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केबीसी के ईशित भट्ट के पक्ष में पूछना तो पड़ेगा

इंटरनेट का लोकाचार भरसक ऊब, सनक, बेचैनी और ऊधम से भरा है और यह कब और कैसे इंटरनेट की दुनिया से निकलकर अस्ल ज़िंदगी में उतर आता है; पता ही नहीं चलता। जो भी व्यक्ति इंटरनेट पर आनंद की तलाश में थोड़ा ज़्यादा समय बिताने लगता है, उसके जीवन में ‘रील’ और ‘मीम’ की ऐसी सनक घुस जाती है कि कब उसकी भाषा में ‘10 रुपए वाला बिस्किट’, ‘अंडरवर्ल्ड में ज़िकरा’ जैसे क्षणिक लोक-संदर्भित मीम-ठिठोली जुड़ जाते हैं, उसे ख़ुद नहीं पता चलता। धीरे-धीरे उसका जीवन सही-ग़लत को पहचाने बिना, आनंद, डोपामाइन और वेलिडेशन की खोज में भेड़चाल का हिस्सा बन जाता है और ये मीम रोज़ एक दूसरे के इनबॉक्स में भेजते रहते हैं। 

हाल ही में ऐसा एक मीम ट्रेंड वायरल हुआ। एक व्यक्ति ने मुझसे कहा, “ये जो बच्चा (ईशित भट्ट) अमिताभ बच्चन के सामने चपड़-चपड़ कर रहा है, इसकी ठीक से पिलाई नहीं हुई है।”

मुझे तब तक पता नहीं था कि बात का आधार क्या है, जबकि मैं वह मीम देख चुका था और बिना सोचे स्क्रॉल-डाउन कर दिया।

मैंने पूछा, “क्या बात कर रहे हैं?”

उन्होंने वह मीम दिखाया जो उस बच्चे पर बनाया गया था,  जिसमें लोग ख़ुश हो रहे थे कि बच्चे ने ग़लत जवाब दिया। किसी ने लिखा, “कितना सैटिस्फैक्टरी है!” क्योंकि लोगों का मानना था कि लड़का बदतमीज़ है।

मुझे उस क्लिप ने बेचैन किया, इसलिए जब वही क्लिप थोड़ा आगे तक देखा। पता चलता है; बच्चा दुखी है, क्योंकि वह हार गया और शायद अब उसे अमिताभ बच्चन के साथ फ़ोटो खिंचवाने का मौक़ा नहीं मिलेगा।

इसके बाद देखा कि उस पर अनगिनत रील्स दिखने लगीं। इंटरनेट की ऊबी हुई जनता को इसमें नया मनोरंजन दिखा।

जहाँ कई रील्स उस बच्चे का मज़ाक़ बना रहीं थी तो कई रील्स यह साबित करने में जुटीं कि वह बच्चा ‘सिक्स पॉकेट सिंड्रोम’ से पीड़ित है—जिसका साधारण अर्थ यह बताया गया कि बच्चे को माता-पिता और दादा-दादी, सभी तरफ़ से इतनी अटेंशन मिलती है कि उसे असफलता या आलोचना से बचा लिया जाता है और इस वजह से वह अत्यधिक आत्मविश्वासी व विनम्रता-रहित बन जाता है।

यह टर्म चीन की ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ के समय से प्रचलन में आया था।

कितना अजीब है कि इंटरनेट पर किसी चीज़ की समझ न आए तो बस कोई फ़ैंसी-सा टर्म फेंक दो, ताकि सब मेस्मराइज़ हो जाएँ। पॉप साइकोलॉजी अब इतनी रैंडम तरीक़े से इस्तेमाल हो रही है कि नार्सिसिस्ट, गैसलाइटिंग, ट्रॉमा जैसे शब्द ऐसे उछाले जाते हैं जैसे सब्ज़ी-भाजी हों।

सोचिए, अगर आप अपना फ़ोटो इंस्टाग्राम पर डालें और कोई व्यक्ति आपको नार्सिसिस्ट कह दे, या आप किसी बात को न कहें और कोई इसे ट्रॉमेटिक अनुभव मान ले... इसका सामने वाले पर कितना गहरा प्रभाव पड़ सकता है।

