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लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई : प्रलय के प्रतिरोध में खड़ा एक लेखक

साहित्य के क्षेत्र में 2025 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई को पिछले एक दशक में पढ़ते हुए बार-बार यह महसूस होता है कि मैं ऐसे लेखक की संगत में हूँ, जो अपनी भाषा की ज़मीन पर बेहद मज़बूती, तैयारी और आत्मविश्वास के साथ खड़ा है। वह आरंभ से ही हंगेरियन भाषा की गहराइयों और संभावनाओं से भली-भांति परिचित थे। लेखन के शुरुआती दौर में ही उन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि बीते दो शताब्दियों में हंगेरियन भाषा का अद्भुत विकास हुआ है और यूरोप की कई अन्य भाषाओं की तुलना में यह कहीं अधिक लचीली और अभिव्यंजक है। जहाँ संवाद या अनुवाद के लिए फ़्रेंच और स्पेनिश में दो विकल्प मिलते हैं, वहीं हंगेरियन में दस संभावनाएँ मौजूद हैं। लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई को पढ़ते हुए हम उस गद्य-भाषा से रूबरू होते हैं, जिसकी जड़ें गहरी हैं, और जिसका प्रकाश पाठक के अंतस में बहुत धीरे-धीरे फैलता है। रील रोग से ग्रसित हमारी दुनिया में इस भाषा की सुगंध को महसूस करने के लिए पाठक के भीतर पर्याप्त धैर्य और एकाग्रता का होना आवश्यक है। पिछले चार दशकों में उन्होंने अपने लिए जो भाषा गढ़ी है, वह बाज़ार की अपेक्षाओं और समय की गति से बिल्कुल बेपरवाह नज़र आती है।

इतिहास और सभ्यता का क्षय

5 जनवरी 1954 को हंगरी के छोटे से शहर ग्युला (Gyula) में जन्मे क्रास्नाहोरकाई ने समाजवादी उम्मीदों से भरे दौर में अपनी लेखकीय चेतना का विकास किया। उनका बचपन ग्रामीण और दमनकारी माहौल में बीता, जिसने संभवतः उनके भीतर इतिहास के प्रति शुरुआती सजगता और दृष्टि का बीज बोया। बुडापेस्ट में क़ानून और साहित्य की पढ़ाई के बाद 1985 में उनका पहला उपन्यास ‘सातानतांगो’ (Sátántangó) प्रकाशित हुआ। यह एक समाप्त हो रही सामूहिक खेती और ग्रामीण जीवन पर आधारित उदास, गहन और दार्शनिक कथा थी, जो केवल हंगरी की कहानी न होकर पूरी मानव सभ्यता के पतन का रूपक बन गई। अपने विषय की नवीन प्रस्तुति और दार्शनिक गहराई के कारण यह उपन्यास तत्काल चर्चित हुआ।

उनके घनिष्ठ मित्र और सहयोगी फ़िल्मकार बेला टार (Béla Tarr) ने ‘सातानतांगो’ को सात घंटे की लंबी फ़िल्म में रूपांतरित किया, जिसे सिनेमाई शोकगीत कहना ग़लत नहीं होगा। इस फ़िल्म ने दोनों को ‘प्रलय के भविष्यवक्ता’ (prophets of doom) के रूप में प्रसिद्ध कर दिया।

