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विनोबा भावे

1895 - 1982 | महाराष्ट्र

विनोबा भावे की संपूर्ण रचनाएँ

उद्धरण 20

कोई भी कर्म जब इस भावना से किया जाता है कि वह परमेश्वर का है तो मामूली होने पर भी पवित्र बन जाता है।

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जीवन के सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है, उसी को 'योग' कहते हैं। सांख्य का अर्थ है— 'सिद्धांत' अथवा 'शास्त्र' और 'योग' का अर्थ है 'कला'।

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कर्म वही, परंतु भावना-भेद से उसमें अंतर पड़ जाता है। परमार्थी मनुष्य का कर्म आत्म-विकासक होता है, तो संसारी मनुष्य का कर्म आत्म-बंधक सिद्ध होता है।

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निष्काम कर्मयोगी तभी सिद्ध होता है जब हमारे बाह्य कर्म के साथ अंदर से चित्तशुद्धि रूपी कर्म का भी संयोग होता है।

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ज्ञान मंत्र है। कर्म तंत्र है। उपासना दोनों को जोड़ देती है।

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