वियोग
लाल लली ललि लाल की, लै लागी लखि लोल।
त्याय दे री लय लायकर, दुहु कहि सुनि चित डोल॥
लाल को लली से और लली को लाल से मिलने की इच्छा है। दोनों मुझे कहते हैं, अरी तू उससे मुझे मिलाकर विरहाग्नि को शांत कर। इनकी बातें सुनते-सुनते मेरा भी चित्त विचलित हो गया है।
बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।
मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥
विरहिणी कहती है कि विरह में जलती हुई मैं सरोवर (या जल-स्थान)
के पास गई। वहाँ मैंने देखा कि मेरे विरह की आग से जलाशय भी जल रहा है। हे संतो! बताइए मैं अपनी विरह की आग को कहाँ बुझाऊँ?
जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।
मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥
यदि आत्मारूपी विरहिणी प्रिय के वियोग में रोती है, तो उसकी शक्ति क्षीण होती है और यदि हँसती है, तो परमात्मा नाराज़ हो जाते हैं। वह मन ही मन दुःख से अभिभूत होकर चिंता करती है और इस तरह की स्थिति में उसका शरीर अंदर−अंदर वैसे ही खोखला होता जाता है, जैसे घुन लकड़ी को अंदर−अंदर खा जाता है।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥
रात के समय में अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई चकवी (एक प्रकार का पक्षी) प्रातः होने पर अपने प्रिय से मिल गई। किंतु जो लोग राम से विलग हुए हैं, वे न तो दिन में मिल पाते हैं और न रात में।
पिय-सङ्गमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व।
मइँ विन्नि वि विन्नासिआ निद्द न एम्व न तेम्व॥
प्रिय के संगम में नींद कहाँ! प्रिय के वियोग में भी नींद कैसी! मैं दोनों ही प्रकार विनष्ट हुई; नींद न यों न त्यों।
हृदय कूप, मन रहँट, सुधि-माल, रस राग।
बिरह बृषभ, बरखा नयन, क्यों न सिंचै तन-बाग॥
सुंदर बिरहनि अति दुखी, पीव मिलन की चाह।
निस दिन बैठी अनमनी, नैननि नीर प्रबाह॥
मुकता सुख-अँसुआ भए, भयौ ताग उर-प्यार।
बरुनि-सुई तें गूँथि दृग, देत हार उपहार॥
अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
प्रियतम का रास्ता देखते-देखते आत्मा रूपी विरहिणी की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा है। उसकी दृष्टि मंद पड़ गई है। प्रिय राम की पुकार लगाते-लगाते उसकी जीभ में छाले पड़ गए हैं।
दादू इस संसार में, मुझ सा दुखी न कोइ।
पीव मिलन के कारनैं, मैं जल भरिया रोइ॥
ना बहु मिलै न मैं सुखी, कहु क्यूँ जीवनि होइ।
जिनि मुझ कौं घाइल किया, मेरी दारू सोइ॥
इस संसार में मेरे जैसा कोई दु:खी नहीं है। प्रियतम की विरह-वेदना के कारण, रोते-रोते मेरे नेत्र हमेशा अश्रुओं से भरे रहते हैं। न वे (प्रियतम) मिलते हैं, न मैं सुखी होती हूँ। फिर मेरा जीना कैसे संभव हो सकेगा? जिन्होंने अपने विरह-बाण से मुझे घायल किया है, वही ब्रह्म (उनका साक्षात्कार) मेरी औषधि हैं। अर्थात् वही मेरी वेदना को दूर करने वाले हैं।
बिरहारति तें रति बढ़ै, पै रुचि बढन न कोय।
