अपराध पर उद्धरण
अपराध" का अर्थ है किसी
ऐसे कार्य या व्यवहार का प्रदर्शन करना, जो समाज, कानून, या नैतिक मानकों के विरुद्ध हो। यह ऐसा कृत्य होता है जिसे कानून द्वारा अनुचित, अनैतिक, और दंडनीय माना जाता है। उदाहरण के लिए, चोरी, हत्या, धोखाधड़ी, और मारपीट जैसे कार्य अपराध की श्रेणी में आते हैं। अपराध के प्रकार और उसकी गंभीरता के आधार पर, उसके लिए विभिन्न प्रकार की सज़ा या दंड निर्धारित किए जाते हैं। भारतीय दंड संहिता (IPC) में विभिन्न अपराधों का विवरण दिया गया है, और उनके अनुसार अपराधियों को न्याय प्रणाली के तहत दंडित किया जाता है।

हम सभी को भुगतना पड़ा, लेकिन उन अपराधों के लिए नहीं जिनके लिए हम पर आरोप लगाए गए थे। अन्य हिसाब भी चुकता करने थे।

लोग कहते हैं—दुष्ट के सारे ही काम अपराध होते हैं। दुष्ट कहता है— मैं भला आदमी हो जाता किंतु लोगों के अन्याय ने मुझे दुष्ट बना दिया है।


वह सबको शरण देने वाला है, दाता और सहायक है। अपराधों को क्षमा करने वाला है, जीविका देने वाला है और चित्त को प्रसन्न करने वाला है।

सबसे बड़ी बुराई तथा निकृष्टतम अपराध निर्धनता है।

कौन न कहेगा कि महत्त्वशाली व्यक्तियों के सौभाग्य-अभिनय में धूर्तता का बहुत हाथ होता है। जिसके रहस्यों को सुनने से रोम कूप स्वेद जल से भर उठे, जिसके अपराध का पात्र छलक रहा है, वही समाज का नेता है। जिसके सर्वस्व-हरणकारी करों से कितनों का सर्वनाश हो चुका है, वही महाराज है। जिसके दंडनीय कार्यो का न्याय करने में परमात्मा के समय लगे, वही दंड-विधायक है।

हम ऐसा मानने की ग़लती कभी न करें कि गुनाह में छोटा-बड़ा होता है।

संसार में ऐसे अपराध कम नहीं हैं जिन्हें हम चाहें और क्षमा न कर सकें।

श्रेष्ठ पुरुष को चाहिए कि कोई पापी हो या पुण्यात्मा अथवा वे वध के योग्य अपराध करने वाले ही क्यों न हों, उन सब पर दया करें, क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जिससे कभी अपराध होता ही न हो।

कहते क्यों नहीं कि मेरा यही अपराध है कि मैंने कोई अपराध नहीं किया?

जिस प्रकार जल में रहती हुई मछलियाँ जल पीती हुई नहीं ज्ञात होतीं, उसी प्रकार अर्थ कार्यो पर नियुक्त हुए राज कर्मचारी धनों का अपहरण करते हुए ज्ञात नहीं होते।

संसार अपराध करके इतना अपराध नहीं करता, जितना वह दूसरों को उपदेश देकर करता है।

संसार में अपराध करके प्रायः मनुष्य अपराधों को छिपाने की चेष्टा नित्य करते हैं। जब अपराध नहीं छिपते तब उन्हें ही छिपना पड़ता है और अपराधी संसार उनकी इसी दशा से संतुष्ट होकर अपने नियमों की कड़ाई की प्रशंसा करता है।

समाज में प्रतिदिन जो अपराधों और दुष्कर्मों की संख्याएँ बढ़ती चली जा रहीं हैं, उसका प्रधान कारण आज के युग की यही सहानुभूतिरहित, संवेदनाशून्य प्रवृत्तियाँ, विषम सामाजिक परिस्थितियाँ और सामूहिक भ्रष्टाचार ही है।

प्रभुत्व और धन के बल पर कौन-कौन से अपराध नहीं हो रहे हैं?