कहना न होगा कि शिल्प की दृष्टि से शमशेर हिंदी के एक अद्वितीय कवि है।
शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली भवन अपने हाथों तैयार किया है, उस भवन में जाने से डर लगता है—उसकी गंभीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण।
रवींद्रनाथ जिस सतह से बोलते हैं, जिस व्यापक जीवन के सर्वोच्च बिंदु पर खड़े होकर देश-देशांतर के जन-समुदाय के सामने वे अपने को प्रकट करते हैं, उस स्थान के अन्य अनुगामी कलाकार नहीं बोल पाते। उतना ही उनमें बौनापन है, जितनी कि रवींद्र में ऊँचाई।
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शमशेर की मूल मनोवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है।
इंप्रेशनिस्टिक स्वभाव ने शमशेर को ‘विशिष्ट’ के प्रति प्रेरित किया है।
शेक्सपियर के 'टेंपेस्ट' नाटक के साथ कालिदास की 'शकुंतला' की तुलना मन में सहज ही उठ सकती है। इनका बाह्य सादृश्य और आंतरिक विभिन्नता, ध्यानपूर्वक विचार करने की चीज़ है।
प्रणय-जीवन के सर्वोतम कवि आज भी मीरा और सूर हैं।
पंतजी में कोमल संवेदनाओं से आप्लुत, एक विशेष प्रकार की अंतर्मुखता थी।
अज्ञेय से पहले हिंदी का कोई ऐसा कवि नहीं हुआ जो शुद्ध रूप से नागरिक कवि हो।
आत्म-चेतना को विकास के प्रश्न की दृष्टि से देखा जाए, तो यह कहना होगा कि शमशेर आत्मपरक साहित्य की यूरोपीय परंपरा से काफ़ी प्रभावित हैं।
जीवन के विविध क्षेत्रों का और अनेकानेक मानव-प्रसंगों का, जितना अनुभव प्रसादजी को था—उतना पंतजी को प्राप्त नहीं हो सका।
निराला का संघर्ष, स्थिति-रक्षा का संघर्ष है।
शमशेर के शिल्प के संबंध में यह बात भी मुझे कहनी है कि प्रसंगबद्ध भावना की प्रसंग-विशिष्टता सुरक्षित रखकर, प्रसंग को पार्श्वभूमि में हटाते हुए उसको बिल्कुल ही उड़ा देने से, काव्य के रसास्वादन में कुछ तो बाधा होती ही है।
वास्तविक जीवनानुभव की जितनी संपन्नता निराला और प्रसाद में है (महादेवी में भी), उतनी उस हद तक; उस मात्रा में पंतजी के पल्ले नहीं पड़ी।
हमारे आधुनिक साहित्य के क्षेत्र में सर्वप्रथम सामंती संस्काराच्छन्न उच्च-मध्यवर्ग ही सक्रिय हुआ—चाहे वे भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, अथवा बिगड़े रईस जयशंकर प्रसाद हों, अथवा आधुनिक परिष्कार-युक्त विलायती शिक्षा-प्राप्त अथवा उससे प्रभावित अन्य कविजन हों।
कवि को चित्रकार का स्थानापन्न बना देने से और उस स्थानापन्न कवि के सम्मुख कार्यक्षेत्र विस्तृत कर देने से, शमशेर की रचनात्मक प्रतिभा ने बहुत बार घोटाला कर दिया है—ऐसा मेरा ख़याल है।
पंतजी अंतर्तम के गहन भाव-दृश्यों के चित्रकार नहीं हैं।
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इंप्रेशनिस्टिक ढंग का चित्रकार, जीवन की उलझी हुई स्थितियों का चित्रण नहीं कर सकता—वह उसके किसी दृश्य-खंड को ही प्रस्तुत कर सकता है।
कामायनी में विचारों और अनुभवों के सामान्यीकरण का दर्शन है।
शमशेर का निरालापन बहुत ही स्वाभाविक और अन्यत्र दुर्लभ है।
मैं यह कहना चाहता हूँ कि प्रसादजी जिस अर्थ में अंतर्मुख कवि हैं, उस अर्थ में पंतजी नहीं।
शमशेर के सृजन-प्रक्रियात्मक सेंसर्स काफ़ी महत्वपूर्ण हैं। जो बातें वे नहीं कहते, वे संदर्भ की दृष्टि से प्रधान हैं।
शमशेर ने अपने हृदय में आसीन चित्रकार को पदच्युत कर कवि कोअधिष्ठित किया है।
इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार तथा अन्य चित्रकारों की भाँति, शमशेर संवेदनाओं के गुण—आत्मचेतस रूप से जानते हैं।