शब्दों को बाणों से भी घातक माना गया है। उदाहरण के लिए, मज़ाक़ में मेरे एक दोस्त को उसके दोस्त ने गैसलाइट करने वाला कहा। उस पर कोई प्रतिक्रिया न देने पर यह बात बार-बार दोहराई गई, और वह बहुत आहत हो गया। बाद में, जिसने यह शब्द कहा था, उसने माफ़ी माँगी, लेकिन अंदर तक ठेस पहुँच चुकी थी। यह दिखाता है कि कई बार पॉप साइकोलॉजी के ये शब्द बिना किसी ठोस आधार के इस्तेमाल होते हैं, और यह इतना व्यापक है कि लगता है कि ख़ुद वही लोग जो इन टर्म्स का इस्तेमाल करते हैं, उतने ही इस पॉप साइकोलॉजी के विक्टिम बन जाते हैं, जितने उनके ऊपर ये शब्द इस्तेमाल होते हैं।

इंटरनेट की रैंडम दुनिया का अपना एल्गोरिदम और ट्रेंड-आधारित लोकाचार है, जहाँ कुछ भी संभव है। उस एक क्लिप के आधार पर इंटरनेट की जनता ने तय कर लिया कि बच्चा बदतमीज़ है, उसे कभी डाँटा नहीं गया और अब उसे ट्रोल किया जा सकता है—इस बात की परवाह किए बिना कि इसका उसके मानसिक स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा।

इस बात से याद आता है कि हाल ही में एक दुकानदार ने एक बच्चे को चिप्स उठाने के लिए पब्लिकली थप्पड़ मारा और शर्मिंदा किया, और इसका परिणाम यह हुआ कि बच्चे ने अपनी जान ले ली। इंटरनेट की भीड़ कुछ ऐसे ही व्यवहार कर रही है और यह पहली बार नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं, चाहे वह टॉपर बच्ची के चेहरे पर ‘बाल होने वाला’ वाक्य हो, या किसी बच्चे को गाली देना, इंटरनेट की ऊब और सनक इन बच्चों को पब्लिक शर्मिंदगी का शिकार बना देती है, बड़े बूढ़े होते हैं वो तो ख़ैर अलग बात है। 

जब बच्चे ऊधम करते हैं, तो उनके माता-पिता उन्हें ऊधम न मचाने को कहते हैं। यहाँ ‘ऊधम’ शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है, यह बच्चों को डाँटने और फटकारने का साधन है। साथ ही यह भी माना गया है कि बच्चे हैं तो ऊधम तो करेंगे ही। यह इस शब्द का माना हुआ मतलब है। उनका व्यवहार अगर कभी सीमा से बाहर भी लगे, तो वह उनकी उम्र का हिस्सा है। इसके लिए उन्हें सिर्फ़ डाँटा जा सकता है, ट्रोल नहीं किया जा सकता। सोचिए, इस तरह का व्यवहार और ऑनलाइन बुलिंग बच्चे पर कितना गहरा और हानिकारक प्रभाव डाल सकती है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

आज की सोशल मीडिया भी वैसा ही प्रत्यक्ष लोकतंत्र पेश करती है, जैसा ग्रीक दार्शनिक प्लेटो नापसंद किया करते थे, जहाँ कोई विशेषज्ञ नहीं, बल्कि भीड़ की राय, भावनाएँ और ट्रेंड तय करते हैं कि किसी पर हँसी उड़ाई जाए या ट्रोल किया जाए, या किसे मार दिया जाए। प्लेटो का मानना था जानता या भीड़ भावनाओं में वह जाती है और भीड़ का विवेक कम होता है। 

एक समाज के तौर पर हमको सोचने की ज़रूरत है कि हम किस ओर जा रहे हैं, हम अपने आपको किस तरीक़े का विवेकहीन समाज बना रहे हैं।

•••

मयंक जैन परिच्छा को और पढ़िए : जिम जाने वाला लेखक | क्राइम मास्टर गोगो, श्री निर्मल वर्मा और मैं | महान् दार्शनिक दीपक कलाल का 'मुआ' फ़िनोमिनन | नीत्शे के नीत्शे होने की कहानी |

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