प्रलय और प्रतिरोध

लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई के समूचे लेखन का केंद्र विनाश (apocalypse) और संभावना के बीच का तनाव है। उनके उपन्यासों में पुरानी कथाओं की गहन बुनावट और तर्कहीन परिवर्तन के विरुद्ध मनुष्य की प्रतिरोधक प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। उनके उपन्यास ‘The Melancholy of Resistance’ (1989) में एक सर्कस एक छोटे शहर में आता है और पूरा उपन्यास हमारे सामने biblical references के साथ धीरे-धीरे खुलता है। वहीं ‘War and War’ (1999) में एक हंगेरियन अभिलेखपाल (archivist) को लगता है कि उसने अत्यंत महत्त्वपूर्ण पांडुलिपि खोज ली है, और वह उसे बचाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है, जबकि उसके चारों ओर की दुनिया लगातार बिखर रही है। उनके लेखन में नैतिक पतन, संस्थागत सड़न, आध्यात्मिक विचलन, इतिहास से टकराव, समाज का विघटन, स्मृति का क्षय और आशा की मद्धिम चमक जैसे विषय बार-बार उभरते हैं। इन सारे विषयों को अपने लेखन के केंद्र में रखते हुए उनकी दृष्टि किसी भी स्तर पर भावुक नहीं होती। उनके वाक्यों की तरह वह कठोर, अनुशासित और दार्शनिक रूप से गहरी है। शायद यही तीव्रता उनके लेखन को मानव गरिमा का साक्ष्य और संरक्षक बनाती है।

कई आलोचकों ने लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई के लेखन को मध्य यूरोपीय परंपरा से जोड़कर देखा है। इस मध्य यूरोपीय परंपरा को फ़्रांज़ काफ़्का, थोमस बेर्नहार्ड, रॉबर्ट मूज़िल और सैमुअल बेकट जैसे लेखकों ने समृद्ध किया। पर यह देखना दिलचस्प है कि क्रास्ज़्नाहोरकाई के लेखन का एक छोड़ भले ही मध्य यूरोपीय परंपरा से जुड़ता तो लेकिन उनका भावनात्मक संसार एशिया, विशेषकर जापान और चीन की आत्मिक और सांस्कृतिक गहराइयों से भी जुड़ा हुआ है। उनकी पुस्तकों ‘Seiobo There Below’ (2008) और ‘Destruction and Sorrow Beneath the Heavens’ (2004) में वे लेखक के बदले एक सांस्कृतिक यात्री के रूप में हमारे सामने आते हैं, जो एक उदासीन होती जा रही दुनिया में सौंदर्य और निष्ठा के अवशेषों की तलाश करता है। लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई की दृष्टि में कला केवल सौंदर्य या आनंद की वस्तु नहीं, बल्कि मानवता की अस्तित्वगत संकट के प्रति तात्कालिक और आवश्यक प्रतिरोध है। इसीलिए नामचीन लेखिका और चिंतक  स्यूज़न सोंटाग ने उन्हें ‘समकालीन हंगेरियन सर्वनाश का उस्ताद’ (master of apocalypse)” कहा था।

