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धर्मेंद्र : सबसे सरल सिने-अध्याय

धर्मेंद्र के निधन पर एक व्यापक सामूहिक क्षति का एहसास हमें न्यूज़ चैनल्स पर दिखाई गईं ख़बरों और सोशल मीडिया पर दी गईं श्रद्धांजलियों से हुआ। धर्मेंद्र एक बड़े जनसमूह के नायक थे, जिन्होंने लंबे समय तक सक्रिय रहते हुए अपने आप को दर्शकों के सामने उपस्थित रखा। धर्मेंद्र का होना फ़िल्म की सफलता की गारंटी रही। 

मैं अपनी बात करूँ तो यह अस्सी का उत्तरार्ध और नब्बे के पूर्वार्द्ध का समय होगा। उस समय सिनेमा ही मनोरंजन का एकमात्र साधन था। इसके अलावा ‘चित्रहार’, ‘रंगोली’ या फिर नई फ़िल्मों के पोस्टर्स के ज़रिये सिनेमा हमारी सड़कों, हमारे घरों और हमारी बातों में हुआ करता था। फ़िल्म न देखने वाला व्यक्ति भी फ़िल्मों से अछूता नहीं रह सकता था। ऐसे समय में हम देखते थे कि बहुत बड़ी उम्र के कुछ नायक लगातार इस तरह की फ़िल्में कर रहे हैं, जो उन पर सूट नहीं कर रहीं। इनमें मुख्य तौर पर धर्मेंद्र, जितेंद्र और ऋषि कपूर के नाम याद आते हैं। उनके शरीर फैले हुए हैं, चेहरे पर छुपाई जा रही प्रौढ़ता है और हाव-भाव में उनके अपने सिग्नेचर स्टाइल्स हैं। मुझे ऐसे नायक बिल्कुल पसंद नहीं आते थे, लेकिन जब मैं इनके विकल्प के तौर पर उस समय के नए ज़माने के अजय देवगन, अक्षय कुमार या सुनील शेट्टी को देखता था तो धर्मेंद्र, जितेंद्र और ऋषि फिर भी प्राजेंटेबल दिखते थे। फिर भी यह कुल मिलाकर एक बेहद ख़राब दौर था—जहाँ पर कहानी, गीत, अभिनय जैसे सिनेमा के ज़्यादातर क्षेत्र का स्तर सामान्य से कई गुना नीचे हुआ था।

इस सबके बीच, जब धर्मेंद्र की कोई पुरानी फ़िल्म या चित्रहार में कोई पुराना गीत आता था तो सब बड़े चाव से देखते थे। धर्मेंद्र हमारे ज़माने के नायक नहीं थे। उनका पीक बीत चुका था, फिर भी धर्मेंद्र को देखते हुए उसे अपने आस-पास का मान पाने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई। कह सकते हैं कि जितनी मुश्किल राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार आदि से जान-पहचान बढ़ाने में हुई, उतनी धर्मेंद्र को पहचानने में नहीं हुई। जहाँ बाक़ी नायकों को अपनी स्मृति में स्थापित करने के लिए हमें उनकी अच्छी फ़िल्म देखने तक का इंतज़ार करना पड़ा—जैसे राजेंद्र कुमार की ‘क़ानून’ या मनोज कुमार की ‘गुमनाम’—वैसा धर्मेंद्र के साथ नहीं हुआ। धर्मेंद्र तो जैसे देखते ही याद हो जाते हैं। वह हमारे बचपन में सिनेमा की किताब का सबसे सरल और रोचक अध्याय थे।

सिनेमा के कार्पेट पर धर्मेंद्र बहुत दूर से आते दिखाई देते हैं। वह ‘दिलीप-राज-देव’ की तिकड़ी के समय से लगभग ‘तीन-ख़ान’ के आविर्भाव तक हिंदी-सिनेमा में विद्यमान रहे। वह दिखते रहे, हम उन्हें पहचानते रहे, उन्हें याद रखते रहे और भले ही हम बाद की उनकी फ़िल्मों से कोई तारतम्य न बिठा पाए हों, उनका दिखना एक आश्वस्ति की तौर पर रहा। हमारे पसंदीदा नायक कोई और थे—पर धर्मेंद्र तो धर्मेंद्र थे। उनकी उपस्थिति में शायद पसंदीदा से ज़्यादा अपनेपन का भाव था। उनके डांस स्टेप्स में जो ख़ामियाँ थीं, हम उन्हें खिलंदड़पन की कैटेगरी में रखकर सिर्फ़ पास ही नहीं करते थे, बल्कि पसंद करते थे। इस तरह की छूट शायद सिर्फ़ धर्मेंद्र को ही प्राप्त थी।

