अनुभवी कवि आभ्यंतर भाव-संपादन का महत्व जानता है।
रामगिरि से हिमालय तक, प्राचीन भारतवर्ष के जिस विशाल खंड के मध्य से 'मेघदूत' के मंदाक्रांता छंद में जीवन स्त्रोत प्रवाहित हुआ है, वहाँ से केवल वर्षाकाल नहीं—चिरकाल की भाँति हम भी निर्वासित हो गए हैं।
कवि का कल्पना-सचेतन हृदय जितना ही विश्व-व्यापी होता है, उतनी ही उनकी रचना की गहराई से हमारी परितृप्ति बढ़ती है।
एक समय था जब हमारे दार्शनिक कवि; भारत के विशाल चमकते आकाश के नीचे खड़े होकर, विश्व भर का प्रेमविभोर हृदय से स्वागत करते थे—इस कल्पना से ही मेरा हृदय, आनंद और मानवता के लिए आशामय भविष्य के स्वप्नों से भर जाता है।
रचना-प्रक्रिया से अभिभूत कवि जब भावों की प्रवहमान संगति संस्थापित करता चलता है, तब उस संगति की संस्थापना में उसे भावों का संपादन यानी एडीटिंग करना पड़ता है। यदि वह इस प्रकार भावों की काट-छाँट न करे, तो मूल प्रकृति उसे संपूर्ण रूप से अपनी बाढ़ में बहा देगी और उसकी कृति विकृति में परिणत हो जाएगी।
इस विश्व के अधिकतम अंश को यद्यपि हम आँखों से देखते हैं; कानों से नहीं सुनते, फिर भी बहुत समय से इस विश्व को कवियों ने गान ही कहा है।
वाल्मीकि के कवि रूप का आकलन सुकर कार्य नहीं है। शिल्प के स्तर पर वे नितांत प्रचलित, लोकभाषा में व्यवहृत शब्दों को उनकी सप्राणता और सहजता की क्षति किए बिना, अकल्पित सामर्थ्य से भर देते हैं।
कवि-जीवन की प्रथम-स्तरीय उपलब्धि, उस अंतःप्रकृति से साक्षात्कार है जो अपना कुछ विशेष कहना चाहती है, जिसके पास कुछ विशेष कहने के लिए है। इस आत्म-चेतना के प्रत्यक्ष संवेदनात्मक ज्ञान के बिना कोई कवि मौलिक नहीं हो सकता।
कठिन-हृदय कवि अपने नायक-नायिकाओं के लिए कितनी अक्षय प्रतिमाएँ गढ़-गढ़कर निर्मम-चित्त से विसर्जित कर देते हैं।
वाल्मीकि और तुलसी दोनों ही युगचेता कवि हैं।
वाल्मीकि और तुलसी हमारी संस्कृति की दो पृथक अंतर्धाराओं के श्रेष्ठ कवि हैं।
निरपेक्ष सत्यों का सापेक्ष परिधान पहनाने का पुनित कर्त्तव्य, काव्य और कला के लिए ही सुरक्षित है।
कविचित्त में जो अनुभूति गहन होती है, भाषा में सुंदर रूप धरकर अपनी नित्यता को प्रतिष्ठित करना चाहती है।
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कविता और कला के निर्माताओं का भी कर्त्तव्य है कि वे आधुनिक देश-काल के समीकरण द्वारा व्युत्पादित सृष्टि, स्थिति और प्रलय-संबंधी सिद्धांतों का उपयोग अपनी अमर कृतियों में कौशल के साथ करें।
जो मनुष्य हममें सोई हुई उत्तम भावनाओं को जाग्रत करने की शक्ति रखता है, वह कवि है।
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वाल्मीकि लौकिक संस्कृत-काव्य के आदिकवि हैं।
वाल्मीकि के उपजीव्य तथा आदिकवित्व के कारण, कवि शब्द को उनकी एक संज्ञा के रूप में भी माना गया।
कुकवि होने से कवि न होना अच्छा है। कविता को कवि के पास उसी तरह आना चाहिए जैसे वृक्ष पर वर्ण आते हैं।
एक कवि हमारे सामने खुली आत्मा की तरह होता है। अगर मुझे किसी चीज़ को गहराई तक महसूस करना है, तो किसी कवि को पढ़ता हूँ। मैं गद्य और पद्य को बाँटने वाली लकीर को अच्छी तरह से देख पाता हूँ।
एक कवि हमेशा ख़ुद के साथ काम करता है।