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प्रत्यक्ष पृथ्वी की चाहना

जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा
जब तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा
और कुछ भी नहीं में सब कुछ होना बचा रहेगा

विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता पंक्तियाँ मुझे दैविक, दैहिक और गहरे आध्यात्मिक ताप की आँच में तपने को विवश करती हैं। पृथ्वी से अमंगल को दूर करने की कामना इन कविताओं में इस चेतावनी की तरह बसी हुई है कि... पृथ्वी के पड़ोस में किसी जीव के न होने का सन्नाटा अब उसके बहुत क़रीब है और समय पड़ने पर पृथ्वी का साथ कौन देगा। पृथ्वी का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह पड़ोस के बिना नहीं रह सकती। वह एक निरंतर जीवन की पड़ोसी होकर ही जी रही है। जिन ग्रहों पर जीवन नहीं है, वे पृथ्वी से घर बसाने की कला सीखने के लिए हुलसते होंगे। पृथ्वी के बारे में सोचो तो लगता है कि महाशून्य में कामनाओं से भरी कोई अकेली माँ अपनी गृहस्थी चला रही हो। उसके इस अकेलेपन को देखने के लिए विनोद कुमार शुक्ल की यह सलाह कितनी मूल्यवान् है... दूर से अपना घर देखना चाहिए... दूसरे देश से अपना देश /अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी /तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद /पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी / घर में अन्न-जल होगा कि नहीं की चिंता / पृथ्वी में अन्न-जल की चिंता होगी।

विनोद कुमार शुक्ल का घर की तरफ़ लौटना पृथ्वी की तरफ़ लौटने जैसा है। समुद्र में डूबती जाती पृथ्वी को देखकर उन्हें सूर्य ऐसे समुद्री पक्षी की तरह लगता है जिसके पंख तेल में लिसटे हुए हैं और वह पृथ्वी की तरफ़ उड़ान नहीं भर पा रहा है। कवि की इच्छा समुद्र से पृथ्वी को सूर्योदय की तरह निकलते देखने की है। विनोद कुमार शुक्ल हिमगिरि के उत्तुंग शिखर से मनु की तरह पृथ्वी को नहीं देख रहे, वे तो पृथ्वी की तरफ़ के समुद्र को अपने हाथों से उलीचकर डूबी हुई पृथ्वी को अथाह जल से बाहर निकाल लाना चाहते हैं।

लगभग आधी सदी पहले कवि अज्ञेय ने आधुनिक हिंदी के प्रकृति काव्य का ‘रूपांबरा’ नाम से संकलन कर जो विवेचन प्रस्तुत किया, विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ पढ़ते हुए उसका सहज ही स्मरण हो आता है। हिंदी में आधुनिक ज्ञानपीठ की स्थापना करने वाले कवि अज्ञेय आधुनिक प्रकृति-काव्य के संदर्भ में प्रकृति में काव्य और काव्य में प्रकृति को एक बड़ी काव्य-परंपरा के फ़लक पर परखते हैं। अज्ञेय कहते हैं... राग-संबंध अनिवार्य रूप से साहित्य का क्षेत्र है। किंतु राग-संबंध उतने ही अनिवार्य रूप से साहित्यकार की दार्शनिक पीठिका पर निर्भर करते हैं। यदि हम मानते हैं कि प्रकृति सद् है, मूलतः कल्याणमय है, तब उसके साथ हमारा राग-संबंध एक प्रकार का होगा। यदि हम मानते हैं कि प्रकृति मूलतः असद् है तो स्पष्ट ही हमारी रागवृत्ति की दिशा दूसरी होगी। यदि हम मानते हैं कि प्रकृति त्रिगुणमय है; किंतु अविवेकी है, तो हमारी प्रवृत्ति और होगी और यदि हमारी धारणा है कि प्रकृति सद्-असद् से परे है तो हम उसके साथ दूसरे ही प्रकार का राग-संबंध चाहेंगे कि जहाँ तक प्रकृति का संबंध है, हम वीतराग हो जावें।

प्रकृति से वीतराग होकर कवि होना किसी समय में संभव नहीं रहा। वैदिक पृथ्वी सूक्त से लेकर आधुनिक हिंदी के प्रकृति-काव्य तक कवियों का प्रकृति से विरत होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। हिंदी-काव्य में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ से लेकर शमशेर बहादुर सिंह तक कोई कवि प्रकृति से वीतराग नहीं। विनोद कुमार शुक्ल भी नहीं। यह ज़रूर है कि विनोद कुमार शुक्ल बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में वैदिक उषा-सूक्त और पृथ्वी-सूक्त को नए राग-संबंध से रचते हैं। उनकी कविता में वैदिक कवि जैसा विस्मय नहीं, वह तो सूखी नदी की रेत में दबी रह गई मछली, शिला में बंद एक बूँद पानी और सबसे बूढ़े आदमी के प्राणों में सुरक्षित धान के बीज को फिर से खोज रही है। वह जेल से बाहर की साँस खोजती कविता है। हिंदी के प्रकृति-काव्य पर दृष्टि डालें तो इस कविता में हरिऔध की तरह हरितिमा के विशाल सिंधु-सा प्रशांत दर्शनीय वृंदावन नहीं है। मैथिलीशरण गुप्त जैसी पंचवटी-शोभा भी नहीं है। जयशंकर प्रसाद के रचे ऋषियों के कानन-कुंज भी नहीं हैं। निराला की तरह सौंदर्यगर्विता सरिता के विस्तृत वक्षस्थल भी नहीं हैं। सुमित्रानंदन पंत की कविता जैसी लहरों की पूँछ उठाए रँभाती नदियाँ नहीं हैं। महादेवी की पुलकती वसंत-रजनी भी नहीं। बहुत नीले शंख जैसा शमशेर का प्रातः नभ भी नहीं। यदि सुमित्रानंदन पंत की छाया कविता के सहारे कहें तो विनोद कुमार शुक्ल की कविता समकालीन हिंदी साहित्य की प्रकृति पर पछतावे की परछाई-सी छाकर सबके मानस-सागर के तट को आंदोलित कर रही है।

विनोद कुमार शुक्ल की कविता हमें यह बार-बार याद दिला रही है कि धरती छोड़‌कर पृथ्वी पर कोई नहीं उड़ रहा। उनके समकालीन अशोक वाजपेयी की कविता भी धरती के मटमैलेपन पर वापसी की ही गवाही दे रही है। उनके एक और समकालीन कवि कमलेश की कविता भी खुले में आवास खोज रही है। विनोद कुमार शुक्ल सब कुछ होने को बचाने के लिए कुछ भी अतिरिक्त नहीं चाहते... न दर्शन और न विचारधारा। वह प्रत्यक्ष पृथ्वी ही चाहते हैं, जहाँ कविता संभव होती है।

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यहाँ प्रस्तुत आलेख ‘पाखी’ [अक्टूबर 2013, विनोद कुमार शुक्ल पर एकाग्र] से साभार है। विकुशुयोग के अंतर्गत प्रकाशित अन्य लेख यहाँ पढ़िए : ‘नहीं होने’ में क्या देखते हैं | हिंदी का अपना पहला ‘नेटिव जीनियस’ | सामान्य जीवन-प्रसंगों का कहानीकार | इसे ‘विनोदकुमारशुक्लपन’ कहूँगा | कितना बहुत है पर... | विडंबना, विस्मय और वक्तव्य

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