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बेगम अख़्तर और लखनऊ का पसंदबाग़

सवेरा कमरे में पसर गया था इसलिए हमें उठना पड़ा। कमरे का दरवाज़ा खुलते ही बालकनी शुरू हो जाती, जहाँ से मंदिर का शिखर दिखता जो गली के उस तरफ़ पार्क के दक्षिणी छोर पर था, जिसमें संघ की शाखा लगती। हम बालकनी से आकाश को देखते जिसमें बादल और बरखा के होने के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखाई पड़ते। जो दिखाई पड़ता वह उगता हुआ सूरज था; जो तनिक ही देर में तपने लगता, जिससे बाहर घूमना थोड़ा कठिन हो जाता। कमरे के अंदर हम लोग मैप पर वह स्थान मार्क करते जहाँ-जहाँ हमें घूमना था। उसके बाद रैपिडो से उसका किराया या नज़दीकी मेट्रो-स्टेशन देखते। ऐसा करते-करते तीन-चार रोज़ बीत गए। 

फिर एक दिन सुबह-सुबह मौसम ने रंग बदला। सूरज बादलों की ओट से सामने आता और छिप जाता, बाहर झिर-झिर हवा बह रही थी। उसी दिन बिना देर किए हम लोग घूमने के लिए निकल पड़े रैपिडो के इलेक्ट्रिक ऑटो से—जिसे चलाने वाले चचा ने हमारे इस भ्रम को दूर किया कि तहज़ीब-ओ-अदब के शहर में कोई कट लेके निकले तो ‘अमाँ...’ कैसे गाली की बख़्शिश दी जाए। ख़ैर! इतने में गोमती का पुल पार हो गया। जो इस शहर की संजीवनी है, जहाँ एक एडवरटाइज़मेंट बोर्ड पर लिखा है—गोमती इस शहर की प्राण-रेखा है। इसे साफ़-स्वच्छ रखें...

यह शहर ‘लखनऊ’ है, जिसका हृदय-स्थल चौक है। जहाँ से थोड़ा पीछे ‘वाजपेई की कचौड़ी’ की प्रसिद्ध दुकान है। यक़ीन मानिए इन कचौड़ियों का स्वाद इतना लज़ीज़ था कि ईडी को छापा मारना पड़ा। संयोग ऐसा रहा कि हम लोगों के पहुँचने वाले दिन दुकान बंद थी। हमें स्वाद से महरूम होना पड़ा। चौक से एक रास्ता लोहिया पार्क होते हुए रूमी दरवाज़ा, घंटा घर, बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा और चिड़ियाघर की ओर निकल जाता है। वहीं दूसरा रास्ता कोनेश्वर महादेव, टंडन मार्ग होते हुए ठाकुरगंज चौराहे और आगे मलिहाबाद, हरदोई की तरफ़ बढ़ जाता है। लेकिन हमें ठाकुरगंज चौराहे पर ही रुकना था, या कहे इस तारकोल की सड़क को छोड़ बजरी की सड़क पकड़नी थी। बजरी की सड़क पर आगे बढ़ने पर जो इलाक़ा शुरू होता है, वह पसंदबाग़ है—पूरा का पूरा बेगम अख़्तर का इलाक़ा। इस इलाक़े का विवरण ‘लखनऊ में बेगम अख़्तर’ नाम से लिखे लेख में सलीम किदवई कुछ यूँ देते हैं—“बिना पलस्तर की ईंटों की दीवारों के बीच एक अहाता है, जो बेगम अख़्तर के इंतिक़ाल के तुरंत बाद उग आई एक आधुनिक झोपड़पट्टी से घिरा है। इसे ढूँढ़ पाना लगभग असंभव है। ठाकुरगंज में—लखनऊ के छोर पर पसरा—पसंदबाग़ कहलाने वाला इलाक़ा कभी बहुत फैला हुआ करता था। बेगम अख़्तर की इस जाइदाद में खेत थे और आम का बाग़ था। बेगम और उनकी माँ को यहाँ सुकून मिलता था और यह जगह उन्हें बेहद पसंद थी...”

आज इस इलाक़े में तंग गलियों से होते हुए आख़िरी छोर पर लाल पत्थरों से सजी एक छोटी-सी मज़ार है—जहाँ बेगम अख़्तर अपनी माँ के साथ सुपुर्द-ए-ख़ाक है। मज़ार से सटा हरसिंगार है, जो उनके प्रेमियों की तरह कभी फूल से, कभी पत्तियों से, कृतज्ञता व्यक्त करता है। इसके अगल-बग़ल उनकी तस्वीरें हैं और उनके बारे में छोटे-छोटे फ़ुटनोट्स भी हैं। सामने की तरफ़ एक मंच है, जहाँ उनकी पुण्यतिथि (30 अक्टूबर) पर सांगीतिक-संध्या का कार्यक्रम होता है। शिल्पा राव की फ़ेसबुक वॉल पर इसी दिन की एक पोस्ट है—जहाँ वह मज़ार पर एक ग़ज़ल गा रही हैं।

हमारे ज़ेहन में बेगम अख़्तर की धुँधली-सी स्मृति है कि उन्हें पहली बार कब सुना था। लेकिन उनके क़िस्से और बानगी का अधिकांश हिस्सा यतींद्र मिश्र को पढ़ते-सुनते जाना, जहाँ वह अपने हर साक्षात्कार में अपनी दादी और बेगम अख़्तर को ज़रूर याद करते हैं। चाहे वह ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ की कोई शाम हो या जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल की एक कोई शाम...

