
उसने कहा, ‘वास्तविकता इतनी असहनीय हो गई है, इतनी धूमिल कि अब मैं केवल अपने सपनों के रंगों से ही अभिव्यक्त कर सकती हूँ।

कोई मनुष्य, चाहे कितने ही दुःख में क्यों न हो, उस व्यक्ति के सामने अपना शोक प्रकट करना नहीं चाहता जिसे वह अपना सच्चा मित्र न समझता हो।

अत्यधिक संवेदनशीलता हीन भावना की अभिव्यक्ति है।
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यदि तदनुसार आचरण नहीं किया तो केवल कहने या पढ़ने से क्या लाभ?

निंदा, प्रशंसा, इच्छा, आख्यान, अर्चना, प्रत्याख्यान, उपालंभ, प्रतिषेध, प्रेरणा, सांत्वना, अभ्यवपत्ति, भर्त्सना और अनुनय इन तेरह बातों में ही पत्र से ही प्रकट होने वाले अर्थ प्रवृत्त होते हैं।

सूरदास के वात्सल्य में संकल्पात्मक मौलिक अनुभूति की तीव्रता है, उस विषय की प्रधानता के कारण। श्रीकृष्ण की महाभारत के युद्ध-काल की प्रेरणा सूरदास के हृदय के उतने समीप न थी, जितनो शिशु गोपाल की वृंदावन की लीलाएँ।
तुलसीदास के हृदय में वास्तविक अनुभूति तो रामचंद्र की भक्त-रक्षण-समर्थ दयालुता है, न्यायपूर्ण ईश्वरता है, जीव की शुद्धावस्था में पाप-पुण्य-निर्लिप्त कृष्णचंद्र की शिशु-मूर्ति का शुद्धाद्वैतवाद नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ आत्मानुभूति की प्रधानता है, वहीं अभिव्यक्ति के क्षेत्र में पूर्णता हो सकी है।

छोटे लोगों के गुण का वर्णन करने वाला अन्य कोई नहीं मिलता, अतएव वह स्वयं ही उसे कहता है।

क्रोध उन लोगों के ख़िलाफ़ अधिक स्वतंत्र रूप से प्रकट होता है, जो आपके सबसे क़रीब हैं… इतने क़रीब कि भरोसा होता है कि क्रोध और चिड़चिड़ेपन को माफ़ कर दिया जाएगा।