मोक्ष पर उद्धरण
भारतीय दर्शन में दुखों
की आत्यंतिक निवृत्ति को मोक्ष कहा गया है। मोक्ष प्राप्ति को जीवन का अंतिम ध्येय माना गया है ,जहाँ जीव जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पा लेता है। अद्वैत दर्शन में ‘अविद्या: निवृत्ति: एव मोक्ष:’ की बात कही गई है। ज्ञान और भक्ति दोनों को ही मोक्ष का उपाय माना गया है। बौद्ध और जैन जैसी अवैदिक परंपराओं में भी मोक्ष की अवधारणा पाई जाती है। बुद्ध ने इसे ‘निर्वाण’ कहा है।

मौन से समृद्ध कुछ नहीं है। मौन में समस्त कोलाहल मोक्ष पा जाते हैं।

धनी हो या दरिद्र, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष (जैसा भी हो), मित्र परम गति है।

हे अर्जुन! सर्दी-गर्मी और सुख:दुख को देने वाले इंद्रियों और विषयों के संयोग तो क्षणभंगुर और अनित्य हैं, इसीलिए उनको तू सहन कर, क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते, वह मोक्ष के लिए योग्य होता है।

मोक्ष ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

भव-पीड़ा के आधारभूत अज्ञान के हटने के लिए मोक्ष-प्राप्ति के आधारभूत तत्त्व के दर्शन को ही 'ज्ञान' कहते हैं।

वेदवेत्ता विद्वान तप से ही परम अमृत मोक्ष को प्राप्त होते हैं।


न तो अकिंचनता (दरिद्रता) में मोक्ष है और न किंचनता (संपन्नता) में बन्धन ही है। धन और निर्धनता दोनों ही अवस्थाओं में ज्ञान से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

हमें न चाहिए मुक्ति, जन्म भारत में पावैं।

यह समझकर कि शरीर बड़ा धोखेबाज़ है, इसी क्षण मोक्ष की तैयारी करें।
