आत्म-साक्षात्कार बहुत आसान है, स्वयं का चरित्र-साक्षात्कार अत्यंत कठिन है।
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अनावृत होना यानी स्वयं का होना है, जबकि नग्नता दूसरों के द्वारा नग्न देखा जाना है—जिसकी तस्दीक़ स्वयं के लिए नहीं होती।
सच बात तो यह है कि आत्मपरक रूप से विश्वपरक, जगतपरक होने की लंबी प्रक्रिया की अभिव्यक्ति ही कला है—अभिव्यक्ति-कौशल के क्षेत्र में और अनुभूति अर्थात् अनुभूत वस्तु-तत्व के क्षेत्र में।
संकीर्णतावाद मिथक गढ़ता है और उससे अलगाव पैदा करता है। आमूल-परिवर्तनवाद आलोचनात्मक होता है, इसलिए मुक्त बनाता है।
धर्म का द्वार स्वातंत्र्य का द्वार है। हमारा स्वभाव-धर्म हमें स्वतंत्र करता है और हम स्वतंत्र होकर उस धर्म की साधना करते हैं, जो कर्म का औचित्य है।
अंतर्तत्त्व-व्यवस्था बाह्य जीवन-जगत का, अपनी वृत्तियों के अनुसार आत्मसात्कृत रूप है। किंतु यह आत्मसात्कृत जीवन-जगत—बाह्म जीवन-जगत् की प्रतिकृति नहीं है।
व्यक्ति अपनी ही खोज में समाज को ढूँढ़ता है, समाज के विकास की परीक्षा करता है, और इस प्रकार उसकी परीक्षा करते हुए अपनी परीक्षा करता है।
मन के तत्त्व, मूलतः, बाह्य जीवन-जगत् के दिए हुए तत्त्व हैं।
यदि कवि का ज्ञान-पक्ष दुर्बल है, यदि उसका ज्ञान; आत्म-पक्ष, बाह्य-पक्ष और तनाव के संबंध में अधूरा अथवा धुँधला है, अथवा यदि वह तरह-तरह के कुसंस्कारों और पूर्वग्रहों तथा व्यक्तिबद्ध अनुरोधों से दूषित है, तो ऐसे ज्ञान की मूलभूत पीठिका पर विचरण करनेवाली भावना या संवेदना निस्संदेह विकारग्रस्त होगी।
जिस कवि में आत्म-निरीक्षण तीव्र होगा, वह कंडीशड साहित्यिक रिफ्लेक्सेज से उतना ही जूझ सकेगा।
हमारे स्वतंत्र होने का अर्थ ही है, साध्य का अनेकांत होना। नहीं तो स्वातंत्र्य कैसा? साध्य के अनेकांत में ही जिज्ञासा कचोटती है—धर्म क्या है?
किसी भी अध्ययन-अनुशीलन के लिए प्रारंभिक तथ्य अपनी समग्रता, अपनी संपूर्णता में अपने मन के सामने उपस्थित करना आवश्यक है—फिर वह विज्ञान कोई भी हो, शास्त्र कोई भी हो। इसमें संपूर्ण आत्म-निरपेक्षता, सतर्कता, और जाग्रत दृष्टि आवश्यक है।
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आत्मज्ञान, वीतरागता, पूर्व कर्म के उदय अनुसार विचरण, अपूर्ववाणी और परम श्रुतज्ञान—ये आत्मानुभवी सद्गुरु के लक्षण हैं।
आत्मनिरपेक्षता सहज तथ्य-वस्तु नहीं है।
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पक्षधरता का प्रश्न हमारी आत्मा का, हमारी अंतरात्मा का प्रश्न है।
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बाह्य का आभ्यंतिकरण एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।
सच्चा आभ्यंतरीकरण तो तब होता है, जब लेखक ज़िंदगी में गहरा हिस्सा लेते हुए; संवेदनात्मक जीवन-ज्ञान प्राप्त करके, उसी भाव-दृष्टि तक स्वयं अपने-आप पहुँचता है, कि जो भाव-दृष्टि आग्रह-रूप में बाहर से उपस्थित की गई है।
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आदर्श काव्य; कवि की अंतःप्रज्ञात्मक तर्क, अंतःप्रज्ञात्मक निर्णय और अंतःप्रज्ञात्मक बुद्धि को प्रदर्शित करता है।
जिनके विचारों में त्याग और वैराग्य नहीं होता, उन्हें आत्मज्ञान नहीं होता।
जब सम्यक विचारणा प्रकट होती है, तब आत्मज्ञान प्रकट होता है। आत्मज्ञान से मोह का क्षय होता है और आत्मा देहरहित मोक्षपद पाता है।
अपनी बात दूसरों के गले वही उतार सकता है, जो ज़िंदगी से ख़ुद सीखता है।
जिस प्रकार नींद से जागने पर करोड़ों वर्षों से चलता स्वप्न भी छूट जाता है, उसी प्रकार आत्मज्ञान प्रकट होते ही अनादिकाल का विभाव दूर हो जाता है।