ऐसे वीडियोज हमारी सामूहिक विफलता का दस्तावेज़ हैं
मयंक जैन परिच्छा
01 दिसम्बर 2025
इधर दो-तीन दिनों से इंस्टाग्राम, X और रेडिट जैसे तमाम सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर एक पोर्न वीडियो की चर्चा है। सामान्य तौर पर ऐसे एमएमएस हर रोज़ सैकड़ों की संख्या में प्रसारित होते रहते हैं और लोग उन्हें मज़ाक-मस्ती, चुटकुले या अपनी यौन-कुंठा को शांत करने के लिए देखते और साझा भी करते हैं। लेकिन इस वीडियो की सामग्री उतनी आम नहीं है। यह वीडियो न सिर्फ़ विचलित करने वाला है; बल्कि यह हमारे समाज, हमारे डिजिटल लोकाचार और पोर्नोग्राफी के गहरे प्रभावों को भी उजागर करता है।
इस वीडियो की भयावहता दो स्तरों पर सामने आती है।
एक : वीडियो में दिख रहे दोनों लोग संभवतः नाबालिग हैं, और यह बात अपने आप में हमारी डिजिटल संस्कृति की उस दरार को उजागर करती है; जहाँ किशोर अपने शरीर, सीमाओं और इच्छाओं को बिना किसी मार्गदर्शन, सुरक्षा या समझ के प्रयोग कर रहे हैं।
दो : यह वीडियो इस बात का जीवित प्रमाण है कि पोर्न इंडस्ट्री किस हद तक हमारे वास्तविक जीवन और रिश्तों में प्रवेश कर चुकी है और उन पर घातक असर डाल रही है, जबकि हम इसे स्वीकारने से बचते रहते हैं।
सरकारें सिर्फ़ बैन लगा देती हैं, लेकिन क्या बैन लगाने भर से कुछ बदलता है? युवाओं से बात किए बिना, उन्हें संवेदनशील बनाए बिना और उनके साथ संवाद स्थापित किए बिना पोर्न बैन संभव ही नहीं है।
वीडियो में लड़की ख़ुद रिकॉर्डिंग कर रही है, शायद यही उसका एकमात्र नियंत्रण-बिंदु है। लेकिन ठीक उसी क्षण दृश्य बदल जाता है। लड़का अचानक आक्रामक हो जाता है। वह वैसी क्रियाएँ करने लगता है, जिन्हें लड़की स्पष्ट रूप से नापसंद कर रही है... और विडंबना यह है कि ये वही पोर्नोग्राफिक हरकतें हैं जो पोर्न इंडस्ट्री में भी कई अभिनेत्रियों के लिए पीड़ा, सदमे और शारीरिक आघात का कारण बनती हैं। यह हिंसा इतनी स्पष्ट और असहज है कि उसका वर्णन करना भी मुश्किल लगता है।
यह वीडियो दर्शाता है कि कैसे तकनीक, बाज़ारवाद और हाइपर-मस्क्युलिन कल्पनाएँ मिलकर समाज में मौजूद हिंसा और बेरहमी को और गहरा कर रही हैं।
भारत में सेक्स-एजुकेशन की कमी, पितृसत्तात्मक सामाजिक ढाँचा और भावनात्मक समझ का अभाव; ये तीनों मिलकर एक खतरनाक मिश्रण बनाते हैं। नतीजा यह है कि किशोर डिजिटल स्पेस में बिना किसी अनुमति, मार्गदर्शन और भावनात्मक सुरक्षा के पोर्न को कंज्यूम कर रहे हैं, जिसके परिणाम भ्रम, अपराधबोध, हिंसा और असुरक्षा के रूप में सामने आते हैं।
इंस्टाग्राम और रेडिट पर लोगों की प्रतिक्रियाएँ पढ़ने पर पता चलता है कि स्थिति कितनी ख़तरनाक है। लोग इस वीडियो पर मीम बना रहे हैं, मज़ाक़ कर रहे हैं, लड़के के लुक्स पर टिप्पणी कर रहे हैं, यहाँ तक कि यह तक लिख रहे हैं कि “लड़कियाँ ऐसे ही हिंसक लड़के पसंद करती हैं।” इन्हें पढ़कर साफ़ महसूस होता है कि हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, जहाँ लाइक और शेयर के चक्कर में लोग यह भी नहीं सोचते कि वे कैसा भयानक लोकाचार निर्मित कर रहे हैं।
यह वीडियो कहीं न कहीं हमें यह भी महसूस कराता है कि हमारी पीढ़ी प्रेम को समझना तो चाहती है; लेकिन प्रेम की भाषा सीखने के लिए जिन शब्दों, संवादों और संवेदनाओं की ज़रूरत होती है, उनका कोई विद्यालय हमने बनाया ही नहीं। नतीजतन, युवा पोर्न और फ़िल्मों की ओर मुड़ते हैं।
हमने हाइपर-मस्क्युलिन फ़ैंटेसीज़ और उपभोक्तावादी इच्छाओं को वैधता दी हैच और फिर हैरान होते हैं कि रिश्तों में हिंसा क्यों बढ़ रही है, लोग एक-दूसरे को क्यों नहीं समझ पाते, और अंतरंगता आज भय का अनुभव क्यों बनती जा रही है।
ऐसे वीडियोज हमारी सामूहिक विफलता का दस्तावेज़ हैं। हमने अपने युवाओं को न इच्छा की भाषा सिखाई, न सहमति की, न प्रेम की। तो फिर हम क्या सिखा रहे हैं? हमारा सामाजिक लोकाचार आख़िर युवाओं को किस दिशा में धकेल रहा है?
हमें विचार करने की ज़रूरत है।
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