
(परमेश्वर के स्वरूप के) ध्यान की अपेक्षा कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ है।

ज्ञान की अपेक्षा (परमेश्वर के स्वरूप का) ध्यान श्रेष्ठ है।

तल्लीनता के साथ शून्य ध्यान में मग्न हो जाना यही असली ध्यान है।

जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।

सारे ज्ञान-ध्यान का लक्ष्य सही कर्म है।

ईश्वरीय पुकार दुर्लभ है परंतु वह हृदय जो उस पर ध्यान देता है, दुर्लभतर है।