नृत्य पर उद्धरण
नृत्य को मानवीय अभिव्यक्तियों
का रसमय प्रदर्शन कहा गया है। भारतीय सांस्कृतिक अवधारणा में तो सृष्टि की रचना और संहार तक से नृत्य का योग किया गया है। प्रस्तुत चयन में नृत्य से अभिभूत कविताओं का संकलन किया गया है।

अकारण और अंतहीन : संगीत, लय और नृत्य।

समाज में गीत-वाद्य, नाट्य- नृत्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, ये बड़ी मनोहर और उपयोगी कलाएँ हैं। पर हैं तभी, जब इन के साथ संस्कृति का निवास-स्थान पवित्र संस्कृत अंतःकरण हो। केवल 'कला' तो 'काल' बन जाती है।

जिस प्रकार हर रंग और रेखा चित्र नहीं है, हर ध्वनि संगीत नहीं है, शरीर की हर भाव-भंगिमा नृत्य नहीं है, वस्तु की हर आकृति शिल्प नहीं है, हर शब्द साहित्य नहीं है—उसी प्रकार हर ध्वनि, हर मुद्रा, हर रंग व रेखा और हर आकृति से प्राप्त होने वाला आनन्द कला का आनन्द नहीं है।

जिस प्रकार नर्तकी रंगशाला के दर्शकों को नृत्य दिखाकर नृत्य से निवृत्त हो जाती है, उसी प्रकार प्रकृति भी पुरुष को आत्मा का साक्षात्कार कराके निवृत्त हो जाती है।

भक्ति के साथ नृत्य-कला का विकास हुआ।

कबीर जैसा आदमी 'नाच रे मन मद नाच' कहते हुए नाचता हुआ-सा दिखाई पड़ता है।
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संबंधित विषय : भक्ति काव्य

नृत्य एक क्षैतिज इच्छा की लंबवत अभिव्यक्ति है।