‘अख़्तरीनामा’ नाम से लिखे लेख में बेगम अख़्तर की सबसे ज़्यादा सुनी जाने वाली ग़ज़ल ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...’ के बारे में वह लिखते हैं—“उनके चाहने वाले किसी भी महफ़िल में बिना यह ग़ज़ल सुने संतुष्ट नहीं होते थे। उनसे मिलने-जुलने वाले अधिकांश लोगों का यहाँ तक कहना है कि बेगम के लिए यह ग़ज़ल नहीं थी, बल्कि उनके कंसर्ट का नेशनल ऐन्थम थी।” लेकिन बेगम अख़्तर का एक दूसरा पक्ष भी था। यह लोकरंग का था। उसी लेख में कुछ यूँ उसका परिचय होता है—“कजरी, चैती, होरी, बारहमासा, ठुमरी, दादरा, सादरा और मुबारकबादी की प्रस्तुतियाँ उन्हें एक अलग ही रंगत का फ़नकार बनाते हैं... इस बेगम अख़्तर रंग को हम अवध के उस संगीत से सीधे जोड़कर देख सकते हैं, जिसमें यहाँ के कुछ प्रमुख इलाक़ों की धुनें गूँजती हुई सुनाई देती हैं। लखनऊ के अलावा फ़ैज़ाबाद, कानपुर, मिर्ज़ापुर, बनारस, इलाहाबाद, मथुरा, वृंदावन और अयोध्या में गाई जाने वाली पारंपरिक लोकधुनों पर आधारित कजरियों, झूलों, चैतियों और दादरों का लंबा-चौड़ा इतिहास है। बेगम अख़्तर की गाई हुईं प्रमुख कजरियों मसलन ‘पपीहा धीरे-धीरे बोल...’, ‘घिरकर आयी बदरिया राम...’, ‘छा रही काली घटा जिया मोरा लहराए है...’, ‘हमरा कही मानो हो राजा जी...’ और ‘कोयलिया मत कर पुकार...’ को इसी परंपरा में गिनना चाहिए। ‘कोयलिया मत कर पुकार...’ में बेगम अख़्तर की पुकार-तान अपने शिखर पर है, जहाँ से प्रेम और विरह को तरजीह देती हुई व्यथा पूरी लोक-गरिमा के साथ उद्घाटित हो पाई है।”

ऐसा सिर्फ़ उनके संगीत में ही नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन में भी था। जब उन्होंने एक रईस ख़ानदान के वकील इश्तियाक़ अहमद अब्बासी से निकाह के बाद गाना छोड़ दिया। यही नहीं रामपुर के नवाब रज़ा अली खाँ से विवाह के प्रस्ताव को नामंज़ूर किया, लेकिन जो मंज़ूर किया वह एक विद्रोह था। संगीत-घरानों में गुरु, शिष्य को पहले जाँचता-परखता था, एक बार उसे उसमें वह मनःस्थिति दिख जाती तो गंडा बाँधकर उसे आगे सिखाया जाता। इस रस्म को बीते सालों पहले आई सीरीज़ ‘बंदिश बैंडिट’ में भी दिखाया गया है। बेगम अख़्तर ने इसी गंडा बाँध के ज़रिये अपने दो शागिर्द बनाए—शांति हीरानंद और अंजलि बैनर्जी।

मज़ार की देख-रेख करने वाले हामिद अली, आज भी शांति हीरानंद का ज़िक्र करते हैं। साथ ही साथ कहते हैं—अगर आपको कुछ और जानना है तो माधुरी जी से मिल सकते हैं, जो सफ़ेद बारादरी के पास सनतकदा ट्रस्ट के लिए काम करती हैं। इसी संस्था ने मज़ार के कायाकल्प में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है, जिससे पसंदबाग़ एक बार रौनक़ों से पुनः गुलज़ार हो रहा है, पर उनके बग़ैर... और लौटते वक़्त हम सुदर्शन फ़ाकिर की लिखी और उनकी (बेगम अख़्तर) गाई ठुमरी गाते हुए विदा हुए—

तुम्हारी याद आँसू बनके आई चश्मे वीराँ में
ज़हे क़िस्मत की वीरानों में बरसातें भी होती हैं
हमरी अटरिया पे आओ सँवरिया
देखा देखी बलम होई जाए...

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