वाक्य का स्थापत्य

भाषा साँस है। लंबी साँस। लेकिन हर लेखक की साँस लंबी नहीं होती। लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई को पढ़ते हुए लगता है कि कोई एक लंबी साँस में सबकुछ कह देना चाहता है। जब इस लंबी साँस को आप भाषा में घटित होते हुए देखते हैं, तो यह साफ़ होने लगता है कि भाषा की सबसे ज़रूरी इकाई यानी वाक्य का विन्यास भी बदल रहा है। 2015 में मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार मिलने के ठीक बाद, द गार्जियन को दिए एक साक्षात्कार में क्रास्ज़्नाहोरकाई ने अपने लेखन को इन शब्दों में परिभाषित किया था, “अक्षर; फिर अक्षरों से शब्द; शब्दों से छोटे वाक्य; और फिर लंबे — बहुत लंबे वाक्य, लगातार 35 वर्षों तक। भाषा में सौंदर्य। नर्क में आनंद।” उनकी साहित्यिक पहचान उनके अडिग और अनवरत वाक्य-विन्यास में निहित है —घने, पुनरावृत्त, कई पृष्ठों तक फैले हुए, जो अपने अनुभव से ही समझे जा सकते हैं। उनकी गद्य-शैली को पढ़ना एक डूबने जैसा अनुभव है। 2012 में अँग्रेज़ी की महत्त्वपूर्ण वेब पत्रिका ‘almost island’ के लिए हंगेरियन लेखक लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई से महत्त्वपूर्ण अँग्रेज़ी लेखिका शर्मिष्ठा मोहंती और उनके पति फ़िल्मकार कबीर मोहंती ने एक लंबी बातचीत की थी। इस बातचीत में लास्ज़लो ने अपने लंबे वाक्यों के बारे में बहुत विस्तार से अपनी बात रखी है। बक़ौल लास्ज़लो, “मेरे लिए वो सिर्फ़ लंबे या छोटे वाक्य नहीं है। बल्कि बहुत छोटे या बहुत लंबे वाक्य हैं। बीस साल की उम्र से ही मैं अपने दिमाग़ के भीतर ही काम करता हूँ। कई ऐसा लेखक नहीं जो अपने राइटिंग डेस्क पर ही सोचता या लिखता है। ये कभी नहीं होता। ये कुछ ऐसा है की कोई मेरे भीतर लगातार बोलता रहता है और दुर्भाग्य से ये कोई अलंकार या मेटाफर नहीं है। मैं अपने दिमाग़ में उस आवाज़ से जुड़ने की कोशिश करता हूँ। अगर मैं अपने भीतर उस आवाज़ या  संगीत को समझ पाता हूँ और पीछा करता हूँ तो पंद्रह से बीस पृष्ठ तक लगातार लिखता जाता हूँ। मेरे वाक्यों के लंबे होने का एक कारण ये हो सकता है कि मैं हमेशा उस आवाज़ के अधिक-से-अधिक क़रीब जाता हूँ। अगर आप मुझे कुछ अर्थपूर्ण बता रहे हैं तो इस तरह की स्थिति में आप पूर्ण विराम का इस्तमाल नहीं करते बल्कि आपको ज़रूरत भी नहीं पड़ती। पूर्ण विराम या अर्द्ध विराम सिर्फ़ औपचारिकताएँ हैं। लंबे वाक्य या छोटे वाक्य सिर्फ़ नियम हैं। उदहारण के तौर पर कुर्ताग (Kurtag) के संगीत के बारे में सोचिए। उस संगीत से जुड़े नोटेशन के बारे में सोचिए। मेलोडी कभी इन सीमाओं में बंध कर नहीं रही। पूर्ण विराम या डॉट कुछ ऐसी ही चीज़ है। डॉट या पूर्ण विराम मुझे ज़रूरी लगता है लेकिन मैं उस स्थिति या समय का इंतज़ार करता हूँ, जब ये एकदम से ज़रूरी हों। मेरे पात्र विराम चिह्नों का इस्तमाल नहीं करते। गादीस और पिनचौन जैसे लेखक बीना विराम चिह्नों या पूर्ण विराम के ही काम करते थे। मैं ये नहीं कह रहा की पारंपरिक वाक्य काम नहीं करते। लेकिन वो मेरे लिए काम नहीं करते। फ़ौकनर मुझे कुछ हद तक रूढ़ीवादी लेखक लगता है। उसने छोटे वाक्यों का इस्तमाल किया। तो उसने उन वाक्यों का इस्तमाल किया जो उसे ज़रूरी लगा। जबकि काफ़्का के यहाँ पर हर वाक्य एक रहस्य है, इसलिए भी वहाँ पर वाक्य लंबे हैं। तो, इस तरह के वाक्यों के लिए मैं रुकता हूँ और उन वाक्यों के बारे में लंबे समय तक सोचता हूँ।”

