
अज्ञान निर्दोषता नहीं है, पाप है।



वह सबको शरण देने वाला है, दाता और सहायक है। अपराधों को क्षमा करने वाला है, जीविका देने वाला है और चित्त को प्रसन्न करने वाला है।

पाप कर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करने वाला मनुष्य उस पाप से छूट जाता है तथा फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूँगा, ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी मुक्त हो जाता है।

यदि पापी अपने पाप का फल एकांत में या अपनी आत्मा ही में भोग कर चला जाता है तो वह अपने जीवन की सामाजिक उपयोगिता की एकमात्र संभावना को भी नष्ट कर देता है।

हे साक़ी! ईश्वर-प्रेम की मदिरा मुझको पुरस्कार में प्राप्त हुई है। बिना ईश्वर-प्रेम की मदिरा पीने वाला पापी है। ईश्वर प्रेम से रहित मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता है। मनुष्य-जीवन का उद्देश्य ईश्वर प्रेम को प्राप्त करना है।

जिस गृहस्थ के घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह उस गृहस्थ को अपना पाप देकर उसका पुण्य ले जाता है।

पापों का फल तत्काल समझ में नहीं आता। उसका ज़हर अवस्था की तरह ठीक अपने समय पर चढ़ता है।

राजन्! परिहासयुक्त वचन असत्य होने पर भी हानिकारक नहीं होता। अपनी स्त्रियों के प्रति, विवाह के समय, प्राण-संकट के समय तथा सर्वस्व का अपहरण होते समय विवश होकर असत्य भाषण करना पड़े तो वह दोषकारक नहीं होता। ये पाँच प्रकार के असत्य पापशून्य कहे गए हैं।

जिस कर्म से ईश्वर हमसे दूर होता है वह पाप है।

परोपकार पुण्य तथा पर पीड़ा पाप है।

द्विधा और दुर्बलता पाप हैं। पाप ही क्यों, महापाप हैं।


पाप का फल छिपाने वाला पाप छिपाने वाले से अधिक अपराधी है।

पाप केवल इसलिए बुरा नहीं है कि उससे अपने आपको नरक मिलता है, बुरा वह इसलिए है कि उसकी दुर्गंध से दूसरे का दम भी बिना घुटे नहीं रहता।

कोई बात प्राचीन है इसलिए वह अच्छी है ऐसा मानना बहुत ग़लत है। यदि प्राचीन सब अच्छा ही होता तो पाप कम प्राचीन नहीं है। परन्तु चाहे जितना भी प्राचीन हो, पाप त्याज्य ही रहेगा।

जहाँ पाप है, वहाँ पाप-पुंज-हारी भी हैं।

दया के समान पाप को प्रोत्साहित करने वाला अन्य कुछ नहीं है।

यहाँ हम सभी समान रूप से पापी हैं, अपने पाप के मापदंड से दूसरों के पाप की माप-तौल करते हैं।