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कालिदास

संस्कृत के महाकवि और नाटककार। 'कुमारसंभवम्', 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्', 'रघुवंशम्', 'मेघदूतम्', 'विक्रमोर्वशीयम्' आदि कृतियों के लिए समादृत।

संस्कृत के महाकवि और नाटककार। 'कुमारसंभवम्', 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्', 'रघुवंशम्', 'मेघदूतम्', 'विक्रमोर्वशीयम्' आदि कृतियों के लिए समादृत।

कालिदास के उद्धरण

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अज्ञानवश डोंगी से सागर पार करने की इच्छा कर रहा हूँ।

वस्तुतः स्त्रियों को अपने इष्ट व्यक्ति (प्रियतम) के प्रवास से उत्पन्न दुःख अत्यंत असह्य होते हैं।

स्त्रियों में जो मनुष्य जाति से भिन्न स्त्रियाँ हैं, उनमें भी बिना शिक्षा के ही चतुरता देखी जाती है, जो ज्ञान संपन्न है, उनका तो कहना ही क्या! कोयल आकाश में उड़ने की सामर्थ्य होने तक अपने बच्चों का अन्य पक्षियों से पालन करवाती है।

चोरी के माल के साथ पकड़ा हुआ चोर अब कह ही क्या सकता है?

निर्मल चंद्रमा पर पड़ी पृथ्वी की छाया को लोग चंद्रमा का कलंक कहकर उसे बदनाम करते हैं।

जब कोई पराक्रमी अपने बल से अपने शत्रुओं को जीत लेता है तो उसका प्रणाम भी उसकी कीर्ति ही बढ़ाता है।

समुद्र के समान वह प्रतिक्षण मेरे नेत्रों को क्षण-क्षण में नया-नया-सा दिखाई पड़ रहा है।

भिन्न-भिन्न रुचि वाले लोगों के लिए प्रायः नाटक ही एक ऐसा उत्सव है जिसमें सबको एक-सा आनंद मिलता है।

स्त्रियाँ प्रत्युत्पन्नमति होती हैं।

प्रिय जनों में बँटा हुआ दुःख सह्य हो जाता है।

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अपने सामने बंधुजनों को देखकर दुःख का द्वार खुल-सा जाता है।

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धर्म की रक्षा के लिए ही विष्णु संसार में अवतार लेते हैं।

स्त्रियों का शृंगार प्रिय के देखने पर ही सफल होता है।

जैसी होनी होती है, वैसी ही बुद्धि इंद्रियाँ भी हो जाती हैं।

दुष्ट व्यक्ति प्रत्यपकार से ही शांत होता है, उपकार से नहीं।

ईंधन से जलाई गई अग्नि कृषि योग्य पृथ्वी को जला भले ही देती है, किंतु उसे इस योग्य अवश्य कर देती है कि बीजों में अंकुर उपजा सके।

हमारे जैसे लोगों को एकांत विध्वंसशील (नश्वर) इस शरीर के प्रति मोह नहीं होता।

व्यर्थ कार्यों के लिए प्रयत्न करने वाले कौन व्यक्ति सचमुच तिरस्कार के पात्र नहीं होते?

महात्माओं की वाणी कभी भी संसार में मिथ्या नहीं होती।

छोटे लोग भी पहले के उपकार का ध्यान करके मित्र के आश्रय के लिए आने पर विमुख नहीं होते—फिर ऊँचे लोगों का तो कहना ही क्या।

मित्रों का काम पूरा करने के लिए सन्नद्ध लोग कभी अपनी गति मंद नहीं करते।

जैसे बीच में विषम शिलाओं के जाने से नदी का वेग बढ़ जाता है वैसे ही अपने प्रिय से मिलने के सुख में बाधाएँ जाती हैं तो प्रेम सोगुना हो जाता है।

