तर्क और आस्था की लड़ाई हो रही थी और कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था तर्क को दबाए दे रही थी।
किसी भी व्यक्ति पर एकात्म श्रद्धा ग़लत है।
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धर्म आस्तिक और आस्थावान व्यक्ति के लिए; जीवन संचालन के कतिपय आदर्शों, सिद्धांतों और मूल्यों का समच्चय है।
प्रगति के समर्थक; प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से जुड़ी हर बात की आलोचना करे, उस पर अविश्वास करे और उसे चुनौती दे।
अव्यक्त सत्य ‘श्रद्धा’ के रूप में रहता है। श्रद्धा उस सत्य को रखती है, जो सत्य ‘होना चाहिए’।
श्रद्धा जिज्ञासा का वह भाव है, जो खरेपन के साथ सत्य की ओर उन्मुख रहता है; मिथ्या के बहलावे में मोह में नहीं आ जाता, उसी को सत्य कहना चाहता है जो प्रामाणिक रूप से ‘है’—निःसंदेह ‘है’।
हम चीज़ों को जिस तरह देखते हैं, वह हमारे ज्ञान और विश्वासों से प्रभावित होता है।
यह ख़याल बिल्कुल ग़लत है कि आलोचना का संबंध बुद्धि से और श्रद्धा का हृदय से होता है।
मैं गाय की भक्ति और पूजा में किसी से पीछे नहीं हूँ; लेकिन वह भक्ति और श्रद्धा, क़ानून के ज़रिए किसी पर लादी नहीं जा सकती।
जो ईश्वर को अपने पास समझता है, वह कभी नहीं हारता।
श्रद्धा ही सत्य की जिज्ञासा की लौ है। हमारा सत्य से संबंध श्रद्धा के माध्यम से बनता है, पर श्रद्धा भी सत्य की अपेक्षा रखती है—सत्य के बिना अपने आप में अधूरी है, सत्य से विहीन-विलग भी हो सकती है।
मिथ्या प्रेम, झूठी विनम्रता और दुर्बल विश्वास से भरोसा पैदा नहीं होता। भरोसे के लिए ज़रूरी है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष को, अपने सच्चे और ठोस इरादों का सबूत दे।
मेरे ऊपर का तारों भरा आकाश और मेरे भीतर के नैतिक नियम—ये दो चीज़ें मन को अनंत विस्मय और श्रद्धा से भर देती हैं।
धर्म की आड़ में क्रियाशील उद्दाम विलास की वह हीन साधना जटिल कर्मकाण्ड से जुड़ी थी।
सौंदर्य पर निष्ठा, सोये सौंदर्य को जगाने के लिए सूर्योदय है।
रात्रि के आकाश में घूमने का अर्थ है, एक पवित्र बीहड़ में क़दम रखना। अपनी आत्मा के लिए आध्यात्मिक पाथेय जुटाना। अपने भीतर आस्था जगाना। कभी इस असीम की संगत करके तो देखिए। कभी अपने आपको रात्रि के आकाश में धकेल करके तो देखिए।
सत्य, आस्था और लगन जीवन-सिद्धि के मूल हैं।
परमेश्वरपर विश्वास रखनेवाला यह मानता है कि जिस वस्तु की जब पूरी आवश्यकता होगी तब वह अवश्य प्राप्त हो जाएगी, इसलिए वह किसी संग्रह करने के फेर में नहीं पड़ता।
भय की पूरी समस्या को समझने में ही आपके सारे विश्वास विदा हो जाते हैं।
मनुष्य के अस्तित्व के संकट और अलगाव की अनुभूति से बड़ी और व्यापक अनुभूति, मनुष्य की एक-दूसरे के प्रति आस्था और स्नेह की है।
जहाँ भय है वहीं विश्वास का जन्म होता है।
आस्था का बाहरी दिखावा जल्दी ही ख़त्म हो जाता है।
साधन को जब साध्य समझने की भूल की गयी तब साध्य तो दूरस्थ हो ही गया, साधन की भी महत्ता घट गई।
विश्वास वस्तुतः विभाजन का एक रूप है, अतः यह एक प्रकार की हिंसा है।
सबसे ज़रूरी है कि वे स्वयं पर विश्वास करें। बच्चों की तरह असहाय बने रहें, क्योंकि दुर्बलता महान् है और शक्ति कुछ भी नहीं।