प्यासो ज़ख्मी जिए तहूँ, लह्यो न त्यागें तोय॥
विरह की पीड़ा से प्रेम बढ़ता है, पर इस तरह (विरह सहकर) प्रेम को बढ़ाने की रुचि किसी की भी नहीं होती। वैसे ही जैसे प्यासा घायल यह जानते हुए भी कि वह तभी जीवित रहेगा जब वह पानी न पिए, पर प्राप्त जल को वह नहीं त्याग पाता।
पीव पुकारै बिरहणीं निस दिन रहै उदास।
रांम रांम दादू कहै, तालाबेली प्यास॥
विरहिणी अत्यंत बेचैनी और दर्शनों की लालसा से अपने प्रियतम को पुकार रही है। दादू कहते हैं कि वह रात-दिन राम-राम रटती हुई दर्शन की प्यास में खिन्न बनी रहती है।
वदन सीतल चंद्रमां, जल सीतल सब कोइ।
दादू बिरही रांम का, इन सूं कदे न होइ॥
चंदन, चंद्रमा और जल की प्रकृति शीतल होती है। इनसे सर्प, चकोर और मीन को असीम तृप्ति (शांति) मिलती है। लेकिन जो ब्रह्म-वियोगी हैं, उन्हें इन पदार्थों से शांति (तृप्ति) नहीं मिल सकती है।
अम्बणु लाइवि जे गया पहिअ पराया के वि॥
अवस न सुअहिँ सुहच्छिअहि जिवं अम्हइँ तिवं ते वि॥
प्रीत लगाकर जो कोई बटोही पराए की तरह चले गये वे भी अवश्य ही सुख की सेज पर न सोते होंगे, जैसे हम हैं वैसे वे भी।
चंपा हनुमत रूप अलि, ला अक्षर लिखि बाम।
प्रेमी प्रति पतिया दियो, कह जमाल किहि काम॥
उस प्रेमिका ने अपने पति को पत्र में चंपा-पुष्प, हनुमान, भौंरा और ला अक्षर क्यों लिखकर दिया? गूढ़ार्थ यह है कि प्रेमिका अपना संदेश व्यक्त करना चाहती है कि उसकी और प्रेमी की दशा, चंपा और भ्रमर-सी हो रही है। दोनों मिल नहीं रहे हैं। इस हेतु वह स्त्री (चंपा) दूत (हनुमान) से कह रही है कि तू जाकर मेरे प्रेमी (भ्रमर) से कह कि मुझे मिलने की लालसा (ला) है। 'ला' का अर्थ यहाँ लाने का भी हो सकता है, मानो विरहिणी दूत से कहती हो कि तू जाकर प्रेमी को बुला ला।
कर कंपत लेखनि डुलत, रोम रोम दुख लाल।
प्रीतम कूँ पतिया लिखुं, लिखी न जात जमाल॥
हे प्रियतम ! तुम्हें पत्र लिखते समय हाथ काँप रहा है और लेखनी भी हिल रही है। विरह के कारण रोम-रोम में पीड़ा हो रही है, पत्र लिखा ही नहीं जा रहा है।
जे महु दिण्णा दिअहडा दइएँ पवसन्तेण।
ताण गणन्तिए अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण॥
जो दिन मुझे प्रवास पर जाते हुए प्रिय ने दिए थे, उन्हें गिनते हुए मेरी अंगुलियाँ नख से जर्जरित हो गईं।
मुख ग्रीषम, पावस नयन, तन भीतर जड़काल।
पिय बिन तिय तीन ऋतु, कबहुँ न मिट जमाल॥
साँसों की उष्णता से ग्रीष्म, निरंतर अश्रुपात से पावस और इच्छाओं पर तुषारापात होने के कारण शिशिर; इस प्रकार तीनों ऋतुओं ने उस विरहिणी के तन में अपना घर कर लिया है।
जमला प्रीत न कीजिये, काहू सों चित लाय।
अलप मिलण बिछुड़न बहुत, तड़फ तड़फ जिय जाय॥
अपना सर्वस्व गँवाकर किसी से प्रीति न करनी चाहिए। क्योंकि, सुख तो क्षणिक होता है पर वियोग अधिक सहन करना पड़ता है और प्राण तड़प-तड़प कर तजने पड़ते हैं।
पइँ मेल्लन्तिहे महु मरणु मइँ मेल्लन्तहो तुज्झु।
सारस जसु जो वेग्गला सो वि कृदन्तहो सज्झु॥
