शास्त्रीय वाङ्मय ही नहीं; रामायण, महाभारत, कालिदास, भवभूति और बाणभट्ट जैसे कतिपय महाकवियों को छोड़ दें, तो लगभग सारा का सारा संस्कृत साहित्य ही पुरुषवादी दृष्टि और पुरुष के वर्चस्व के आख्यान से रचा हुआ है।
किसी स्त्री ने न्यायसूत्र या वात्स्यायनभाष्य जैसा कोई शास्त्रग्रंथ रचा हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। उपनिषत्काल के बाद शास्त्रार्थ में स्त्री विस्मृत हाशिए पर है। किसी कोने से उसकी आवाज सुनाई देती है, पर वह जब कभी अपने अवगुंठन से बाहर निकल कर आती है तो एक विकट चुनौती सामने रखती है और दुरंत प्रश्न उठाती है।
चाहे कोई किसी भी धर्म का हो—यह स्वीकार किया जाता रहा है कि पत्नी; पति की सबसे आज्ञाकारी नौकरानी, उसकी बंधुआ मज़दूर होती है।
औरत पर संस्कृति का आतंक, हज़ारों साल पहले अग्नि-परीक्षा और चीरहरण जैसे प्रसंगों से स्थापित हो गया था।
धर्मशास्त्र में तीन ऋण बताए गए : देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण, पर मातृऋण भी हो सकता है—इस पर कहीं कोई विचार धर्मशास्त्रकारों ने नहीं किया।
संस्कृत के समाज में शास्त्रार्थ की शताब्दियों की परंपरा है; पर उसमें स्त्री की भूमिका पर बात कम हुई है, स्त्री की भूमिका भी कहीं है तो वह उपेक्षित रही है।
महिलाएँ अक्सर पुरुषों की तुलना में महिलाओं के साथ ज़्यादा सख़्त होती हैं। वे पुरुषों की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेती हैं और महिलाओं पर अत्याचार करने के लिए अपनी रणनीति अपनाती हैं—जिस तरह वरिष्ठ अपराधी, दूसरे दोषियों के पर्यवेक्षक बन जाते हैं।
पुरुष स्त्री-जाति को एक ओर से दबाता है, अज्ञान में रखता है, उसकी अवगणना और निंदा करता है।
सीता, तारा और मंदोदरी, पुरुषों के वर्चस्ववाले समाज में अपने वाणी की ऊर्जा से अपने लिए स्थान बनाती हैं।
जिन समाजों में नारी अपनी मुक्ति के लिए छटपटा रही थी, उनमें द्रौपदी को अपने लिए प्रेरणा और मुक्ति का प्रतीक माना गया।
स्त्री जाति के प्रति रखा गया तुच्छ भाव, हिंदू समाज में घुसी हुई सड़न है—धर्म का अंग नहीं है।
-
संबंधित विषय : महात्मा गांधीऔर 1 अन्य
उपनिषदों और महाभारत के काल के बाद सामंतीय समाज में, स्त्री की स्थिति निरंतर गौण होती गई।
सारे धर्मशास्त्र पुरुषों के द्वारा लिखे गए, सारी स्मृतियाँ पुरुषों की रची हुई हैं।