
हमारे अधिकांश उपन्यास अति सामान्य प्रश्नों (ट्रीविएलिटीज) से जूझते रहते हैं और उनसे हमारा अनुभूति-संसार किसी भी तरह समृद्ध नहीं होता।

सबसे पहली कमी तो हमारे उपन्यासों में चिंतन और वैचारिकता की ही है।

हमारे साहित्य में एक बहुचर्चित स्थापना यह है कि भारतीय उपन्यास मूलतः किसान चेतना की महागाथा है—वैसे ही जैसे उन्नसवीं सदी के योरोपीय उपन्यास को मध्यम वर्ग का महाकाव्य कहा गया था।

उपन्यास की पूरी संभावनाओं का अभी भी हमारे यहाँ दोहन होना है।

‘मैला आँचल’ के साथ ही हिंदी में उपन्यासों में एक नई कोटि का प्रचलन होता है, जिसे ‘आंचलिक’ कहते हैं।

हिंदी ही नहीं, कोई भी भाषा जब दफ़्तरों में घुसती है तो उसका एक बँधा-बँधाया शब्द-जाल विकसित होता है—वह टकलाली स्वरूप ग्रहण कर लेती है।

भारतीय भाषाओं में जब साहित्यकार के संघर्षशील क्षणों या उसकी गर्दिश के दिनों का प्रसंग उठता है, तो वह प्रायः उसकी ग़रीबी या अभाओं का प्रसंग होता है—अपने परिवेश से टकराने या रचना-प्रक्रिया के तनावों को झेलने का नहीं।

भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं का रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति ही अलंकार है।

अगर भारतीय उपन्यास की कोई स्पष्ट पहचान करनी हो—उसकी जटिलता के बाबजूद—तो ‘मैला आँचल’ उसका सशक्त संकेतक है।

सुविधावादी होने का आरोप तो बकवास है, पर प्रतिष्ठानवाली दिक़्क़त काफ़ी असली है। प्रतिष्ठान के साथ लेखक का; सृजनशील लेखक का संबंध, निश्चय ही ऐसी समस्याओं और तनावों को उभारता है जिन्हें वाग्पटुता से नहीं टाला जा सकता।

अँग्रेज़ी शब्द-समूह का हूबहू हिंदी अनुवाद निरर्थक ही नहीं—विपरीत अर्थ सृजित करनेवाला भी हो सकता है। वास्तव में भाषा का विकास ऐसे कृतिम उपायों से नहीं, संस्कृति और चिंतन के विकास के अनुरूप ही होता है।

‘शेखर : एक जीवनी’ के प्रकाशन से हिंदी उपन्यास अपनी अनेक पुरानी सीमाओं को पीछे छोड़ देता है, उपन्यास विधा एक विस्तीर्ण फ़लक हासिल करती है, उसे एक मुक्ति का एहसास होता है; उपन्यास अब घटनाओं का संपुँजन भर नहीं रहा, न चरित्रों की अंतिम परिणति पर आधारित एक नीति कथा और न कोई जीवन-दृष्टि भर। वह अब जीवन का समग्र अनुभव बन गया, एक समानांतर संसार, जिसमें हम स्वयं अपनी जटिल अनुभूतियों को पहचान सकते हैं—और सरंचना की दृष्टि से वह एक साथ कथा जीवनी, चिंतन, दार्शनिक विश्लेषण, काव्य, महाकाव्य बन गया।

हिंदी एक भाषा के अलावा एक चेतना का भी नाम थी जिसका रिश्ता राष्ट्रवाद की उठान से बैठ गया था। कालांतर में रिश्ता एक फंदा बन गया।

धीरे-धीरे अँग्रेज़ी न जाननेवाले हिंदी लेखक, अल्पसंख्यकों की कोटि में आ गए। अब तो वे सिर्फ़ गिने-चुने रह गए हैं और ऐसे लेखकों की संख्या बढ़ रही है जो अँग्रेज़ी ज़्यादा और हिंदी कम जानते हैं।

हिंदी की सेवा करते-करते उसके सेवकों ने उसको असाध्य रूप में रोगी बना दिया।

अपने देश के लेखक विनम्र हैं और बवासीर, बदहज़मी आदि को छिपाने के क़ायल भी।

आज हिन्दी में धड़ल्ले के साथ नए-नए बढ़िया प्रकाशन और नए-नए विषय अपना रूप-रंग लेकर हज़ारों की तादाद में दिखलाई पड़ते हैं—वह इसलिए नहीं कि प्रकाशक उदार हो गया है; या उसकी रुचि परिष्कृत हो गई है, यह सब केवल इसलिये कि साहित्य का बाजार इन सबकी माँग करता है।

हिंदी में प्रेम के नाम पर लिखा बहुत कुछ जाता है पर उसका ताल्लुक़, ज़्यादातर, कर्तव्य, मोह या श्रद्धा से होता है

अँग्रेज़ी के प्रचुर ज्ञान और हिंदी के कामचलाऊ ज्ञान वाले लेखकों की एक नई भाषा विकसित हो रही है जिसमें ‘साहसिक’ का अर्थ पारंपरिक रूप से समुदी डाकू या लुटेरा नहीं, बल्कि ‘साहसपूर्ण’ है। ‘कारुणिक’ का अर्थ ‘करुणामय’ नहीं बल्कि ‘कारूण्य उत्पादक है’, ‘निर्भर है’ के बजाए ‘निर्भर करता है’ लिखा जाने लगा है और ‘शाप’, ‘नरक’ और ‘विरूप’ जैसे शब्दों को ‘श्राप’, ‘नर्क’ और ‘विद्रूप’ बना लिया गया है। अजब नहीं कि कुछ वर्षों बाद इस भाषा में ‘कृपया’ को ‘कृप्या’ लिखा जाने लगे।

भारतवासियों के अनुभवों को लिखने वाली, बताने वाली भाषा के रूप में हिंदी का विकास होना चाहिए।

हिन्दी के सूफी संतों ने लोककथाओं को अपने आदर्शों के लिए अपनाया। लोककथाओं को इस तरह अपनाने का उत्साह, हिन्दी के हिन्दू-भक्त कवियों में नहीं देखा गया।
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हेमचंद्र मध्यकालीन साहित्यिक संस्कृति के चमकते हुए हीरे हैं। विक्रम की बारहवीं शताब्दी में जैसी तेज़ आँख उनको प्राप्त हुई, वैसी अन्य किसी की नहीं। वस्तुतः वे हिंदी-युग के आदि आचार्य हैं।

यह शर्त, कि हिंदी-गद्य समझने के लिए अँग्रेज़ी की जानकारी हो—हमारे गद्य की सबसे बड़ी कमज़ोरी बनती जा रही है।

वास्तव में आजकल हिंदी का अधिकांश गद्य अँग्रेज़ीदाँ लोगों का है—अँग्रेज़ीदाँ लोगों द्वारा अँग्रेज़ीदाँ लोगों के लिए लिखा जा रहा है।

हम आधुनिक साहित्य की सबसे बड़ी विषयवस्तु थे, कथानक, प्रतीक और अर्थालंकार थे। 'आषाढ़ का एक दिन' हमारी विडम्बना को व्यक्त करने के लिए लिखा गया था।