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राजकमल चौधरी

1929 - 1967 | महिषी, बिहार

अकविता दौर के कवि-कथाकार और अनुवादक। जोखिमों से भरा बीहड़ जीवन जीने के लिए उल्लेखनीय।

अकविता दौर के कवि-कथाकार और अनुवादक। जोखिमों से भरा बीहड़ जीवन जीने के लिए उल्लेखनीय।

राजकमल चौधरी के उद्धरण

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‘तत्काल’ के सिवा और कोई काल चिंतनीय नहीं है।

  • संबंधित विषय : समय

प्रकृति, आदर्श, जीवन-मूल्य, परंपरा, संस्कार, चमत्कार—इत्यादि से मुझे कोई मोह नहीं है।

मैं शरीर में रहकर भी शरीर-मुक्त, और समाज में रहकर भी समाज-मुक्त हूँ।

परिश्रम और प्रतिभा आप-ही-आप आदमी को अकेला बना देती है।

जानने की कोशिश मत करो। कोशिश करोगे तो पागल हो जाओगे।

शरीर के महत्त्व को, अपने देश के महत्त्व को समझने के लिए बीमार होना बेहद ज़रूरी बात है।

कविता के रंग चित्रकला के प्रकृति-रंग नहीं होते।

मेरी कविता की इच्छा और मेरी कविता की शब्दावली, मेरी अपनी इच्छा और मेरी अपनी शब्दावली है।

आसक्तियाँ और रोग—ये दोनों वस्तुएँ आदमी को पराक्रमी और स्वाधीन करती हैं।

मेरा संपूर्ण जीवन इच्छा का मात्र एक क्षण है।

हम प्यार करते हुए भी सच को, गंदगी को, अँधेरे को, पाप को भूल नहीं पाते हैं।

दोहरी ज़िंदगी की सुविधाओं से मुझे प्रेम नहीं है।

सफल होना मेरे लिए संभव नहीं है। मेरे लिए केवल संभव है—होना।

मैं सवाल-जवाब करता रहता हूँ, जब तक नींद नहीं जाए।

मैं महत्त्व देता हूँ—‘प्रिय’ होने को। और ज़रूरी नहीं है कि जो कवि मुझे प्रिय हो, वही कवि आपको भी प्रिय हो।

वर्तमान ही मेरे शरीर का एकमात्र प्रवेश-द्वार है।

जीवन निर्णय नहीं निरंतर भय है।

राजनीति बुरी बात नहीं है। बुरी बात है राजनीति की कविता।

मनुष्य होना मेरी नियति थी, और लेखक मैं स्वेच्छा से, अर्जित प्रतिभा और अर्जित संस्कारों से हुआ हूँ।

ज्ञान अपनी संपूर्णता में प्रकृतिगत छल है—संबल है, हम सबका एक मात्र अज्ञान।

सोचते रहो। उदास रहो और बीमार बने रहो।

  • संबंधित विषय : रोग

व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था किसी दिन भी नहीं थी।

कविता-भंगिमाओं से मुक्ति का प्रयास ही कविता है, सुर्रियलिस्टों की यह बात मुझे स्वीकार हो, पसंद ज़रूर आई है।

अव्यवस्था का यथार्थ ही नहीं, व्यवस्था की कल्पना भी अपने आपमें अव्यवस्था ही है।

शून्य में भी कविता अपने शरीरी और अशरीरी व्यक्तित्व का स्थापन और प्रसार करती है।

मुक्ति-प्रयास ही कविता का धर्म है।

कविता हमारे लिए भावनाओं का मायाजाल नहीं है। जिनके लिए कविता ऐसी थी, वे लोग बीत चुके हैं।

आत्महत्या को मैं मुक्ति की प्रार्थना कहता हूँ, अपराध या पलायन नहीं मानता।

परिश्रम आदमी को भीड़ बनने, और प्रतिभा भीड़ में खो जाने की इजाज़त नहीं देती।

राजनीति किसी भी ‘मूल्य’ और किसी भी ‘संस्कार’ पर विश्वास नहीं करती है।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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