
श्री अरविंद का वचन है: ‘सम होना या'नी अनंत हो जाना।’ असम होना ही क्षुद्र होना है और सम होते ही विराट को पाने का अधिकार मिल जाता है।

आत्म-संयम अर्थात् आत्मानुशासन ही कलात्मक सौंदर्य को सुंदर एवं व्यवस्था को सुव्यवस्थित और आनंददायक बनाता है।

मन—जिसमें मस्तिष्क और हृदय समाविष्ट हैं—को पूर्ण संगति में होना चाहिए।

ध्यान के लिए वस्तुतः सर्वोच्च ढंग की संवेदनशीलता चाहिए तथा प्रचण्ड मौन की एक गुणवत्ता चाहिए—ऐसा मौन जो प्रेरित, अनुशासित या साधा हुआ नहीं हो।

आप बिना किसी पुस्तक को पढ़े या बिना साधु—संतों और विद्वानों को सुने अपने मन का अवलोकन कर सकते हैं।
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उपाय अंततः वही अधिक सार्थक होगा जिसमें सरकारी प्रशासन से आत्मानुशासन के मूल्य पर अधिक बल हो।