भारत में सीगल बुक्स, कोलकाता (Seagull Books) ने लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई की अब तक एकमात्र कथेतर कृति ‘Destruction and Sorrow Beneath the Heavens: Reportage’ (अनुवादक: ओटिली मुल्ज़ेट) प्रकाशित की है। 2013 में, इस पुस्तक के प्रकाशन से ठीक पहले, प्रकाशन की दुनिया में अपने महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए Ottaway Award (2021) से सम्मानीत प्रकाशक नवीन किशोर ने क्रास्ज़्नाहोरकाई को सीगल की वार्षिक कैटलॉग के लिए एक नोट लिखने का आमंत्रण दिया। वह कैटलॉग उस वर्ष ‘नोटबुक’ विषय पर केंद्रित थी। लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई ने नवीन किशोर को जो नोट भेजा वह लंबी साँस वाले इस लेखक की भाषा को समझने में कई स्तर पर हमारी मदद कर सकता है। वह नोट आपके सामने है।

छेनी के साथ

(नवीन किशोर के लिए)

क्योंकि इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उस क्षण आपके हाथ में क्या है—एक छेनी, एक कूची, एक क़लम या टाइपराइटर; यह भी मायने नहीं रखता कि आपके पास पहले से कंप्यूटर, लैपटॉप, टैबलेट, आईफ़ोन या गूगल ग्लास है या नहीं—असल में इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि जो कुछ भी जन्म लेता है, वह सबसे पहले आपकी आत्मा, मस्तिष्क, आत्मा और शरीर में जन्म लेता है। और केवल वहीं नहीं जन्म लेता, बल्कि अपनी मूल सार (essence) के रूप में वहीं रह भी जाता है। क्योंकि जब आप पत्थर पर छेनी चलाते हैं, काग़ज़ पर चित्र बनाते हैं, नोटबुक में या टाइपराइटर पर लिखते हैं, या कंप्यूटर और लैपटॉप की स्क्रीन पर कोई शब्द अंकित करते हैं—तो यह पूरी तरह संभव नहीं कि वह जो भीतर से जन्मा है, वह पूरी तरह पत्थर, काग़ज़ या मशीन के वर्चुअल कैनवस तक पहुँच सके। कुछ-न-कुछ—वह सार तत्त्व— आपकी आत्मा, आपके शरीर, आपकी तंत्रिकाओं (nerve cells) में रह जाता है, उन तंत्रिकाओं के बीच की बिजली जैसी झिलमिलाहटों में। और वही चीज़ असल में मायने रखती है—वह असंचार्य (Intransmissible) तत्व, जिसे किसी भी तरह शब्दों में लिखा नहीं जा सकता। और यही कारण है कि पाठक हमें पढ़ते हैं —क्योंकि वे मानते हैं, वे विश्वास करते हैं, वे यह अनुमान लगाते हैं कि हम लेखकों और कवियों के भीतर यह विशेष संवेदनशीलता मौजूद है—वह चमक, वह क्षणिक विद्युत-झिलमिलाहट, जो तंत्रिकाओं के बीच होती है। वे हमारे द्वारा लिखे गए शब्दों को पढ़ते हैं, और ये शब्द उन्हें यह विश्वास दिलाते हैं कि जो कुछ हम लिख पाए, वह पहले हमारे भीतर उस झिलमिलाते क्षण, उस अंतर्दृष्टि में जन्मा था—जहाँ समस्त समय और स्थान का अनंत साम्राज्य एक साथ उत्पन्न और विलीन होता है। उस असीम रहस्य को हम चाहें तो नाम दें, या विचार में ही बाँधने की कोशिश करें—पर वहाँ तक पहुँचना असंभव है। और इसीलिए उस असीम अगम्य में मानव अस्तित्व का जो अत्यंत सूक्ष्म योगदान है, उसे लिखा नहीं जा सकता। फिर भी हमारी भावनाएँ—इच्छा से लेकर घृणा तक, और घृणा से प्रेम तक—उसी में सम्मिलित हैं। यही वह चीज़ है जो हमारे पाठक हमारे शब्दों से पढ़ लेते हैं। वे यह महसूस करते हैं कि हम —शब्दों के स्वामी, कथाकार, कवि —वे लोग हैं जो शब्दों के उच्चारण और लेखन से पहले ही उस सत्य की झलक पा लेते हैं कि इस महान् अज्ञात (Great Unknown) में हम सब मनुष्यों के बीच एक भयावह लेकिन अटूट सामूहिकता (indissoluble collectivity) विद्यमान है। और यही कारण है कि वे हमें पढ़ते हैं—भले ही वे इन अर्थों को शब्दों में न पा सकें, क्योंकि शब्द केवल संकेत करते हैं कि हम वही लोग हैं —जो शब्दों को एक सूत्र में पिरोने से पहले उस संवेदनशील क्षण में उस चीज़ को देख लेते हैं जिसे हम इस महान् पहेली (Gigantic Enigma) में मानव भाग्य (human fate) कहते हैं। हम वही हैं—जो इसीलिए शब्दों में उलझते हैं, हालाँकि हम भली-भाँति जानते हैं कि शब्द केवल संकेत कर सकते हैं, वे कभी भी जो देखा या अनुभव किया गया है, उसे पूर्ण रूप से कह नहीं सकते, न पहुँचा सकते हैं। जो कुछ शायद हृदय से समझा गया, वह उस क्षणिक झिलमिल, उस अल्पकालिक धब्बे में मौजूद था —उस असीम संपूर्णता (Great Whole) के भीतर वह सूक्ष्म, लगभग अदृश्य बिंदु—एक मनुष्य, यह “कातर-सा कुछ भी नहीं (Whimpering Nothing)” —अपनी भावनाओं के साथ। और तब हम आते हैं अपने शब्दों के साथ —हम कोशिश करते हैं उस असंभव के निशान में ख़ुद को मिलाने की, हम आते हैं — शब्दों के साथ, कूची के साथ, क़लम के साथ, टाइपराइटर, कंप्यूटर, लैपटॉप, गूगल ग्लास के साथ —उस वर्चुअल स्पेस में। और जब हमारे चारों ओर सब कुछ नष्ट हो चुका होता है, तो हम फिर लौटते हैं —छेनी के साथ, पत्थर पर। बार-बार, फिर से, और फिर से —हम आते हैं अपने शब्दों के साथ, और पाठक अपना विश्वास हम पर रखते हैं।
(हंगेरियन से अँग्रेज़ी में अनुवाद : ओटिली मुल्ज़ेट)