तुझे छोड़ते हुए मेरा मरण है और मुझे छोड़ते हुए तेरा। सारस के समान जो दूर रहेगा वह यम का साध्य होगा।
बिरह तपन पिय बात तैं उठत चौगनी जागि।
जल के सींचे बढ़त है ज्यों सनेह की आगि॥
भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि प्रिय की बात को स्मरण करने से विरह बढ़ जाता है अर्थात् चार गुना बढ़ जाता है। लेकिन प्रेम रूपी जल के सींचने पर प्रेम की चाह बढती ही जाती है।
बप्पीहा पिउ पिउ भणवि कित्तउ रुअहि हयास।
तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुँ वि न पूरिअ आस॥
हे पपीहा, पी-पी बोलकर निराश (हताश) कितना रोएगा? तुम्हारी जल से प्रीति और मेरी वल्लभ से प्रीति, (कभी फलीभूत नहीं होगी) —दोनों की आशा पूरी न होगी।
पिउ आइउ सुअ वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ठि।
तहो विरहहो नासंतअहो धूलडिआवि न दिट्ठ॥
प्रिय आने की बात सुनी; ध्वनि कान में पैठी। नष्ट होते उस विरह की धूल भी न दीखी।
जब लगि विरह न उपजे, हिये न उपजे प्रेम।
तब लगि हाथ न आवहिं धरम किये व्रत नेम॥
कल न परत पल एक हूँ, छाडे साँस उसाँस।
सुंदर जागी ख़्वाब सौं, देख तौ पिय पास॥
हेरत, टेरत डोलिहौं, कहि-कहि स्याम सुजान।
फिरत-गिरत बन सघन में, यौंही छुटिहैं प्रान॥
कहूँ धरत पग परत कहुँ, डिगमिगात सब देह।
'दया' मगन हरि रूप में, दिन-दिन अधिक सनेह॥
कहति ललन आए न क्यौं, ज्यौं-ज्यौं राति सिराति।
त्यौं-त्यौं वदन सरोज पैं, परी पियरई जाति॥
मारग जोवै बिरहनी, चितवै पिय की वोर।
सुंदर जियरै जक नहीं, कल न परत निस भौर॥
ब्रह्म रूप सागर सुधा, गहिरो अति गंभीर।
आनंद लहर सदा उठै, नहीं धरत मन धीर॥
पिक कुहुकै चातक रटै, प्रगटै दामिनि जोत।
पिय बिन यह कारी घटा, प्यारी कैसे होत॥
तलब करै बहु मिलन की, कब मिलसी मुझ आइ।
सुंदर ऐसे ख़्वाब मौं, तलफि-तलफि जिय जाइ॥
बिरह ज्वाल उपजी हिये, राम-सनेही आय।
मन मोहन सोहन सरस, तुम देखन जा चाय॥
बिरह सतावै रैन दिन, तऊ रटै तव नाम।
चातकि ज्यों स्वाती चहै, पाती चहै सुबाम॥
लाय लगी घर आपणै, घट भीतर होली।
शील समँद में न्हाइये, जाँ हंसा टोली॥
मैं न लखी ऐसी दसा, जैसी कीनी मैन।
तब तें लागे नैन नहिं, जब तें लागे नैन॥
मैं मोही मोहे नयन, खेह भई यह देह।
होत दुखै परिनाम करि, निरमोही सों नेह॥
बार बित्यौ लखि, बार झुकि, बार बिरह के बार।
बार-बार सोचति कितै, कीन्हीं बार लबार॥
हँसि गावत रोवत उठत, गिरि-गिरि परत अधीर।
पै हरि रस चसको 'दया', सहै कठिन तन पीर॥
प्रेम-पीर अतिही बिकल, कल न परत दिन रैन।
सुंदर स्याम सरूप बिन, 'दया' लहत नहिं चैन॥
बिरह-सिंधु उमड़्यौ इतौ, पिय-पयान-तूफ़ान।
बिथा-बीचि-अवली अली, अथिर प्रान-जलजान॥
सखि पिय सुरत, सुरत, सुरत, सुरत सुर तन पीर।
सुर तन हिन सुर तन नहीं, सुर तनया सरि नीर॥
जमुना के जल में चंद्र प्रतिबिंब के दर्शन से संभोग समय देखी हुई प्रिय की सूरत और सहवास का स्मरण हो आया। वह मधुर स्मृति शूल बन कर तन में चुभने लगी। काम जागृत हो उठा, जिससे गोपिका का शरीर शिथिल हो गया जैसे उसमें प्राण ही न हों।