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कृष्ण कुमार

1951 | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

प्रसिद्ध लेखक व शिक्षाशास्त्री। पद्म श्री से सम्मानित।

प्रसिद्ध लेखक व शिक्षाशास्त्री। पद्म श्री से सम्मानित।

कृष्ण कुमार के उद्धरण

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बच्चा एक अनकही कहानी होता है, उसकी कहानी हमारे दिए शब्दों में नहीं कही जा सकती। उसे अपने शब्द ढूँढ़ने का समय और स्थान चाहिए, ढूँढ़ने के लिए ज़रूरी आज़ादी और फ़ुर्सत चाहिए। हम इनमें से कोई शर्त पूरी नहीं करते। हम उन्हें अपने उपदेश सुनने से फ़ुर्सत नहीं देते, उन्हें सुनने की फ़ुर्सत हमें हो–यह संभव ही नहीं।

पीड़ा जिस वजह से होती है वह एक दिन या एक वर्ष में नहीं बनती। देह हो या देश, उसकी पीड़ा पैदा होने और पकने में लंबा समय लेती है। पीड़ा एक सिलसिले का नाम है।

संविधान सुधार दिया गया, उच्चतम न्यायालय कह चुका, पर हमें बच्चों की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही। वे हमारे बीच रहते हैं; हमारी परछाइयों के घेरे में क़ैद। परछाई से बाहर तभी जाने दिए जाते हैं जब परछाई उन पर पड़ चुकी होती है और उनकी आवाज़ पूरी तरह एक स्वीकृत ज़बान में गढ़ी जा चुकती है। क्या आश्चर्य कि ऐसे समाज में बाल साहित्य न्यून मात्रा में है।

रघुवीर सहाय का एक रूप आधुनिक मिज़ाज के प्रतिनिधि का है, दूसरा आधुनिकता के समीक्षक का।

जगहों की दूरी आदिकाल से मानव को चिढ़ाती आई है। दूर-दूर जाने की इच्छा उतनी ही बलवती रही है जितनी दूरियों को घटाने की कोशिश।

जब ग़ुलाम इतना सयाना और समझदार हो जाए कि बग़ावत पर आमादा हो जाए तो मालिक को नए सिरे से कल्पनाशील बनना पड़ता है।

जनता अच्छी तरह जानती है कि नेता भावनाओं के व्यापारी होते हैं, फिर भी उनकी बातों में जाती है।

जनता शिक्षित हो या अशिक्षित—स्मृति सबकी बराबर होती है।

स्कूल में हर दौर का नाम होता था। हम जिस दौर में भागे जा रहे हैं, उसे क्या नाम दें—यह सवाल समाजशास्त्रीय दृष्टि से बड़ा महत्व रखता है। सरकारी लोग और आम समाज वैज्ञानिक इसे आधुनिकीकरण का नाम देते हैं।

बहुत कम बच्चे इतनी हिंदी सीख पाएँगे कि वे निराला को पढ़कर ‘जागो फिर एक बार’ को अर्थ दे सकें।

साहित्य उस जगह का नाम है जहाँ जाकर आप अनकही की अभिव्यक्ति के लिए शब्द ढूँढ़ सकते हैं।

हमारी ज़मीन में रसायनों का ज़हर इस क़दर फैल चुका है कि प्रकृति का स्वतंत्र जीवन-चक्र अब उसमें चल ही नहीं सकता।

क़स्बे अब शहर बन गए हैं पर महानगरों के पास आने की जगह और दूर चले गए हैं, भले नई संचार व्यवस्था यह दावा करते नहीं थकती कि उसने भौगोलिक और सामाजिक दूरियाँ मिटा दी हैं।

आधुनिक भारत का विकास; घरों के ख़ाली हो जाने की, परिवार के सिकुड़कर सूख जाने की कहानी है।

देश-दुनिया में सर्वत्र छितरे व्यक्ति के निरुपायता—बोध की संचार की गति का प्रच्छन्न योगदान है।

वह उत्तर प्रदेश जिसे मैं अपनी थाती समझकर प्यार करता था–सिर्फ़ किताबों में बचा है। मुझ तक वह पहुँचा भी किताबों के रास्ते था।

इंतज़ार एक ऐसी अनुभूति है जिसे पूरी तरह ग्रहण करने के लिए संचार और यातायात के साधनों की कमी ज़रूरी है।

हम बाल अधिकार की बात भले करें, रचना का बुनियादी अधिकार देने की मनस्थिति में हम फ़िलहाल नहीं हैं, क्योंकि रचना का अर्थ होता है–अपना मन ख़ुद बनाने का अधिकार। इस अधिकार का उपयोग करना करना भी अधिकार में शामिल है।

इतिहास की मुख्यधारा होने के नाते हम जानते थे कि विकास का स्वप्न निरापद नहीं होता। उसकी क़ीमत मनुष्य और समाज के अलावा प्रकृति को भी देनी पड़ती है।

औरत पर संस्कृति का आतंक, हज़ारों साल पहले अग्नि-परीक्षा और चीरहरण जैसे प्रसंगों से स्थापित हो गया था।

हमारी धरती एक बहुत बड़ी वेदना से गुज़री है और हम उस वेदना से बेख़बर रहते हुए जिए चले जा रहे हैं।

