स्वामी विवेकानन्द के उद्धरण
कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते—यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते।
जहाँ कहीं महानता, हृदय की विशालता, मन की पवित्रता एवं शांति पाता हूँ, वहाँ मेरा मस्तक श्रद्धा से नत हो जाता है।
हिंदू मस्तिष्क का झुकाव; सदा निगमनीय अथवा साधारण सत्य के सहारे विशेष सत्य तक पहुँचने की ओर रहा है, न कि आगमनिक अथवा विशेष सत्य के सहारे साधारण सत्य की ओर।
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यदि कोई नैष्कर्म्य एवं निर्गुणत्व को प्राप्त करना चाहता है, तो उसे अपने मन में किसी प्रकार का जाति-भेद रखना हानिकर है।
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परमात्मा की कृपा पर मेरा अखंड विश्वास है। वह कभी टूटनेवाला भी नहीं। धर्मग्रंथों पर मेरी अटूट श्रद्धा है।
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हमारे देश के लोगों में न विचार है, न गुणग्राहकता। इसके विपरीत एक सहस्त्र वर्ष के दासत्व के स्वाभाविक परिणामस्वरूप; उनमें भीषण ईर्ष्या है और उनकी प्रकृति संदेहशील है, जिसके कारण वे प्रत्येक नए विचार का विरोध करते हैं।
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भारत के सभी समाज-सुधारकों ने; पुरोहितों के अत्याचारों और अवनति का उत्तरदायित्व, धर्म के मत्थे मढ़ने की एक भयंकर भूल की और एक अभेद्य गढ़ को ढहाने का प्रयत्न किया।
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जहाँ तक आध्यात्मिकता का प्रश्न है; अमेरिका के लोग हमसे अत्यंत निम्न स्तर पर हैं, परंतु इनका समाज हमारे समाज की अपेक्षा अत्यंत उन्नत है। हम इन्हें आध्यात्मिकता सिखाएँगे और इनके समाज के गुणों को स्वयं ग्रहण करेंगे।
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न तो मैं केवल दृश्य देखने वाला यात्री हूँ, न निरुद्योगी पर्यटक।
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संबंधित विषय : सौंदर्य
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पुरोहितगण चाहे कुछ भी बकें; वर्ण-व्यवस्था केवल एक सामाजिक विधान ही है, जिसका काम हो चुका। अब तो वह भारतीय वायुमंडल में दुर्गंध फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करती।
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वेदों में जो कर्मवाद है, वही यहूदी तथा अन्य धर्मों में भी है अर्थात् यज्ञ तथा अन्य बाह्य आचरणों द्वारा अंतःकरण की शुद्धि। इसका विरोध सबसे पहले भगवान् बुद्ध ने ही किया।
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हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुए सूर्य के समान है, और एक मनुष्य से दूसरे का अंतर केवल यही है कि कहीं सूर्य के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला।
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भारत का सदैव यही संदेश रहा है। आत्मा प्रकृति के लिए नहीं, वरन् प्रकृति आत्मा के लिए है।
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‘विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है।’ जहाँ यह स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ व्यक्ति, जाति, राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी।
वह संन्यासी; जिसमें मनुष्यों के कल्याण करने की कोई इच्छा नहीं—वह संन्यासी नहीं, वह तो पशु है।
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संबंधित विषय : मनुष्य
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हिंदुओं की यह धारणा है कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है; किंतु जिसका केंद्र शरीर में अवस्थित है और मृत्यु का अर्थ है—इस केंद्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित हो जाना।
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एकांगी भाव ही जगत् के लिए अनिष्टकर वस्तु है। तुम अपने अंदर जितने विविध पक्षों को विकसित कर सकोगे, उतनी ही आत्माएँ तुमको उपलब्ध होंगी और जगत को तुम समस्त आत्माओं के माध्यम से—कभी भक्त के, कभी ज्ञानी माध्यम से देख सकोगे।
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तुम्हारे ऊपर जो प्रकाश है, उसे पाने का एक ही साधन है—तुम अपने भीतर का आध्यात्मिक प्रदीप जलाओ, पाप और अपवित्रता का तमिस्त्र स्वयं भाग जाएगा। तुम अपनी आत्मा के उदात्त रूप का चिंतन करो, गर्हित रूप का नहीं।
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संबंधित विषय : प्रकाश
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यदि कोई सामाजिक बंधन तुम्हारे ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधक है, तो आत्मशक्ति के सामने अपने आप ही टूट जाएगा।
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संबंधित विषय : समाज
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संघर्ष को विकास का चिन्ह मानना तुम्हारी बड़ी भूल है। बात ऐसी कदापि नहीं है। आत्मसात्करण ही उसका चिन्ह है। हिंदू धर्म आत्मसात्करण की प्रतिभा का ही नाम है।
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संबंधित विषय : संघर्ष
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पहले अपने में अंतर्निहित आत्मशक्ति को जाग्रत करो, फिर देश के समस्त व्यक्तियों में जितना संभव हो, उस शक्ति के प्रति विश्वास जमाओ।
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न पाप है, न पुण्य है, सिर्फ़ अज्ञान है। अद्वैत की उपलब्धि से यह अज्ञान मिट जाता है।
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आप अँग्रेज़ों से नेताओं की आज्ञा का तुरंत पालन, ईर्ष्याहीनता, अथक लगन और अटूट आत्मविश्वास की शिक्षा प्राप्त करें। जब वह किसी काम के लिए एक नेता चुन लेता है, तो अँग्रेज़ हार-जीत में सदा उसका साथ देता है और उसकी आज्ञा का पालन करता है।
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