कहानी : दाहिना हाथ
शिवा तिवारी
23 दिसम्बर 2025
फ़रवरी का महीना बीते कुछ ही दिन हुए। अभी ठंड मौसम से गई नहीं। रात के अँधेरे में मोहल्ले के घरों की बत्तियाँ बूझा दी गईं। सभी अपने घरों में सोने जा चुके होंगे। ऐसे में भौ-भौ की आवाज़ होते ही शहबाज़ कमरे से निकलकर बाहर लगे गेट की साँकल खोलता है और बिस्कुट के पैकट खोल कुत्ते के सामने रख देता है। कुत्ता बिस्कुट को सूँघता है, पूँछ हिलाता हुआ खाने लगता है। शहबाज़ कमरे में वापस जाने के लिए मुड़ता है। तभी उसके कानों में औरत के चीखने और रोने की आवाज़ सुनाई पड़ती है। वह अंचभित-सा हो इधर-उधर नज़र घूमाता है। उसे लगता है, आवाज़ बग़ल के घर से आ रही है। वह हड़बड़ाहट में गेट की साँकल बजाता है। आवाज़ बंद हो जाती है। कुत्ता भी इस बीच खाना छोड़ एक-दो बार भौंकता है और बिस्कुट खाकर गेट के बग़ल में निश्चिंत बैठ जाता है।
कुत्ता जिसका नाम भूरा है, यह नाम मुहल्ले से उसे उसके शरीर के रंग की वजह से मिला है। वह अक्सर यहाँ बैठा रहता है। उसे इन्हीं कुछ घरों से खाना मिलता रहा है। पड़ोस का घर अभी कुछ दिन पहले ख़ाली था। अब उसमें नया परिवार आकर रहने लगा है। परिवार छोटा है। पति-पत्नी और दो बच्चे जिसमें लड़के की उम्र दस और लड़की पंद्रह साल के लगभग होगी। गोरे, छोटे कद, मोटे और थुलथुल शरीर की पत्नी विमला बेहद मेहनती है। बड़ी सुबह ही घर के सारे काम निपटाकर वह सिलाई करने बैठ जाती है। आस-पास के घरों के ब्लाउज वह अक्सर सिलती रही है। इससे उसकी कुछ आमदनी हो जाती है। पति लोहे-खंडर की दुकान सँभालता है। घर जैसे-तैसे चल जाता है। दोनों बच्चे स्कूल जाते हैं। बेटी का स्कूल बैग फट गया है और वह कई बार माँ से कह चुकी है। कल उसने फिर कहाँ वह स्कूल बिना नए बैग के नहीं जाएगी। जिस पर पत्नी ने पति से आज ही बैग लाने को कहाँ था। पति स्कूल बैग तो ना ला सका, दारू पीकर आ गया और बात-बहस बढ़ते-बढ़ते मार-पीट तक आ गई। अंत में विमला ने अपने मन का गुब्बार यह कहकर कम किया कि वह कल सब छोड़कर चली जाएगी।
सुबह जैसे रोज़ होती थी वैसी ही हुई। घर के सामने नीम के पेड़ों पर बैठी चिड़िया चहक रही थी। सूरज निकल आया था। दोनों बच्चे स्कूल की तैयारी में लगे थे। पति अभी बिस्तर पर करवट बदलकर ऊँघ रहा था और विमला अपने दाहिने हाथ को कभी देखती, कभी उसे बाएँ हाथ से सहलाती। सूजन अभी बहुत थी। वह सुबह उठते ही दर्द की गोली खा चुकी थी। बर्तन बेटी मोहनी धूल गई। कुछ स्कूल से आकर धूल देगी। घर का आँगन अभी ऐसे ही पड़ा है। अब शायद कुछ दिन वह आँगन साफ़ नहीं कर सकेगी। यह सोचकर वह गहरी साँस लेती है कि दूर से उसे कुछ गाने बजने की आवाज़ आती है। वह कूड़ा समेटने लगती है। कूड़े की गाड़ी कुछ इसी तरह आवाज़ करती हुई आती है। बाहर उसके गेट की साँकल बजे इससे पहले वह बाएँ हाथ से कूड़ा और दाहिने हाथ को दुपट्टे से ढकती हुई बाहर जाती है। वह कुछ आहिस्ता गाड़ी के क़रीब जाकर बाएँ हाथ से कूड़ा पकड़ाती है और गाड़ी के ऊपर बैठे आदमी से अपने दाहिने हाथ को छुपाने की कोशिश करती है। आदमी कूड़ा पाते ही उसमें कुछ तलाशता हुआ व्यस्त हो जाता है।
कूड़ेवाले के साँकल बजाने से शहबाज़ की नींद खुलती है। वह कूड़ा उठाकर बाहर दौड़ता है कि उसे विमला दिखती है और अनायास ही उसके चेहरे पर उसकी नज़र पड़ जाती है—उधर विमला सर का पल्लू ठीक करती हुई जा रही थी।
