लोकतंत्र पर उद्धरण
लोकतंत्र जनता द्वारा,
जनता के लिए, जनता का शासन है। लोकतंत्र के गुण-दोष आधुनिक समय के प्रमुख विमर्श-विषय रहे हैं और इस संवाद में कविता ने भी योगदान किया है। प्रस्तुत चयन ऐसी ही कविताओं का है।
विरोधी से भी सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। देखो न, प्रत्येक बड़े नेता का एक-एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना-अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतंत्र का सिद्धांत है।
जहाँ पर बहुमतवाले; अल्पमतवालों को मार डालें, वह तो ज़ालिम हुकूमत कहलाएगी। उसे स्वराज्य नहीं कहा जा सकता।
लोकतांत्रिक चुनावों का सारा मक़सद; बड़ी-बड़ी समस्याओं पर मतदाताओं के विचार को समझना, और मतदाताओं को उनके प्रतिनिधियों को चुनने की ताक़त प्रदान करना है।
संसद को संविधान का दुश्मन मानकर आप संविधान की रक्षा कैसे कर सकते हैं? जनता को जनतंत्र का दुश्मन मान लिया जाए, तो फिर जनतंत्र की रक्षा कैसे होगी?
आज़ाद हिंदुस्तान में सारे देश पर जनता का अधिकार है।
राजा प्रजा का सबसे आला दर्जे का सेवक होता है।
जन्तंत्र में इस बात की आवश्यकता है कि जो क्रांति हो, वह केवल जनता के लिए न हो, 'जनता की क्रांति', 'जनता के द्वारा' हो। आज क्रांति भी जनतांत्रिक होनी चाहिए, अन्यथा दुनिया में जनतंत्र की कुशल नहीं है। क्रांति की प्रक्रिया ही जनतांत्रिक होनी चाहिए।
लोकतंत्र का अर्थ अब एकछत्र सत्ता हो गया है, अभिव्यक्ति के मायने हैं प्रतिध्वनि, और अधिकार का नया समकालीन अर्थ है संकोच।
जमहूरियत में अगर लोगों को मध्य हकूमत की रस्सी में बाँधा जाए तो टूट पड़ेंगे। वे एतबार करने से ही बढ़ सकते हैं।
लोकतंत्र में हमें जीतना तो आना ही चाहिए, साथ ही गरिमा के साथ हार को स्वीकार करना भी आना चाहिए।
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मौजूदा जनतंत्रात्मक प्रणाली द्वंद्व-प्रणाली है।
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जनतंत्र वह हैं जिसमें रास्तें चलने वाला जो बोले वह भी सुना जाए।
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लोकतंत्र इसी पर टिका है कि लोग देश के मुद्दों पर सक्रिय होकर और अक़्लमंदी से जुड़ाव रखें, और चुनावों में हिस्सा लें—जिसका परिणाम सरकारों के गठन के रूप में सामने आता है।
अराजक देश में शीघ्रगामी वाहन और यानों पर स्त्री-पुरुष वन में घूमने नहीं जा सकते।
सबको ऑक्सीजन चाहिए, सिर्फ़ जीते रहने या स्वस्थ बने रहने के लिए नहीं, सोचने और फ़ैसले लेने के लिए भी।
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जनतंत्र सदैव ही संकेत से बुलाने वाली मंजिल है, कोई सुरक्षित बंदरगाह नहीं। कारण यह है कि स्वतंत्रता एक सतत प्रयास है, कभी भी अंतिम उपलब्धि नहीं।
'प्रत्येक को वोट' जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निष्कर्ष है वैसे ही 'प्रत्येक का काम' यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड है।
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विरलों के सहारे कोई लोकतंत्र अपनी सेहत की रक्षा नहीं कर सकता। लोकतंत्र एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें मनुष्य अपने दिमाग़ को टटोल-टटोलकर आगे बढ़ता है और सम्मोहन से बचता है, प्रचार से परहेज करता है। ऐसा मनुष्य ख़ुद सोचने में यक़ीन करता है, इसलिए पढ़ने को रोज़ नहाने जैसी ज़रूरत बना लेता है।
निस्संदेह सशक्त सरकार और राजभक्त जनता से उत्कृष्ट राज्य का निर्माण होता है। परंतु बहरी सरकार और गूँगे लोगों से लोकतंत्र का निर्माण नहीं होता।
कोई भी मनुष्य की बनाई हुई संस्था ऐसी नहीं है, जिसमें ख़तरा न हो। संस्था जितनी बड़ी होगी, उसके दुरूपयोग की संभावनाएँ उतनी ही बड़ी होंगी। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है, इसलिए उसका दुरूपयोग भी बहुत हो सकता है।
कोई भी लोकतंत्र अभाव, ग़रीबी और असमानता के साथ लंबे अरसे तक नहीं चल सकता।
लोकतंत्र लोक-कर्त्तव्य के निर्वाह का एक साधन मात्र है। साधन की प्रभाव क्षमता लोकजीवन में राष्ट्र के प्रति एकात्मकता, अपने उत्तरदायित्व का भान तथा अनुशासन पर निर्भर है।
समाज की गति के संचालन का कार्य जो शक्ति करती है, वह मुख्यतः प्रतिबंधक नियमों पर बल देती है।
जनतंत्र का उद्भव मनुष्यों के इस विचार से हुआ कि यदि वे किसी अंश में समान हैं तो वे पूर्ण रूप से समान हैं।
कई लोग भारत में भी चाहते हैं कि हम सबको ठेलकर ऐसे कारीगर आएँ, जो रामराज्य रचकर हमारे हाथों में सौंप जाएँ। लेकिन जैसे पाकिस्तान में लोकतंत्र की भवन-सामग्री का टोटा है, उसी तरह भारत में तानाशाही की भवन-सामग्री का टोटा है। लोक से बचकर कोई तंत्र आज के ज़माने में ज़्यादा दिन चल नहीं सकता, लेकिन हाथीदाँत के महल के किसी भी सपने को तो एक बेमतलब फ़ैंटेसी मानकर छोड़ा जा सकता है।
जनतंत्र में एक मतदाता का अज्ञान सबकी सुरक्षा को संकट में डाल देता है।
लोकतंत्र लगातार इस तरह जीता है जैसे जोश और आशंका के बीच लोगों को झुलाते रहना ही राजनैतिक जागृति की निशानी हो।
सत्ता को निरंकुश नियंत्रण से बचाना चाहिए।
बाहरी नियंत्रणों के तनाव में लोकतंत्र टूट जाएगा।
कतिपय भ्रष्ट व्यक्तियों के द्वारा नियुक्ति के स्थान पर जनतंत्र में अनेक अयोग्यों द्वारा चुनाव होता है।
शिकार करना दिमाग़ी खेल है, सिर्फ़ ताक़त नहीं।
स्कूल में पढ़ा हुआ लोकतंत्र किसी सपने की तरह उड़ गया है और लाख कोशिश करने पर भी याद कर पाना मुश्किल लग रहा है कि वह सपना बचपन की नींद से उपजा था या इतिहास से।
घबराहट का वक़्त है, इसे लोकतंत्र का उत्सव कहने वाला ज़रूर कोई घटिया कवि होगा।
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