यात्रा पर उद्धरण
यात्राएँ जीवन के अनुभवों
के विस्तार के साथ मानव के बौद्धिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। स्वयं जीवन को भी एक यात्रा कहा गया है। प्राचीन समय से ही कवि और मनीषी यात्राओं को महत्त्व देते रहे हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में ध्वनित ‘चरैवेति चरैवेति’ या पंचतंत्र में अभिव्यक्त ‘पर्यटन् पृथिवीं सर्वां, गुणान्वेषणतत्परः’ (जो गुणों की खोज में अग्रसर हैं, वे संपूर्ण पृथ्वी का भ्रमण करते हैं) इसी की पुष्टि है। यहाँ प्रस्तुत है—यात्रा के विविध आयामों को साकार करती कविताओं का एक व्यापक और विशेष चयन।
कोई भी मार्ग छोड़ा जा सकता है, बदला जा सकता है : पथ-भ्रष्ट होना कुछ नहीं होता, अगर लक्ष्य-भ्रष्ट न हुए।
कभी-कभी थोड़ा पलायन बहुत स्वस्थ होता है।
मैंने अपनी कविता में लिखा है 'मैं अब घर जाना चाहता हूँ', लेकिन घर लौटना नामुकिन है; क्योंकि घर कहीं नहीं है।
मनुष्य दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, और अपना चलना बंद कर देता है।
यात्रा करना जितना कठिन और रोमांचक है, यात्रा की कल्पना शायद उतनी ही सरल और सुखद है।
अगर कवि की कोई यात्रा हो सकती है तो वह अवश्य ही किसी ऐसी जगह जाने की होगी जिसको वह जानता नहीं।
कभी-कभार मेरी कल्पना में ऐसी जगहें आती हैं जो दरअसल कहीं नहीं हैं या जिनके होने की सिर्फ़ संभावना है।
हम मात्र एक, ‘भटकन’ हैं, अपनी आत्मा के विशाल दृश्यों में कोई अर्थ ढूँढ़ते हुए।
मेरे पास जूते हैं, मुझे मेरे पैर लौटा दो।
यात्रा-साहित्य खोज और विश्लेषण से जुड़ा है। यह लेखक के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपनी यात्राओं में किन चीज़ों को महत्त्व देता है।
कहीं रास्ता भटक जाता हूँ तो घबराहट ज़रूर होती है, लेकिन यह भी लगता है कि अच्छा है इस रास्ते ने मुझे ठग लिया।
यात्राएँ अब भी हो सकती हैं इसी व्यर्थ जीवन में।
कैसा ही पथ क्यों न हो, उसका संबंध अनिवार्यतः मानव के साथ होता ही है।
पथ इस पृथ्वी पर मानव का पर्याय है।
होश में या अनजाने में मैंने ऐसे कई काम किए होंगे जो असत्य थे। लेकिन मैंने अपनी कविता में कभी भी कुछ भी असत्य नहीं कहा। यह वह अभयारण्य है, जहाँ मेरे जीवन के सबसे गहरे सत्य शरण पाते हैं।
यात्रा में जाने का सुख और लौटने का सुख होता। परंतु रेलगाड़ी में दुःख की भीड़ होती। दुःख किसी भी गाँव में ज़ंजीर खींचकर उतर जाता।