनोद कुमार शुक्ल से दुबारा मिलकर लौटना अमीर होकर लौटना है, यह ऐसे धन का मिलना है—जिसे कोई भी, कभी भी नहीं लूट सकता। ईश्वर उन्हें दीर्घायु और अच्छा स्वास्थ्य दें।

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