जो व्यक्तित्व कामनाओं का दलन कुछ अधिक दूर तक करता है, उसका व्यक्तित्व व्यक्तित्व न रहकर चरित्र बन जाता है।
साहित्य की आधुनिक समस्या यह है कि लेखक शैली तो चरित्र की अपनाना चाहते हैं, किन्तु उद्दामता उन्हें व्यक्तित्व की चाहिए।
व्यक्तित्व के विशेष विकास से प्राप्त जो आभ्यंतर गुण हैं और गुण-धर्म हैं, वही प्रतिभा है।
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तनाव केवल घिराव से ही उत्पन्न नहीं होता, वह तो सचेत और जागरूक द्वंद्व-संघर्ष से भी उत्पन्न हो सकता है। लेकिन मुश्किल यह है कि यदि व्यक्तित्व में केवल घिराव-ही-घिराव रहे—भले ही लेखक इस घिराव को कोई-न-कोई अच्छा नाम देकर टकरा दे—तो व्यक्तित्व स्थित्यात्मक हो जाएगा।
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सवाल व्यक्तित्व के ह्रास का है। बाहर से कोई दबाव न हो, तब भी प्रतिष्ठान के निरंतर संबंध से लेखक का व्यक्तित्व धीरे-धीरे गिरता जाता है।
हमारे व्यक्तित्व की सीमांत दीवारें हमें अपनी सीमा की ओर भी धकेलती हैं और इसी तरह हमें असीम की ओर भी ले जाती हैं। केवल जब हम इन सीमाओं को असीम बनाने की कोशिश करते हैं, तभी हम परस्पर-विरोधी भावनाओं में संघर्ष पाते हैं और तभी हमें दुःख उठाना पड़ता है।
विचार का विरोध तो हो सकता है, लेकिन आचार में विरोध नहीं होना चाहिए।
एलियट कला को व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं मानते हैं, किन्तु रवीन्द्रनाथ और इक़बाल, दोनों का विचार है कि कला व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है।
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जिसके जीवन में संघर्ष नहीं है, तनाव नहीं है, कर्मठता और उत्साह नहीं है—उसका व्यक्तित्व भी नहीं है।
हमारा व्यक्तित्व जैसा होगा, वैसा ही दुनिया का नक्शा हम बनाएँगे। इसे 'चारित्र्य' कहते हैं।
व्यक्तित्व का आरम्भ समर का आरम्भ है, जीवन को घेरनेवाली बाधाओं पर आक्रमण का आरम्भ है।
स्वातंत्र्य-महत्ता का जिसमें जितना ऊँचा और प्रखर बोध होता है उसी का व्यक्तित्व अनुशासन की पुष्ट भित्ति पर खड़ा होता है।
हमारा व्यक्तित्व जितना शक्तिशाली होगा; उतने ही बल से वह विश्व की विशालता की ओर खिंचेगा, क्योंकि उसकी शक्ति का केंद्र स्वयं उसमें नहीं; बल्कि विश्व में है। उसी तरह जैसे झील की गहराई पृथ्वी में खुदी खाई से नहीं मापी जाती—पानी की सतह से मापी जाती है।
औद्योगिक सभ्यता व्यक्तित्व का नाश करती है।
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जो हम हो नहीं सकते, उसके लिए प्रयत्न करना बेकार है।
कुरूप मन ही व्यक्तित्व को विरूप बनाता है।
बोल्ड होना आवश्यक आदत है। इसे अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाने के लिए इस अभ्यास को करें।
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जहाँ तक प्रकृति का प्रश्न है वहाँ व्यक्तित्व की विषमता नहीं।
व्यक्तित्व के प्रसार में सबसे बड़ी बाधा पुराने मूल्य उपस्थित करते हैं, पुरानी नैतिकता उपस्थित करती है।
चरित्र एकान्तवादी और व्यक्तित्व अनेकान्तवादी होता है।
व्यक्तित्व के पुटपाक का पावक दु:ख ही है।
व्यक्तित्वशाली वह है, जो शंकाओं को अपने चारों ओर मँडराने की छूट देता है।