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निष्काम पर उद्धरण

नियम साधना का लोभ भी कष्ट की मात्रा का हिसाब लगाकर आनंद पाता है। अगर कड़े बिछौने पर सोने से शुरू किया जाए; तो आगे चलकर मिट्टी पर बिछौना बिछाकर, फिर सिर्फ़ एक कंबल बिछाकर, फिर कंबल को भी छोड़कर निखहरी ज़मीन पर सोने का लोभ क्रमशः बढ़ता ही रहता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

चाहे साइंस हो, चाहे आर्ट हो—निरासक्त मन ही सर्वश्रेष्ठ वाहन है। यूरोप ने साइंस में वह पाया है, किंतु साहित्य में नहीं पाया।

रवींद्रनाथ टैगोर

अपव्यय और कष्ट जितना ही अधिक प्रयोजनहीन होता है; संचय और परिणामहीन, जय-लाभ का गौरव उतना ही अधिक जान पड़ता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

सत्य की आकांक्षा है तो स्वयं को छोड़ दो।

ओशो

निःसंदेह स्वार्थ भी त्याग की अपेक्षा रखता है, किंतु स्वार्थी व्यक्ति बाधित होकर ही त्याग करता है। प्रेम में त्याग स्वेच्छा से होता है, वहाँ त्याग में भी आनंद है।

रवींद्रनाथ टैगोर

गीता ने उपदेश तो फलासक्ति के त्याग का दिया था; किन्तु साधकों ने कर्मन्यास का अर्थ फलासक्ति का त्याग नहीं, कर्म मात्र का त्याग लगा लिया।

रामधारी सिंह दिनकर

अस्वाद-वृत्ति से चलने वाले संयुक्त भोजनालय में जाकर, वहाँ जो भोजन बना हो उसमें से जो हमारे लिए त्याज्य हो उस आहार को ईश्वर का अनुग्रह मानकर, मन में भी उसकी टीका किए बिना, संतोष-पूर्वक और शरीर के लिए जितना आवश्यक हो उतना खा लेना, अस्वाद व्रत में बहुत सहायक है।

महात्मा गांधी

निष्काम कर्मयोगी तभी सिद्ध होता है जब हमारे बाह्य कर्म के साथ अंदर से चित्तशुद्धि रूपी कर्म का भी संयोग होता है।

विनोबा भावे

उद्यम का गर्व ही सारे उद्यम को व्यर्थ कर देता है।

गुरु नानक

अपने या अपने बाल-बच्चों के काम आने के ख़याल से जो एक चिथड़ा ही बटोरकर रखता है और दूसरे को ज़रूरत होते हुए भी इस्तेमाल नहीं करने देता, वह परिग्रही है। जो ऐसी वृत्ति से रहित है, लाख रुपए की पूँजी रखता हुआ भी, वह अपरिग्रही है।

महात्मा गांधी

मैं महसूस करता हूँ कि मैं कुछ नहीं कर पाया हूँ। यही वह बात है जो मुझे अपने लेखन, शैली और प्रतीकों में सुधार के लिए मज़बूर करती है।

महमूद दरवेश

कर्मन्यास का अर्थ; कर्म का त्याग नहीं, केवल फलासक्ति का त्याग है।

रामधारी सिंह दिनकर

स्व. का विसर्जन करके ही हम पूर्ण रूप से मुक्त हो सकते हैं।

मृदुला गर्ग

उद्यम भाव कर्म करते हुए भी हक नहीं जताया जा सकता, यह नहीं कहा जा सकता कि किस को मिलेगा?

गुरु नानक

हमारा कर्म भी जब संकीर्ण स्वार्थ में ही चक्कर खाता रहता है, तब वही कर्म हमारे लिए भयंकर बंधन हो जाता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

ऐसे लोग इस संसार में विरले ही हैं जिन्हें परख कर संसार के भण्डार में रखा जा सके, जो जाति और वर्ण के अभिमान से ऊपर उठे हुए हों और जिनके भीतर ममता लोभ समाप्त हो गयी हो।

गुरु नानक

भोग त्याग के बीच का द्वंद्व, साहित्य का अनंत विषय है तो मनोविज्ञान का भी।

भोग त्याग के बीच का द्वंद्व, साहित्य का अनंत विषय है तो मनोविज्ञान का भी।

मृदुला गर्ग