छह फ़ीट का गोरा रंग, लंबे शरीर का शहबाज़ जब विमला से अनायास ही टकरा जाता है। तो विमला आँखे बचाकर तेज़-तेज़ क़दमों से गेट का साँकल लगा आँगन को पार करती कमरे में चली जाती है। कमरे में घुसते ही वह सबसे पहले आईने पर नज़र डालती है। वह आश्वस्त होना चाहती है कि कल की घटना का कोई शिकन उसके चेहरे पर तो नहीं। वह सिर पर पड़े दुपट्टे को कभी कम करती है तो कभी ज़्यादा। ना जाने उसका मन क्यों यह बार-बार सोचता है कि कल हुए की ख़बर पड़ोस में रहने वाले शहबाज़ तक तो नहीं गई। इस विचार से ही ना जाने उसका मन कैसे तर्क में फँस जाता है। अगर उसे ख़बर भी हो तो क्या फ़र्क़ पड़ता है। कौन औरत अपने मर्द से नहीं पिटती, छुप्पन-छुपाई से तो सभी एक-आधा हाथ अपनी औरत पर लगा ही देते हैं। फिर क्या मुझे नहीं पता इनके ख़ुद के समाज में भी तो वही बुराई है। औरत जहाँ भी हो आदमी उसे कमतर ही समझता है। जहाँ पहले हम किराये से रहते थे, वहाँ भी तो रुक़ैया उसका कितना बुरा हाल था। कितना मारता था। थाना कचहरी के बाद भी वही मारना-पिटना। जो भी हो मर्द तो मर्द ही होता है। विमला तर्क के आयाम को पार करती हुई कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है। जबकि सच वह जानती थी कि बाहर भूरे को रोटी वह भी देती थी। शहबाज़ को बिस्कुट देते, उसने कई बार शाम को निकलते देखा था। वह साँकल आप ही नहीं बजी बल्कि बजाई गई थी और यदि वह साँकल ना बजती तो आज उसका दाहिना हाथ टूट चुका होता। जहाँ अभी केवल ज़ख़्म है।
माँ कितनी बार समझाती रही। आदमी से तो ऊँच-नीच हो जाती है। औरत ही सब सँभालती है। फिर भी भाई मेरा हमेशा साथ खड़ा रहा, कहता रहा चल एक बार थाना कचहरी करके देख, क्या पता सँभल जाए। पर मैं तो मैं थी, अपनी ही बात में अडिग थी। सोचा वक़्त के साथ सब ठीक होता चला जाएगा। और अब यह पंद्रह साल की घुटन जैसे दबोचती जा रही है। बच्चों के सामने कहीं भी पीटने लगते हैं। जरा ग़ुस्सा क्या शरीर पर ज़ख़्म ही ज़ख़्म भर आते हैं। और अब नहीं सहा जाता। अब...! अब ना रूकूँगी। माँ के पास चली जाऊँगीं। सिलाई के पैसे से जीवन निबाह लूँगी। भाई के लिए तो अब भी मैं वही हूँ। फिर उसके बच्चे नहीं है। उसे भी घर मिल जाएगा। जहाँ बच्चों की गूँजें होंगी। वह यह सोचती-सोचती चारपाई पर बिखरे कपड़े समेटती है। घर साफ़ करती है। खाना बनाती है। अपने और बच्चों के कपड़े बैग में भरती है। यह सब कर जब कमरे के बाहर आँगन में आती है, तो कुछ शांत और एकांत-सा लगता है। वह वहीं रखी कुर्सी पर बैठ जाती है, बैठते ही उसकी नज़र सामने रखे पौधों पर पड़ती है। कई दिनों से पानी समय पर नहीं आने पर वह इन्हें पानी नहीं दे सकी, और अब तो उसकी हालत भी नहीं। कौन बाल्टी में पानी भर कर ला कर दे? मेरे ये हाथ होफ़...। वह शांत हो जाती है। फिर ये गुलाब, मनी प्लांट और गेंदे के पौधे यूँ ही मर जाएँगे, इस ख़याल से ही वह उठकर बाएँ हाथ से बड़े से मग में पानी ले आती है। और आहिस्ता से सभी पौधो में थोड़ा-थोड़ा पानी ड़ाल देती है। वह फिर एक लंबी साँस लेती हुई वापस कुर्सी में जाकर बैठ जाती है। बैठते ही वह फिर दाहीने हाथ पर आई सूजन को दबा-दबाकर देखने लगती है। ना जाने कैसी पीड़ा उसके मन में उठती है कि