धर्मेंद्र हर दौर में अपने स्थान को बनाए रखते हुए दिखते हैं, चाहे वह ‘राज-देव-दिलीप’ का दौर हो या राजेश खन्ना का सुपरस्टार दौर या अमिताभ बच्चन के स्टारडम की आँधी, इन तूफ़ानों के बीच एक दर्शक के तौर पर मुझे धर्मेंद्र सबसे सुरक्षित टापू की तरह दिखते हैं।

यह धर्मेंद्र के सिनेमाकर्म का विस्तार ही है कि अगर हम चाहें तो पचास से लेकर नब्बे के दशक तक के सिनेमा की प्रवृत्तियों में होते हुए बदलाव को सिर्फ़ धर्मेंद्र की फ़िल्मों के ज़रिये जान सकते हैं। धर्मेंद्र हमारे हिंदी सिनेमा की कुंजी हैं। कैसे हमारा सिनेमा पचास-साठ के दशक की अच्छी अर्थपूर्ण सामाजिक दायित्वों से भरपूर फ़िल्मों से होते हुए समाज और परिवार की भीतरी तहों को टटोलता हुआ, अस्सी के दशक की अतिरंजित हिंसा और आक्रोश तक पहुँचता है और अंततः नब्बे के दशक तक आते-आते वह फूहड़ता को प्राप्त हो जाता है।

धर्मेंद्र कितनी बहुतायत में हमारे जीवन में मौजूद थे। और इसका अंदाज़ा हमारे समय के अध्यापकों द्वारा छात्रों की वेशभूषा, पोशाकों और बालों के स्टाइल को देखकर दिए जाने वाले तंज से मिल जाता है, जिसमें वे कहते थे, “क्यों बेटा, बड़े धरमेन्दर बने घूम रहे हो!” बाद में यह उपमा शाहरुख़ और सलमान से तब जाकर स्थानांतरित हुई, जब धर्मेंद्र फ़िल्मों में काम करना छोड़ चुके थे।

धर्मेंद्र से शुरुआती वास्ता ‘शोले’ से होता है। धर्मेंद्र—‘वीरू’ के रूप में ख़ूब हँसाते हैं लेकिन शायद सबको वीरू से ज़्यादा ‘जय’ याद रह जाता है, क्योंकि कहानी में ‘जय’ मरते हुए अपने लिए सांत्वना बटोर ले जाता है। फिर धर्मेंद्र ‘चुपके-चुपके’ में दिखते हैं। अगर आप देखें तो इस फ़िल्म में धर्मेंद्र, अमिताभ की तुलना में ज़्यादा सहज और स्वाभाविक नज़र आते हैं। सत्तर के दौर में धर्मेंद्र अपनी भूमिकाओं में मुखर और संपूर्ण दिखते हैं। पचास और साठ के दशक में जहाँ वह एक सकुचाये हुए शालीन और नैतिकताओं से भरे नायक हैं (‘बंदिनी’, ‘देवर’, ‘ख़ामोशी’, ‘अनुपमा’ आदि) तो वहीं अस्सी के दशक में यह छवि हिंसा और क्रोध जैसे भावों का शिकार हो जाती है (‘लोहा’, ‘ख़तरों के खिलाड़ी’, ‘जीने नहीं दूँगा’ आदि)। अस्सी के दौर को शायद ख़ुद धर्मेंद्र भी भूलना चाहते होंगे। हालाँकि फ़िल्में चाहे जैसी भी हों, इन फ़िल्मों के ज़रिये वह दर्शकों को नज़र आते रहे और उनकी याद में बने रहे।

धर्मेंद्र को अंतिम बार करन जौहर की ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ में देखकर अफसोस हुआ। उसे देखना धर्मेंद्र की अब तक की बनी बनाई छवि पर एक कड़ा प्रहार था। भले ही उनका किरदार प्रेम के वश में हों, लेकिन धर्मेंद्र के किरदार के इतने निरीह और अशक्त होने की कल्पना मैं नहीं कर सकता। धर्मेंद्र अपनी भूमिकाओं के चयन में कितने लापरवाह रहे, यह फ़िल्म उसका एक उदाहरण है।

धर्मेंद्र के नहीं रहने का दुख किसी बेहद जाने-पहचाने, अपने बीच के व्यक्ति के नहीं रहने जैसा दुख है। अपनी तमाम ख़ूबियों-ख़ामियों-खिलंदड़पन के साथ धर्मेंद्र हमें हमेशा याद आते रहेंगे।

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योगेश कुमार ध्यानी को और पढ़िए : 'सारा दिन सड़कों पे ख़ाली रिक्शे-सा पीछे-पीछे चलता है' | भाषा में पसरती जा रही मुर्दनी | असरानी के लिए दस कविताएँ

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