सज्जनों का लेना भी देने के लिए ही होता है जैसे बादलों का।

उत्कृष्ट शिष्य को दी गई शिक्षक की कला अधिक गुणवती है जैसे मेघ का जल समुद्र की सीपी में पड़ने पर मोती बन जाता है।

सज्जन लोगों का याचकों के प्रति अभिलषित वस्तु को करके दिखाना ही उत्तर होता है।

महापुरुषों के क्रोध को शांत करने का उपाय उनकी शरण में चले जाना है।

विष-वृक्ष को भी स्वयं बढ़ाकर अपने ही हाथ से काटना ठीक नहीं।

अकेला व्यक्ति यदि सर्वज्ञ भी हो तो भी उसके निर्णय में दोष हो ही सकता है।

स्त्री के प्रति पुरुष का प्रेम चंचल होता हैं, परंतु मित्र के प्रति प्रेम चंचल नहीं होता।

औषधि तभी काम करती है, जब आयु शेष हो।

अग्नि लकड़ियों को हिला देने से प्रज्वलित हो जाती है। साँप छेड़ने पर अपना फन फैलाता है। इसी प्रकार मनुष्य भी प्रायः क्षोभ से अपने पराक्रम को प्राप्त होता है।

प्रायः समान विद्या वाले लोग एक-दूसरे के यश से ईर्ष्या करते हैं।

पिंड खजूर से अरुचि उत्पन्न हुए व्यक्ति को इमली की इच्छा होती है।

स्त्रियाँ स्वभाव से ही चतुर होती हैं।

यदि कोई पति प्रेम के बिना केवल प्रिय वचन बोलकर ही स्त्रियों को मनाता है तो उसकी बातें उनके हृदय में उसी प्रकार नहीं जँचती हैं, जैसे कृत्रिम रंग से रंगी मणि उसके पारखी के हृदय को।

अग्नि की महिमा इसी में मानी जाती है कि वह समुद्र में भी वैसे ही प्रज्वलित हो जैसे सूखी घास में।

बड़े लोगों से प्राप्त सम्मान अपने गुणों में विश्वास उत्पन्न कर देता है।

जिसने जन्म से लेकर आज तक धूर्तता नहीं सीखी है, उस व्यक्ति की बात तो अप्रामाणिक है और जो दूसरों को धोखा देने को एक विधा के रूप में सीखते हैं, वे पूर्ण सत्यवादी माने जाएँ।

कन्या तो दूसरे की ही संपत्ति होती है।

मन पिछले जन्म के संबंध को भली भाँति जानता है।

यदि नए पल्लवों में श्वेत फूल रख दिया जाए या लाल वर्ण के मूँगे पर उज्ज्वल मोती रख दिया जाए तो उन (पार्वती) के अरुण अधरों पर कांति-वर्षा करने वाली मंद स्मिति की तुलना कर सकते हैं।

क्या पृथ्वी पर पानी बरसाने के लिए भगवान मेंढकों की टर्र-टर्र की प्रतीक्षा करता है।

अरे, इच्छित वस्तु मिल जाने पर कैसे विरोधी प्रभाव होते हैं।

मनुष्य उत्सव-प्रेमी होते हैं।

विद्वानों का कहना है कि शरीरधारियों के लिए मरना स्वाभाविक है, जीना ही विकार है।

पतिव्रता स्त्रियाँ अपने पति की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करती हैं।

परस्पर विरोधिनी लक्ष्मी और सरस्वती का, एक ही स्थान पर कठिनता से पाया जाने वाला मेल सत्पुरुषों की उन्नति करने वाला हो।

काम से पीड़ित लोग जड़-चेतन पदार्थों के संबंध में स्वभावतः विवेकशून्य हो जाया करते हैं।

प्रायः गृहस्थ जन कन्या संबंधी बातों में अपनी पत्नियों को नेत्र मानकर कार्य करते हैं।

यशस्वी लोगों को शत्रुओं से यश की रक्षा करनी चाहिए।

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