आँसू की दो बूँदें उसकी हथेली पर आ गिरते हैं। यह पीड़ा शरीर के दर्द की नहीं वह यह जानती है। वह इतने सालों में ना जाने कितने ऐसे ज़ख़्म देख चुकी है। यह पीड़ा तो मन के उन घावों की है जो वह इच्छा लेकर इस घर में आई थी। वह इच्छाएँ कभी सामीप्य नहीं पा सकी और ना सम्मान। बहुत खीझ जाने पर पति आएगा, उसे मनाएगा और हर ज़ख़्म की तरह ही यह भी मिट जाएँगे। लेकिन उन ज़ख़्मों का क्या जो मन पर पड़ते-पड़ते सड़ चुके हैं। और वह नया ज़ख़्म लेने को तैयार नहीं।
सुबह की धूप हटकर अब जैसे ऊब पैदा कर रही है। विमला कुर्सी से उठती है। और घड़ी को देखती है। अभी एक बजे हैं। बच्चों के आने के बाद चार बजे वह निकल जाएगी। आज उसका समय जैसे काटे नहीं कट रहा। वह कभी बिस्तर पर लेटती है। कभी बाहर आँगन पर बैठती है और कभी छत पर टहल आती है। छत पर टहलते उसे बच्चे स्कूल से आते दिख जाते हैं। वह सीढ़ी पर चली आती है। आज उसके कामों में ना जाने कैसी आतुरता है और एक उदासी भी। बच्चों को खाना-खिलाकर वह फिर काम में लग जाती है। दवा का असर कम होते ही हाथ फिर पीड़ा से जूझ पड़ता है। वह बेटी मोहनी को बर्तन साफ़ कर तैयार हो जाने को कहती है। बेटा खाना-खाकर एक घंटे में आता है, कहकर गया है। वह बच्चों पर कभी सख्ती नहीं करती। उसके जीवन की उदासीनता बच्चे ही तो ख़त्म करते है। सच सब वह बच्चों के लिए ही तो सहती रही है। और बच्चों के लिए वह अब यहाँ से चली जाएगी।
बाहर चिड़िया ची-ची... कर रही है। भूरा, शहबाज़ के घर के सामने बैठ ऊँघ रहा है। वह उसे खाने में से बची रोटियाँ दे आती है। अंदर आते ही मोहनी कहती है। “चार बज गये माँ, हम तैयार है।” और टीवी देखने बैठ जाती है। वह हाँ में सर हिलाती है। तैयार रखा बैग खोल उसमें फिर दो कपड़े भरने लगती है। उसने बच्चों को चलने कहाँ है। यह नहीं बताया कहाँ जा रहे हैं। बच्चे हैं। आप ही समझ जाएँगें। बेटा खेलने गया है। आता ही होगा। पति सात बजे लौटेंगे। वह पाँच की बस पकड़कर मायके पहुँच जाएगी और बच्चों के साथ एक दूसरा जीवन शुरू करेगी। विमला सब सोच ही रही होती है कि उसे बाहर की साँकल खुलने की आवाज़ कानों में पड़ती है। वह अचंभीत होकर रसोई से देखती है। वह जानती है। पति है। उनकी गाड़ी की आवाज़ वह उनके दिए ज़ख़्मों की तरह पहचानती है। पर इस वक़्त आने की उम्मींद नहीं थी। वह मोहनी को आवाज़ देता है। और बेटी दबे क़दमों पिता के पास आ जाती है। माँ और पिता का झगड़ा वह जानती है। माँ को पिटते भी देखती है। इस पर क्या ग़लत है क्या सही यह उसका मन समझता है। और इसलिए शायद वह अपने में सहमी रहती है। “ले तेरा स्कूल बैग ले आया।” मोहनी ख़ुशी-ख़ुशी उसे लेकर माँ को दिखाती है। वह देखती है। पर कुछ कह नहीं पाती है। शब्द उसके मुँह में जड़ हो जाते हैं। वह अपने दाहिने हाथ को देखती और एक हल्की इस्स...। उसके मुँह से निकलती है। जिसे वह होंठ दबाकर कम कर लेती है। “कहीं जा रही हो क्या? तरकारी लेने! मैं कह आया हूँ, मिस्री हिसाब के वक़्त लेता आएगा।” पति कहता हुआ अंदर चला जाता है। विमला कुछ कहे बिना मुड़ती है। और रसोई में जा उमड़ते आँसू पोंछती हुई चाय छानकर ले आती है।
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बेला पॉपुलर
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