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वासना पर उद्धरण

प्रेम में कामासक्ति की मूल प्रेरणा होते हुए भी उसका अपना स्वरूप और अपना अस्तित्व है।

विजयदान देथा

युग-युगांतर से रति काव्यसृजन का केंद्रीय विषय रहा है।

मैनेजर पांडेय

कामासक्ति में केवल मैथुन की ही एकमात्र अपेक्षा रहती है और क्रिया के पश्चात भी प्रेम उत्पन्न नहीं होता, बल्कि अरुचि, ग्लानि जैसी हीन भावनाएँ पैदा होती हैं।

विजयदान देथा

संसार में अधिकांश दुष्कर्म, व्यक्तिगत आसाक्ति के कारण ही किए गए हैं।

स्वामी विवेकानन्द

मनुष्य के जीवन में ‘काम’ के साथ ‘काम्य’ का विचार सहज हैं : हर काम को हमारा विमर्श-बोध ‘यह काम्य है या नहीं’ इस परख की कसौटी पर देखने की चाह रखता है। ‘काम्य’ में ‘श्रेयस्’ का बोध उभरता है।

मुकुंद लाठ

जिस वासना की धरती पर कथा-लोक की जड़ है, वह धर्म की भी धरा है। कथा में भाव ही नहीं, कर्म भी होता है। बिना इतिवृत्त, चरित, या दूसरे में बिना कर्म के कथा नहीं हो सकती।

मुकुंद लाठ

वासना विवेक का आधार बन सकती है; पर वह आधार अपने स्वरूप में ही व्यंजना को पालता है, अपने संकेत को ध्वनित करता है, बुद्धि की तरह परिनिष्ठित कोटियाँ नहीं बनाता, उस तरह से कसा जा सकता है।

मुकुंद लाठ

वासना जिस तरह बाहर के अँधेरे में घुमाती है, इच्छा भी वैसे ही भीतर के अँधेरे में घुमाकर मारती है और अंत में मजूरी के समय धोखा देती है।

रवींद्रनाथ टैगोर

मनुष्य की हृदयभूमि में मोह रूपी बीज से उत्पन्न हुआ एक विचित वृक्ष है जिसका नाम है काम। क्रोध और अभिमान उसके महान स्कंध हैं। कुछ करने की इच्छा उसमें जल सींचने का पात्र है। अज्ञान उसकी जड़ है, प्रमाद ही उसे सींचने वाला जल है, दूसरे के दोष देखना उस वृक्ष का पत्ता है तथा पूर्वजन्म के किए गए पाप उसके सार भाग है। शोक उसकी शाखा, मोह और चिंता डालियाँ एवं भय उसका अँकुर है। मोह में डालने वाली तृष्णा रूपी लताएँ उसमें लिपटी हुई है।

वेदव्यास

जिसके मन में वासना होती है, वह केवल उसी वासना के विषय में आसक्त होता है, बाक़ी सभी विषयों के प्रति वह उदासीन होता है। सिर्फ़ उदासीन ही नहीं, बल्कि निष्ठुर भी।

रवींद्रनाथ टैगोर

काव्य-जगत् में आकर प्रत्येक शब्द हमारे उन भावों को जागृत करता है, जो वासना रूप में हममें निहित रहते हैं।

श्यामसुंदर दास

स्वप्न के समान सारहीन तथा सबके द्वारा उपभोग्य कामसुख से अपने चंचल मन को रोको, क्योंकि जैसे वायु प्रेरित अग्नि की हव्य पदार्थों से तृप्ति नहीं होती, वैसे ही लोगों को कामोपभोग से कभी तृप्ति नहीं होती।

अश्वघोष

कवि को अपने कार्य में अंतःकरण की तीन वृत्तियों से काम लेना पड़ता है—कल्पना, वासना और बुद्धि। इनमें से बुद्धि का स्थान बहुत गौण है। कल्पना और वासनात्मक अनुभूति ही प्रधान है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

कामभोगों से कभी तृप्ति नहीं होती, जैसे जलती अग्नि की आहुतियों से तृप्ति नहीं होती। जैसे-जैसे कामसुखों में प्रवृत्ति होती जाती है, वैसे-वैसे विषय-भोगों की इच्छा बढ़ती जाती है।

अश्वघोष

द्रौपदी का पातिव्रत्य झूठा नहीं, किंतु उसकी वासनाएँ, उसकी प्रणय भावनाएँ अत्यंत स्वयंशासित थीं।

दुर्गा भागवत

वासना का लक्ष्य जैसे बाहर के विषय होते हैं, इच्छा का लक्ष्य वैसे ही भीतरी प्रयोजन होते हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर

सत्काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में प्रवीणता, कलाओं में प्रवीणता, आनंद यश प्रदान करती है।

भामह

काम अर्थात् विषय-भोगों से श्रद्धा करो तो वे ठगते हैं। प्रेम करो तो वे हानि पहुँचाते हैं। छोड़ना चाहो तो छूटते नहीं। वे कष्टप्रद शत्रु हैं।

भारवि

काम से पीड़ित लोग जड़-चेतन पदार्थों के संबंध में स्वभावतः विवेकशून्य हो जाया करते हैं।

कालिदास

प्रेम का संबंध काम प्रवृत्ति से इतना नहीं जितना समाज में प्रचलित काम-संबंधों से है।

विजयदान देथा

भोग ही प्रेम का एकमात्र लक्षण नहीं है।

रवींद्रनाथ टैगोर

वासना मानव के रूप में हममें निहित एक जगत्-बोध है, जिसका प्रकाश साहित्य में, विशेषकर कथा-साहित्य में हम पा सकते हैं। यह बोध मानव-प्रवृत्ति की ओर उन्मुख ऐसा बोध है, जो हमारे भाव और कर्म के औचित्य को एक अपनी सी दिशा देता है।

मुकुंद लाठ

काम-क्रोध से तपस्या भंग हो जाती है, तपस्या का फल क्षण-भर में नष्ट हो जाता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

लोभ, पाप एवं झूठ, ये तीनों ही अपने नायब कामवासना को बुलाकर उसकी सलाह लेते हैं। सभी मिल-बैठकर बुरे दाव-पेंच सोचते हैं।

गुरु नानक

कामवासना या अन्य प्रकार के सुख की स्मृति प्रेम नहीं हैं। सद्गुण को विकसित करने का तथा महान बनने का निरंतर प्रयास भी प्रेम नहीं है।

जे. कृष्णमूर्ति

काम-प्रवृत्ति से उत्पन्न होने पर भी प्रेम काम-भावना से सर्वथा एक भिन्न वस्तु है।

विजयदान देथा

वासनाओं का पथ गोल है।

ओशो

कामदेव के बाण पहले तो विनय आदि को तोड़ते हैं, फिर मर्मस्थानों को।

बाणभट्ट

वासना-निष्ठ प्रज्ञा, प्रवृत्ति की प्रज्ञा है—निवृत्ति की नहीं।

मुकुंद लाठ

मनुष्य अपने को जितना व्यापक बनाता रहता है, उतना ही उसका अहंकार और वासनाओं के बंधन कटते जाते हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर

मनुष्य का अंतर्जगत वासनाओं, भावनाओं और अनुभूतियों से संपन्न होता है। वह समाज और संस्कृति के विकास से क्रमशः समृद्धतर होता है।

मैनेजर पांडेय