Font by Mehr Nastaliq Web

AI तुम वस्ल और हिज्र के लुत्फ़-ओ-ग़म को कैसे महसूस करोगे!

दुनियाभर के टीनएजर रूबिक्स क्यूब नाम की एक नई रंगीन पहेली में उलझे थे। डार्थ वेडर (स्टार वार्स फ़्रैंचाइज़ी में एक काल्पनिक चरित्र) एक जवान लड़के को उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा और सबसे कड़वा सच बता रहा था, ‘मैं ही तुम्हारा पिता हूँ’। हिंदुस्तान की गलियों में डिस्को का बुखार चढ़ा हुआ था—बप्पी दा के संगीत पर पैर थिरक रहे थे और हर कोई नज़िया हसन का ‘आप जैसा कोई मेरी ज़िंदगी में आए’ गुनगुना रहा था। पॉलिटिक्स वाले सिलेबस में सबसे बड़े चैप्टर्स में से एक, ‘भारतीय जनता पार्टी’ जुड़ रहा था। यह था साल 1980 और इसी साल—इन सब चकाचौंध, राजनीतिक गहमागहमी और शोर-शराबे से दूर—कैलिफ़ोर्निया की एक शांत यूनिवर्सिटी में, एक फिलॉसफ़र—जॉन सियरल (John Searle) अपने दिमाग़ में एक अलग ही चक्रव्यूह तैयार कर रहा था। एक ऐसा चक्रव्यूह, जो मशीनों की सोच पर अब तक का सबसे बड़ा सवाल खड़ा करने वाला था—‘द चाइनीज़ रूम आर्गुमेंट’।

इसे जॉन सियरल ने अपने शोध-पत्र ‘माइंड्स, ब्रेन्स, एंड प्रोग्राम्स’ में प्रस्तुत किया। यह पत्र महज़ एक अकादमिक लेख नहीं था, यह एक बौद्धिक चुनौती थी, जिसने एक ऐसी बहस को जन्म दिया जो आज दशकों बाद भी AI (आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस) और दर्शनशास्त्र के गलियारों में गूँजती है। इसे कॉग्निटिव साइंस के क्लासिक्स में गिना जाता है।

अब सवाल उठता है कि जॉन सियरल का मक़सद क्या था? दरअस्ल, वह उस समय की एक बेहद महत्त्वाकांक्षी परिकल्पना को चुनौती दे रहे थे, जिसे ‘स्ट्राॉन्ग AI’ कहा जाता है। यह परिकल्पना मानती थी कि यदि एक कंप्यूटर को सही ढंग से प्रोग्राम कर दिया जाए, तो वह केवल सोचने की नक़ल नहीं करेगा, बल्कि अंत में इंसानों की तरह ही एक ‘चेतना’ प्राप्त कर लेगा। यह एक तरह का पिग्मेलियन ड्रीम था—अपनी ही बनाई हुई रचना में चेतना के अंकुर फूटने की उम्मीद।

जॉन सियरल ने इसके सामने ‘वीक AI’ का विचार रखा। उनका मानना था कि कंप्यूटर इंसानी दिमाग़ को समझने के लिए एक उत्कृष्ट उपकरण हो सकता है, लेकिन ‘स्ट्राॉन्ग AI’ के विचार पर उन्हें गहरी आपत्ति थी। उनका तर्क था कि भविष्य में तकनीक कितनी भी उन्नत क्यों न हो जाए, एक प्रोग्राम कभी भी ‘समझ’ विकसित नहीं कर सकता। क्यों? क्योंकि प्रोग्राम मूल रूप से सिंटेक्स (syntax) यानी नियमों और प्रतीकों की एक प्रणाली है, सिमेंटिक्स (semantics) यानी ‘अर्थ’ की नहीं।

द चाइनीज़ रूम आर्गुमेंट

कल्पना कीजिए, आप एक बंद कमरे में बैठे हैं। आप चीनी भाषा से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। फिर चाहे मैंड्रिन हो या कैंटोनीज़। आपके पास कुछ चीनी सिंबल्स (symbols) हैं और एक बहुत मोटी रूल बुक है। इस किताब में लिखा है, “अगर बाहर से तुम्हें यह वाला चीनी सिंबल मिले, तो इसे फ़लाँ-फ़लाँ सिंबल के साथ जोड़ो और वो वाला नया सिंबल बाहर भेज दो।”

अब, बाहर एक चीनी आदमी खड़ा है, जो आपको काग़ज़ पर चीनी भाषा में सवाल लिख कर भेजता है। आप, बिना भाषा समझे, बस अपनी रूल बुक के हिसाब से सिंबल्स को मिलाते हैं और जवाब लिखकर बाहर भेज देते हैं। बाहर वाला आदमी आपका जवाब देखकर उछल पड़ता है, “अरे वाह! अंदर बैठा आदमी तो मुझसे भी अच्छी चीनी बोलता है!” लेकिन, क्या आप सच में चीनी भाषा समझ रहे थे? नहीं! आप तो बस एक ‘रोबोट’ की तरह नियमों का पालन कर रहे थे। नियम-पुस्तिका में लिखा है : ‘जब आपको 你好吗? (Nǐ hǎo ma?) लिखा हुआ कार्ड मिले, तो आपको जवाब में 我很好 (Wǒ hěn hǎo) लिखा हुआ कार्ड बाहर भेजना है। कमरे में बैठे व्यक्ति, यानि आपको यह नहीं पता कि पहले का मतलब ‘आप कैसे हैं?’ है और दूसरे का मतलब ‘मैं ठीक हूँ’। उसके लिए तो यह बस कुछ डिज़ाइनों का दूसरे डिज़ाइनों से मिलान करना है। वह सिर्फ़ नियम का पालन कर रहा है, भाषा को समझ नहीं रहा। 

