साहित्य और संस्कृति की घड़ी
मैं कितना अपढ़ और अहंकारी हुआ जाता हूँ, इसका भान भी पढ़ने और जीने से ही आता है। आजकल ऐसा लगता है कि मैं अपने आप को ही पसंद नहीं आ रहा हूँ। जीवन की अपनी मुश्किलें हैं और आपसे सबकी अपेक्षाएँ भी, प
एम.ए. (दूसरे साल) के किसी सेमेस्टर में पाठ्यक्रम में ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़नी थी। अब संबंध ऐसे घर से था—जहाँ ‘श्रीरामचरितमानस’ और ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ पूजा-पाठ के क्रम में पढ़ने के साथ ही, बुज़ुर्गों द
‘‘सलाम करके गुज़रता था जिस मज़ार को मैं’’ उसने काग़ज़ पर ये मिसरा लिखा और शाइर का नाम सोचने लगा। कुछ देर बाद उसने ये वाक्य : ‘‘अंत ही आरंभ है…’’ लिखा और काट दिया। फिर एक लंबी बुत-नुमाई के बाद कुफ़्र
गए दिनों अमेज़न प्राइम वीडियो पर रिलीज़ हुई एक वेब सीरीज़—‘दुपहिया’। सोशल मीडिया में इस सीरीज़ को लेकर ख़ासी चर्चा हो रही है। काल्पनिक बिहार में काल्पनिक रूप से अपराधमुक्त काल्पनिक गाँव धड़कपुर पर आधा
01 अप्रैल 2025
उनका पूरा नाम विश्वनाथ शर्मा ‘विमलेश’ था। ‘विमलेश राजस्थानी’ भी उन्हें कहा जाता था और कवियों के बीच वह विमलेशजी के नाम से मशहूर थे। विमलेशजी की चार लाइनों और उनके पढ़ने की नक़ल करने वाले सुरेंद्र शर
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर मेरे बचपन के दोस्त अनूप सोनकर ने कानपुर से मुझे फ़ोन पर एक कहानी सुनाई। उसे भी नहीं पता कि यह कहानी उसने कहाँ से अपने ज़ेहन में उतारी और मुझे भी यह अनसुनी-अनपढ़ी लगी! आइए इसे पढ़ते
रहना यहीं था—इसी समाज में, घर के भीतर, घर के बाहर। घर भीतर ढूँढ़ते हुए अब, सब इधर-उधर था। कोई याद अपनी जगह पर नहीं मिल रही है इस जगह। अभी तो रहना है, यह सोचकर यादों को तरतीब देने का मन बना लिया।
ख़ालिद जावेद के उपन्यास ‘नेमत ख़ाना’ से गुज़रते हुए गाहे-ब-गाहे यह महसूस होता है कि निःसंदेह तमाम दुनिया पेट की दौड़ है—इससे ज़्यादा कुछ नहीं, इससे कम कुछ नहीं। आपके अंतर् से पारदर्शी परिचय करवाते इस
प्रत्येक समाज और व्यक्ति के अपने सच होते हैं। ये सच किसी-न-किसी माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं। किताबें किसी व्यक्ति या समाज के अनदेखे सच की अभिव्यक्ति का अनूठा माध्यम हैं। एक ऐसी ही पुस्तक है—महाब्रा
मैं अक्सर सोचती हूँ कि हम सब कितनी सारी चीज़ों से घिरे हैं। एक वयस्क के रूप में जीवन और दुनिया को देखते हुए ऊब गए हैं। अक्सर अपनी ऊब, अपनी चालाकियाँ और कुंठाएँ जाने-अनजाने हम बच्चों तक प्रेषित कर देते