युद्ध इसी मेज़ पर शुरू हुए हैं और समाप्त भी । यह आतंक की परछाईं से छिपने की सटीक जगह है। एक भयावह जीत का जश्न मनाने की जगह भी।
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शायद यह संसार रसोई की मेज़ पर ही समाप्त होगा, जबकि हम हँसते और रोते होंगे, और निश्चिन्तता से अपना अंतिम मीठा निवाला खाते होंगें।
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हमने अपनी संतानों को इसी मेज़ पर जन्म दिया है और यहीं अपने माता-पिता को विदा करने से पूर्व तैयार भी किया है।
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हमारी महत्वाकांक्षाएँ हमारे साथ यहाँ कॉफ़ी पीती हैं और अपनी बाहें हमारे बच्चों के गले में डाल देती हैं । वे हमारे गिरते-पड़ते बेचारे स्वरूपों पर हमारे साथ हँसती हैं और हम एक बार पुनः स्वयं को मेज़ पर स्थापित पाते हैं।
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यह मेज़ बारिश के दिनों में घर रही है और धूप में एक छाता।
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