स्याही और गोंद, काग़ज़ और लिफ़ाफ़ा और उस पर लगे टिकट—मेरी स्मृतियों में उतने ही ज़िंदा हैं जितना हमारे मुहल्ले का डाकिया।

सरकारी व्यवस्था में काम करने वाले लोग, ताक़त के ऊँचे पदों तक पहुँचने से बहुत पहले ही मान लेते हैं कि कोई बड़ा परिवर्तन करना संभव नहीं है।

किसी किसी जादू या टोने में यक़ीन किए बग़ैर, कवि या लेखक बने रहना शायद ही संभव हो।

हिंसा की भूख और प्यास बढ़ाना सत्ता का कर्तव्य बन गया है।

हिंदी में राजनैतिक आलोचना करने वाले अख़बार अब नहीं हैं।

'कहानी का नेपथ्य' दैनिक जीवन के नेपथ्य जैसा नहीं है। दैनिक जीवन के नेपथ्य में ख़ुराफ़ात होती है, मंत्रणा होती है।

सबको ऑक्सीजन चाहिए, सिर्फ़ जीते रहने या स्वस्थ बने रहने के लिए नहीं, सोचने और फ़ैसले लेने के लिए भी।

आतंक के आलावा सामूहिक निर्णय का बल और उसके आगे झुकने की विवशता भी बच्चों के समझ के बाहर की चीज़ है।

शिक्षा पकिस्तान में भारत के प्रति संदेह और घृणा फैलाने का साधन बनी रही है।

दिनभर के सफ़र के बाद यात्री कहीं पहुँचता है तो उसे थकान के साथ संतोष महसूस होता है।

नदी के साथ चलना उन असंख्य चीज़ों की पुनर्रचना का अवसर बन जाता है, जिन्हें हम पहले से जानते रहे हैं।

हिंदी एक भाषा के अलावा एक चेतना का भी नाम थी जिसका रिश्ता राष्ट्रवाद की उठान से बैठ गया था। कालांतर में रिश्ता एक फंदा बन गया।

जिस समाज में, बच्चे को यह बताने के लिए मज़बूर किया जाए कि वह कहानी सुनकर या पढ़कर बताएँ कि उसने क्या सीखा—बच्चे की आवाज़ नहीं सुनी जा सकती।

अनुपम मिश्र सरीखा तरल, प्रांजल गद्य अभी बीस साल और लिखा जाए तो लोग समझ सकेंगे कि पर्यावरण संरक्षण जैसा जुमला विकास की लीला का ही अंग है—अवरोध नहीं।

झूठ के सहारे जीवन की रक्षा या आततायी की हत्या करना–दर्शन तथा अध्यात्म के साए में ही सार्थक ठहर सकता है।

लोकतंत्र का अर्थ अब एकछत्र सत्ता हो गया है, अभिव्यक्ति के मायने हैं प्रतिध्वनि, और अधिकार का नया समकालीन अर्थ है संकोच।

समाज का बीहड़ हमें हमेशा इतना डराए रखता है कि हम बग़ैर चौकन्ना हुए कभी कुछ कह नहीं सकते।

शब्दों की भारी फ़िज़ूलख़र्ची इस युग में हुई है, हो रही है, इस कारण शब्द की सार्थकता में अविश्वास बढ़ा है और निरे कर्म के प्रति आकर्षण इतना बढ़ा है कि कर्मी उन अच्छे-भले उद्यमों का अनिवार्य प्रत्यय बन गया है जिनमें पहले से कर्म की प्रधानता थी।

समर्थ कवि शब्दों में छिपी ध्वनि कों व्यंजना में बदल देते हैं।

संज्ञानमुक्त दृष्टि का धनी होने के कारण ही बच्चा कल्पना की सहज सामर्थ्य रखता है। वह चाँद देखता है तो चाँद बन जाता है।

यहूदी-संहार और भारत-पाक विभाजन के सैकड़ों संस्मरण बताते हैं कि भयानक अनुभवों के बाद भी, माता-पिता बच्चों के सामने ज़िंदगी की सामान्यता का अभिनय करते हैं।

बाल-साहित्य बचपन का साहित्य होता है, उसके लिए साहित्य की स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं–बच्चे की स्वतंत्रता भी चाहिए।

शब्द और कर्म के द्वैध को लेकर अकसर सुनने में आता है कि कर्म महत्त्वपूर्ण हैं, शब्द नहीं।

मनुष्य इतिहास का कीड़ा है : इतिहास के पन्नों के बाहर उसका वजूद है, जीवन।

जीवन व्यक्ति का हो या भाषा का, अनंत की उधारी से चलता है।

हम अगर भारत की तकलीफ़ को शब्द दे सकें तो हमारा हुनर किस काम का?

'सूचना के अधिकार' को एक तरह की विजय का प्रतीक मानना संभव है, भले यह स्पष्ट नहीं है कि किसने किस पर विजय पाई है। वैसे भी विजय एक घटना होती है, जय की तरह सिर्फ़ एक भाव नहीं जो बना रह सके।

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उल्लास की अभिव्यक्ति के लिए शब्द क्षमता घट रही थी और उसका स्थान पटाख़े ले रहे थे।

सड़क रघुवीर सहाय के साहित्य का शायद सबसे चैतन्य जगत है—जिस तरह उनके समकालीनों के लिए प्रकृति, गाँव या प्राचीन आख्यान थे।

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