
स्त्रियों को सरकार के विचार-विमर्श में बिना किसी प्रत्यक्ष हिस्सेदारी के मनमाने ढंग से शासित किए जाने के बजाय उनके प्रतिनिधि सरकार में होने चाहिए।

समस्त अत्याचारी सरकारें एक दूसरे का उपकार करने के लिए सदा तैयार रहती ही हैं।

किसी सरकार या पार्टी को वे लोग मिलते हैं, जिनके वे हक़दार होते हैं और जल्द या बाद में लोगों को वह सरकार मिलती है, जिसके वे हक़दार होते हैं।

जो सरकार अपने क़ानून तोड़ देती है, वह आपको भी आसानी से तोड़ सकती है।

भविष्य परमेश्वर के हाथ में है, सरकार के हाथ में नहीं है।

जब मैं विदेश में रहता हूँ, तो मेरा यह नियम है कि अपने देश की सरकार की आलोचना या उस पर प्रहार नहीं करता। जब मैं स्वदेश वापस आता हूँ तो खोए समय की कमी पूरी कर लेता हूँ।

सत्तातंत्र द्वारा तथाकथित ‘सांस्कृतिक विकास’ के नाम पर संस्कृति को संरक्षण दिए जाने के ख़तरे स्पष्ट हैं।

सरकारी व्यवस्था में काम करने वाले लोग, ताक़त के ऊँचे पदों तक पहुँचने से बहुत पहले ही मान लेते हैं कि कोई बड़ा परिवर्तन करना संभव नहीं है।

हिंसा की भूख और प्यास बढ़ाना सत्ता का कर्तव्य बन गया है।

प्राण लेने का अधिकार तो ईश्वर को है। सरकार की तोप बंदूक़ें हमारा कुछ नहीं कर सकतीं।

जनता ग़रीबी से उबरने का रास्ता पूछती है, सरकार उसके हाथ में 'निरोध' का पैकेट थमा देती है।
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निस्संदेह सशक्त सरकार और राजभक्त जनता से उत्कृष्ट राज्य का निर्माण होता है। परंतु बहरी सरकार और गूँगे लोगों से लोकतंत्र का निर्माण नहीं होता।

संस्कृति के उदात पक्षों के संरक्षण और उसके स्वस्थ विकास में, उपर्युक्त ख़तरों के बावजूद, सत्ता की एक निश्चित भूमिका है। पर विकृति वहाँ से शुरू होती है जब सत्तातंत्र और उसका एक विशिष्ट पुर्जा, यानी नौकरशाही अपने को संस्कृति का शास्ता और उद्धारक मानने लगती है और यह तय करने लगती है कि किसे उभारा जाए और किसे पछाड़ा जाए।

सत्तातंत्र कोई काम केवल ‘करणीयता के कारण ही कार्य है’—के सिद्धांत पर कार्य नहीं करता।


शराबियों की सरकार शराबबंदी नहीं करेगी। उसे अपनी आमदनी की चिंता है। शराब तो हमें ही बंद करनी होगी। इसके लिए शराब पीने वालों का बहिष्कार कीजिए।

उपाय अंततः वही अधिक सार्थक होगा जिसमें सरकारी प्रशासन से आत्मानुशासन के मूल्य पर अधिक बल हो।
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जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता की सरकार।

शराब पीने वाले का, पिलाने वाली सरकार का हमें बहिष्कार करना चाहिए।