रात पर उद्धरण
उजाले और अँधेरे के प्रतीक
रूप में दिन और रात आदिम समय से ही मानव जिज्ञासा के केंद्र रहे हैं। कविताओं में रात की अभिव्यक्ति भय, आशंका और उदासी के साथ ही उम्मीद, विश्राम और शांति के रूप में हुई है। इस चयन में उन कविताओं को शामिल किया गया है; जिनमें रात के रूपक, प्रतीक और बिंब से जीवन-प्रसंगों की अभिव्यक्ति संभव हुई है।
रात के मध्य में समय विशेष तरीक़े से चलता है।
गर्मियों की रात विचार की पराकाष्ठा जैसी होती है।
बलवान के साथ विरोध रखने वाले को, साधन-हीन दुर्बल मनुष्य को, जिसका सब कुछ हरण कर लिया गया है उसको, कामी को तथा चोर को रात में नींद नहीं आती।
आओ हम रात में क़दम रखें और उस चंचल प्रलोभन, रोमांच का पीछा करें।
अमीर लोग तीन पीढ़ियों के लिए योजना बनाते हैं, ग़रीब लोग शनिवार रात की योजना बनाते हैं।
दिन का अंधकार ख़तरनाक होता है। रात का अँधेरा नींद लाता है, दिन का अँधेरा ख़्वाब।
जो रात बीत गई है, वह फिर नहीं लौटती, जैसे जल से भरे हुए समुद्र की ओर यमुना जाती ही है, उधर से लौटती नहीं।
कौन जानता है कि संसार आज रात्रि में ही समाप्त नहीं हो जाएगा?
दिन-रात लगातार बीत रहे हैं और इस संसार में सभी प्राणियों की आयु का उसी प्रकार शीघ्र नाश कर रहे हैं, जैसे सूर्य की किरणें ग्रीष्म ऋतु में जल का शीघ्र नाश करती हैं।
हम दोपहर में अपने पसीने को व्यय करते हैं और रात्रि में तेल को। हर रात्रि में चिंतन करके थकते हैं और दिन में परिश्रम करके।
आनंद दिन पर शासन करता था और प्रेम, रात्रि पर।
जो सब प्राणियों की रात्रि होती है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है और जिस अवस्था में सब प्राणी जागते हैं, वह तत्त्वज्ञ मुनि की रात्रि होती है।
रात्रि के हज़ारों नेत्र हैं और दिन का केवल एक; किंतु अस्त होते हुए सूर्य के साथ दीप्तिमान संसार का प्रकाश समाप्त हो जाता है।
रात्रि धरती माता के नवजात, श्यामल-शिशु की तरह है।
रात का आकाश और दिन के समय का आकाश––इनमें से एक भी आकाश का रंग अमिश्रित नीला होता है, यह छवि आँकते समय समझ में आ जाता है।
काष्ठा, कला, मुहूर्त, दिन, रात, लव, मास, पक्ष, छह ऋतु, संवत्सर और कल्प इन्हें 'काल' कहते हैं तथा पृथ्वी को 'देश' कहा जाता है। इनमें से देश का तो दर्शन होता है किंतु काल दिखाई नहीं देता। अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि के लिए जिस देश और काल को उपयोगी मानकर उसका विचार किया जाता है, उसको ठीक-ठीक ग्रहण करना चाहिए।
रात भर जागती हुई दो आँखों की व्याकुलता अंकित कर केवल हृदय की वार्ताओं को ही प्रकट करते हो, न कोई ध्वनि है, न कोई कथा ही।
रात्रि पृथ्वी के खुले बालों की तरह है, जो पीठ ढककर एड़ी तक लटकते हैं। लेकिन नक्षत्र-जगत् लक्ष्मी के शुभ्र ललाट पर एक काले तिल के बराबर भी नहीं है। इन तारिकाओं में से कोई यदि अपनी साड़ी से इस कालिमा को पोंछ दे; तो आँचल में जो दाग़ लगेगा, वह इतना छोटा होगा कि किसी निंदक की सूक्ष्म दृष्टि को भी दिखाई नहीं पड़ेगा।
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शरद ऋतु की पहली ठंडी रातों की शांति जैसी कोई शांति नहीं है।
रात्रि का आकाश मानो टीवी का स्क्रीन है। (कितना बड़ा स्क्रीन!) उसमें चंद्र, तारे, ग्रह, नक्षत्र द्वारा खेला जा रहा नाटक हम यहाँ दूर पृथ्वी पर बैठे-बैठे देखते हैं। असली 'दूरदर्शन' तो यह है!
‘हिस्ट्री आफ द डेविल’ में उसने पढ़ा था कि वर्तमान कैरिबियन में रात में काम करने वाले को संसार का सृष्टा माना जाता है।
...लिखते समय जितना भी अकेलापन हो, वह काफ़ी अकेलापन नहीं है, कितनी ही ख़ामोशी हो वह पर्याप्त ख़ामोशी नहीं है, कितनी ही रात हो वह काफ़ी रात नहीं है।
क्या मैं उस खोए हुए दिन की तरह हूँ जब तुम पूर्व की ओर उड़ते हो, और वह पुनः प्राप्त निशा जो पश्चिम जाने से मिलती है?
रात अपने आप से भरी हुई है, अपने आप में विस्तृत है और अपने आप में जीवंत है।