क्यों महत्त्वपूर्ण है यह नोबेल पुरस्कार

हिंदी जगत के लिए लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई का नाम भले ही नया हो लेकिन पिछले कई वर्षों से हर नोबेल सीज़न में क्रास्ज़्नाहोरकाई का नाम चर्चा में रहा है। स्वीडिश अकादमी द्वारा उन्हें चुना जाना, एक अर्थ में, आज की दुनिया के उस अस्तित्वगत भय को पहचानने और चुनौती देने जैसा है—एक ऐसी दुनिया, जो युद्धों, संघर्षों, सतत हिंसा, जलवायु संकटों और अलगाववादी राजनीति में उलझी हुई है। यह सम्मान उस एकाग्रता और स्थिरता की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है, जो निरंतर परिवर्तन और उथल-पुथल के इस युग में खोती जा रही है। ध्यान की कमी और सतहीपन से ग्रस्त समय में लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई का लेखन पूर्ण एकाग्रता और सहभागिता की माँग करता है। और शायद यही उसकी असली शक्ति है। जब भाषा को गति, हिंसा और घिनौनी प्रदर्शनप्रियता ने खोखला बना दिया है, क्रास्नाहोरकाई का साहित्य हमें एक दृढ़ प्रतिरोध, अविचल विश्वास, मानव की सहनशीलता, उसकी गरिमा और प्रतिरोध की क्षमता देता है। उनकी रचनाएँ बाज़ार और समय के पीछे नहीं दौड़तीं; वे प्रतीक्षा करती हैं, देखती हैं, और स्मृति को एक चेतावनी तथा आशा के रूप में हमारे सामने भरपूर सजगता से थामे रखती हैं।

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