निंदा पर उद्धरण

निंदा का संबंध दोषकथन,

जुगुप्सा, कुत्सा से है। कुल्लूक भट्ट ने विद्यमान दोष के अभिधान को ‘परीवाद’ और अविद्यमान दोष के अभिधान को ‘निंदा’ कहा है। प्रस्तुत चयन उन कविताओं से किया गया है, जहाँ निंदा एक प्रमुख संकेत-शब्द या और भाव की तरह इस्तेमाल किया गया है।

मुझसे पहले की पीढ़ी में जो अक़्लमंद थे, वे गूँगे थे। जो वाचाल थे, वे अक़्लमंद नहीं थे।

विजय देव नारायण साही

किसी को ठीक-ठीक पहचानना है तो उसे दूसरों की बुराई करते सुनो। ध्यान से सुनो।

अज्ञेय

पुरुष जब बिस्तर में बेकार हो जाए, बेरोज़गार हो जाए, बीमार हो जाए तो पत्नी को सारे सच्चे-झूठे झगड़े याद आने लगते हैं। तब वह आततायी बन जाती है। उसके सर्पीले दाँत बाहर निकल आते हैं।

स्वदेश दीपक

महफ़िल में पीना दूसरे दर्जे का पीना है, महफ़िल के लिए लिखना दूसरे दर्जे का लिखना।

कृष्ण बलदेव वैद

स्त्री उन पुरुषों के साथ फ़्लर्ट करती है, जो उससे विवाह नहीं करते और उस पुरुष के साथ विवाह करती है, जो उसके साथ फ़्लर्ट नहीं करता।

भुवनेश्वर

प्रशंसा का अधिकांश भाप बनकर उड़ जाने के लिए ही बना होता है।

सिद्धेश्वर सिंह

सुंदर औरत नादिरशाही होती है। एक-एक करके सब कुछ लूटती है।

स्वदेश दीपक

औरत एक छोटा-सा सुख तो देती है, लेकिन दुख बहुत लंबा देती है। प्रभुजी का बनाया विनाशकारी जीव। उसका घातक सौंदर्य पहले हमें बाँध लेता है, फिर सर्वनाश कर देता है।

स्वदेश दीपक

तीन दिन के वासना-प्रवाह में स्त्री बह जाती है और तीन वर्ष के एकांगी प्रेम पर वह एकांत में हँसती है।

भुवनेश्वर

ख़राब किया जा रहा मनुष्य आज जगह-जगह दिखाई देता है।

मंगलेश डबराल

इस लज्जित और पराजित युग में कहीं से ले आओ वह दिमाग़ जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता।

रघुवीर सहाय

यदि स्वयं को यह पता चल सके कि कमज़ोर कड़ी कहाँ है तो प्रसिद्ध होना बहुत आसान हो जाता है।

सिद्धेश्वर सिंह

दोहरी ज़िंदगी की सुविधाओं से मुझे प्रेम नहीं है।

राजकमल चौधरी

स्त्री के ज्ञानकोश में आमोद-प्रमोद का केवल एक अर्थ है; वह करना, जो उसे नहीं करना चाहिए।

भुवनेश्वर

हिंदी के हैड हमेशा कवि-आलोचक होते हैं।

स्वदेश दीपक

एक विशुद्ध कवि जब सहवास कराता है तो ‘निराला’ हो जाता है। ‘जुही की कली’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’। एक महान् कवि सहवास कराता है तो मैथिलीशरण गुप्त हो जाता है। राष्ट्रकवि हमेशा अप्रामाणिक होते हैं।

स्वदेश दीपक

मंच-संचालक बन जाने से कोई मूर्ख विद्वान नहीं बन जाता।

स्वदेश दीपक

हिंदुस्तानी डाकख़ाना एक डरावनी जगह है। उस माहौल में काम करने वाले बाबू पागल क्यों नहीं हो जाते?

कृष्ण बलदेव वैद

कल शाम एक असाहित्यिक भीड़ में गुज़री। कुछ चेहरे अजनबी। नुमाइश। औरतें बहुत थीं। सब मोटी। सजी-धजी लदी-फदी भैंसें। कामुकता ग़ायब। उसकी जगह पैसे ने ले ली है। आदमी भी ऐसे जिनके लिंग लापता हों। लिंगहीन लोथड़े। जहाँ पैसा और जायदाद हावी हो जाएँ, वहाँ सेक्स ग़ायब हो जाता है। लच्चरपन अलबत्ता बचा रहता है। ख़ूबसूरती आराइश के नीचे दब जाती है, ख़ून पानी में बदल जाता है, वीर्य साबुनी झाग में।

कृष्ण बलदेव वैद

साहित्य अकादेमी का माहौल मुझे हमेशा असाहित्यिक लगा है।

कृष्ण बलदेव वैद

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