सिंटेक्स बनाम सिमेंटिक्स

जॉन सियरल का तर्क था कि AI भी ठीक यही कर रहा है। वह सिंटेक्स (syntax) यानी नियमों और सिंबल्स (शब्दों) के खेल को तो समझता है, लेकिन सिमेंटिक्स (semantics) यानी उन सिंबल्स के पीछे के असली अर्थ को नहीं समझता। AI बस इनपुट (आपका सवाल) लेता है, अपने डेटाबेस (नियम-किताब) में पैटर्न मैच करता है, और अगला सबसे संभावित आउटपुट (जवाब) देता है। नियम-पुस्तक अस्ल में एक मशीन द्वारा फ़ॉलो किया जाने वाला प्रोग्राम या एल्गोरिथम है।

जॉन सियरल का फ़ेमस कोट है : “सिंटेक्स सिमेंटिक्स के लिए काफ़ी नहीं है।” वह आगे कहते हैं, “फ़ॉर्मल सिंबल मैनिपुलेशन में ख़ुद कोई इरादा नहीं होता। वे पूरी तरह से बेमानी होते हैं। वे सिंबल मैनिपुलेशन भी नहीं होते, क्योंकि सिंबल कुछ भी सिंबलाइज़ नहीं करते। भाषा विज्ञान की दृष्टि से, उनमें सिर्फ़ सिंटेक्स होता है लेकिन कोई सिमेंटिक्स नहीं होता।”

यहाँ पर ‘फॉर्मल सिंबल मैनिपुलेशन’ मने, नियमों के आधार पर चिह्नों (सिंबल्स) को इधर-उधर करना। जैसे जब कैशियर आपके सामान का बारकोड (एक तरह का सिंबल) स्कैन करता है, तो कंप्यूटर उस काले-सफ़ेद पैटर्न को पढ़ता है। कंप्यूटर का कोई ‘इरादा’ नहीं है कि वह बिस्कुट या साबुन को पहचाने। उसका काम बस उस पैटर्न को अपनी मेमोरी में मौजूद दूसरे पैटर्न से मिलाना और स्क्रीन पर एक नाम और क़ीमत दिखा देना है। यह एक स्वचालित क्रिया है, जिसमें कंप्यूटर की अपनी कोई सोच या इरादा शामिल नहीं है। वह बस अपना प्रोग्राम चला रहा है।



C-3PO, Star Wars का रोबोट, हज़ारों भाषाओं में बात करता है। पर क्या वह किसी भाषा का ‘भाव’ समझता है, या बस अनुवाद करता है? C-3PO को छह मिलियन से ज़्यादा तरह के कम्युनिकेशन में फ़्लुएंट बताया गया है। क्या वह क्रमशः वस्ल और हिज्र के लुत्फ़ और ग़म को महसूस करता है, या वह सिर्फ़ सिंटैक्टिक नियमों के आधार पर अनुवाद कर रहा है? जॉन सियरल का पॉइंट यही है : शानदार परफ़ॉरमेंस, लेकिन सच्ची समझ की कमी

वह कौन-सी तो मूवी थी गोविंदा-करिश्मा की, जिसमें हर प्रोफ़ेशन की ड्रेस में गोविंदा की एक तस्वीर उसके घर में टंगी थी। शायद राजा बाबू। वाह! क्या एक्टिंग कर रहा है…

~~~

अगली बेला में जारी...

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

25 अक्तूबर 2025

लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में

25 अक्तूबर 2025

लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में

हमारे यहाँ अनेक लेखक हैं, जो अध्यापन करते हैं। अनेक ऐसे छात्र होंगे, जिन्होंने क्लास में बैठकर उनके लेक्चरों के नोट्स लिए होंगे। परीक्षोपयोगी महत्त्व तो उनका अवश्य होगा—किंतु वह तो उन शिक्षकों का भी

06 अक्तूबर 2025

अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव

06 अक्तूबर 2025

अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव

एक पहलवान कुछ न समझते हुए भी पाँड़े बाबा का मुँह ताकने लगे तो उन्होंने समझाया : अपने धर्म की व्यवस्था के अनुसार मरने के तेरह दिन बाद तक, जब तक तेरही नहीं हो जाती, जीव मुक्त रहता है। फिर कहीं न

27 अक्तूबर 2025

विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना

27 अक्तूबर 2025

विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना

दादा (विनोद कुमार शुक्ल) से दुबारा मिलना ऐसा है, जैसे किसी राह भूले पंछी का उस विशाल बरगद के पेड़ पर वापस लौट आना—जिसकी डालियों पर फुदक-फुदक कर उसने उड़ना सीखा था। विकुशु को अपने सामने देखना जादू है।

31 अक्तूबर 2025

सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना

31 अक्तूबर 2025

सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना

सिट्रीज़ीन—वह ज्ञान के युग में विचारों की तरह अराजक नहीं है, बल्कि वह विचारों को क्षीण करती है। वह उदास और अनमना कर राह भुला देती है। उसकी अंतर्वस्तु में आदमी को सुस्त और खिन्न करने तत्त्व हैं। उसके स

18 अक्तूबर 2025

झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना

18 अक्तूबर 2025

झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना

मेरा जन्म झाँसी में हुआ। लोग जन्मभूमि को बहुत मानते हैं। संस्कृति हमें यही सिखाती है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, इस बात को बचपन से ही रटाया जाता है। पर क्या जन्म होने मात्र से कोई शहर अपना ह

बेला लेटेस्ट