सूक्ष्म संवेदनाओं के गुण-चित्र उपस्थित करना बड़ा ही दुष्कर कार्य है, किंतु शमशेर उसे सहानुभूति से संपन्न कर जाते हैं।
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शमशेर की आत्मा एक रोमैंटिक क्लासिकल प्रकार की है। किंतु इंप्रेशनिस्टिक होने के कारण, उनका ज़ोर संवेदन-विशिष्टता और संवेदनाघात (पर) और केवल इसी पर होने से—वे नई कविता के एक अद्वितीय कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।
वास्तव से पंतजी का जो हार्दिक संबंध था, वह दार्शनिक कुंठाओं से रहित था।
प्रसादजी ने सारस्वत सभ्यता का निर्माण करनेवाली इड़ा को बुद्धिवादी बताया है।
शमशेर ने संवेदनाओं के गुण-चित्र उपस्थित करने के क्षेत्र में जो महान सफलताएँ प्राप्त की हैं, दुर्लभ हैं।
शमशेर के पास जादुई कीमियागिरी नहीं है, वास्तव का संवेदनात्मक ग्रहण है।
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शमशेर संवेदनाओं के प्रसंग-विशिष्ट गुणों का बहुत सफलतापूर्वक चित्रण करते हैं।
शमशेर मुख्यतः प्रणय-जीवन के प्रसंगबद्ध रसवादी कवि हैं।
इंप्रेशनिस्टिक कला ने शमशेर से त्याग करवाया है, साथ ही उन्हें बहुत कुछ मौलिक और विशिष्ट गुण भी दिए हैं, जो किसी अन्य कवि में नहीं पाए जाते।
शमशेर का संवेदन-ज्ञान और संवेदन-चित्रण अद्वितीय है।
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प्रसादजी दार्शनिक थे। उनकी दार्शनिक ज्ञान-व्यवस्था ही ऐसी थी; जो वर्तमान सभ्यता-स्थिति की विषमताएँ कम करने का उपाय तो बताती थी, किंतु आमूल क्रांतिकारी परिवर्तन का ध्येय नहीं रख सकती थी।
पंतजी के काव्य का यौवनोन्मेष काल प्रदीर्घ है।
पंतजी वास्तव के प्रति संवेदनाशील होकर; जब-जब तत्प्रति उन्मुख हुए, उनके मन पर अपना ख़ुद का बोझ कभी नहीं रहा।
शमशेर का काव्य एकदम खरा है, अपने विशेष गुणों के कारण मौलिक है, अपने शिल्प के कारण अद्वितीय है—और ये ही बातें उन्हें श्रेष्ठ सिद्ध करती हैं।
शमशेर एक समर्पित कवि हैं।
शमशेर पर लगाया गया यह दोषारोप कि वे उलझे हुए हैं और उनकी बात समझ में नहीं आती—उस आदत को सूचित करते हैं—जिसे हम सामान्यीकरण की आदत कह सकते हैं।
बाख के संगीत की स्वर-लहरियों द्वारा उत्तेजित संवेदनाओं का चित्रण जो शमशेर ने किया है, वह उनके अनुपम काव्य-सामर्थ्य तथा वास्तोन्मुख भावना का एक श्रेष्ठ उदाहरण है।
‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ से लेकर, तो आगे ‘हँसते-हँसते कृष्ण बन गए मन में, जनमंगल हित है’ तक जो जनोन्मुख भावनाएँ पंतजी ने प्रकट कीं—वे उनकी सहज सहानुभूति ही का विस्तार थीं।
यदि मुझे क्षमा किया जाए, तो मैं यह कहूँगा कि पंतजी वस्तुतः बुद्धि-प्राण नहीं हैं, बौद्धिक नहीं हैं।
शमशेर सामान्यीकृत भावनाओं और सामान्यीकृत रुखों के कवि नहीं हैं।
पंतजी में वास्तव के प्रति जो संवेदन-क्षमता है; उस पर मूलत: अपना निज का बोझ नहीं होने से, वह वास्तव के प्रति अधिकाधिक उन्मुख होती गई।
कुँवर नारायण मूलतः आदर्शवादी कवि है।
शमशेर बाह्य-दृश्य के भीतर, भाव-प्रसंग को उपस्थित करते हैं। अन्य कवि केवल भावना व्यक्त करते हैं।
प्रसादजी की दृष्टि में बाह्य-वास्तव के तक़ाज़े से; अपने भीतरी ज्ञान का तक़ाज़ा—अधिक महत्वपूर्ण और निर्णायात्मक था।
विद्यापति की कविता में प्रेम की भंगी, प्रेम का नृत्य, प्रेम का चांचल्य है; चंडीदास की कविता में प्रेम की तीव्रता, प्रेम का आलोक।
पंतजी का अद्वैतवादी रहस्य, मूलतः एक दार्शनिक भावुकता का ही रूप हो सकता था।