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तिरुवल्लुवर

समादृत और अत्यंत लोकप्रिय प्राचीन तमिल संत कवि और दार्शनिक। संगम साहित्य में योगदान।

समादृत और अत्यंत लोकप्रिय प्राचीन तमिल संत कवि और दार्शनिक। संगम साहित्य में योगदान।

तिरुवल्लुवर के उद्धरण

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शत्रु में दोष देखकर बुद्धिमान झट वहीं क्रोध को व्यक्त नहीं करते हैं, अपितु समय को देखकर उस ज्वाला को मन में ही समाए रखते हैं।

आतिथ्य का निर्वाह करने की मूढ़ता ही धनी की दरिद्रता है। यह बुद्धिहीनों में ही होती है।

अनेक विद्याओं का अध्ययन करके भी जो समाज के साथ मिलकर आचरणयुक्त जीवन व्यतीत करना नहीं जानते, वे अज्ञानी ही समझे जाएँगे।

मुँह टेढ़ा करके देखने मात्र से अतिथि का आनंद उड़ जाता है।

नेत्रों से प्रेम-रोग को अभिव्यक्त करके (पृथक होने की) याचना करने में स्त्री का स्त्रीत्व-विशेष माना जाता है। ढिढोरा पीटने वाले मेरे जैसे नेत्र जिनके हों, उनके हृदय की गुप्त बातों को समझना दूसरों के लिए कठिन नहीं है।

श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थों से भी अधिक दुर्लभ है।

हृदय में दूषित विचार का आना भी दोष ही है।

घर की दीवारों में स्त्री को मर्यादित रखना किस काम का? वास्तविक मर्यादा तो उसका सतीत्व ही है।

स्नेह से उत्पन्न दया नामक शिशु, धन नामक धाय से पोषित होता है।

दूसरों के दोषों के समान अपना दोष देखने लगे तो जीवमात्र को कोई दुःख कभी नहीं हो सकता।

  • संबंधित विषय : दुख

नम्रता एवं मधुर वचन ही मनुष्य के आभूषण हैं।अन्य वस्तुतः आभूषण नहीं हैं।

नम्र व्यवहार सबके लिए अच्छा है, पर उस में भी धनवानों के लिए तो अमूल्य धन के समान होता है।

जो स्वयं भी भोगे और उपयुक्त व्यक्ति को भी कुछ दे, वह विशाल संपत्ति के लिए एक व्याधि है।

अभावों में अभाव है बुद्धि का अभाव। दूसरे अभावों को संसार अभाव नहीं मानता।

जो देता है और भोगता नहीं है, उसके पास करोड़ों क्यों संग्रहीत हों, सब व्यर्थ ही है।

ईर्ष्या, लोभ, क्रोध एवं कठोर वचन—इन चार सदा बचते रहना ही वस्तुतः धर्म है।

दुःख से दुःखित होने वाले उस दुःख को ही दुःखित कर देंगे।

दूसरों के दोषों का ही जो बखान करता है, उसके दोषों की आलोचना दूसरे करेंगे, और वह निंदित होगा।

रोगों के आगार शरीर में किरायेदार के समान उपस्थित प्राण के लिए, मानो अभी तक कोई शाश्वत स्थान ही प्राप्त नहीं हुआ।

निर्दोष व्यक्तियों का संबंध छोड़ो! दुख के समय जिसने सहायता की हो उसकी मित्रता को त्यागो।

पुत्र को सभा में अग्रिम स्थान में बैठने योग्य बनाना पिता का सबसे बड़ा उपकार होगा।

पूर्वज, भगवान, अतिथि, बंधु तथा स्वयं इन पाँचों के लिए धर्मानुकूल सतत कर्म करना ही गृहस्थ का प्रधान कर्त्तव्य है।

धन में अस्थिरता का स्वभाव होता है। वह प्राप्त हो तो तुरंत स्थिर धर्मों को संपन्न करना चाहिए।

संसार कुछ भी करता फिरे, हल पर ही आश्रित है। अतएव कष्टप्रद होने पर भी कृषि कर्म ही श्रेष्ठ है।

धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह ज़रा कम पड़ने पर अपना सिर ऊँचा बनाए रखो।

  • संबंधित विषय : धन

तो धर्म से श्रेष्ठ कोई वस्तु है, और उसका विस्मरण जैसा कोई पतन।

उचित उपाय से किया हुआ प्रयास अन्य अनेक व्यक्तियों का आश्रय प्राप्त होने पर भी व्यर्थ हो जाएगा।

घर गृहस्थी का मूल उद्देश्य ही आतिथ्य परोपकार है।

कृषकों का जीवन ही जीवन है। अन्य सब दूसरों की वंदना करके भोजन पाकर उनके पीछे चलने वाले ही हैं।

मूढ़ को अधिक संपत्ति प्राप्त हो तो उसके अपने तो भूखे रहेंगे और दूसरे लाभांवित होंगे।

मुख को ही हँसाने वाली मित्रता कोई मित्रता नहीं है। हृदय को आनंदित करने वाली मित्रता ही मित्रता है।

मूढ़ एक ही जन्म में सात जन्मों की नरक—वेदना का अधिकार अपने लिए सृजन कर लेने की क्षमता रखता है।

सौभाग्य होना किसी के लिए दोष नहीं है। समझकर सत्प्रयत्न करना ही दोष है।

किसी उपकार के प्रतिरूप किया गया उपकार कभी पूर्वकृत उपकार के समान नहीं हो सकता, यह तो उपकृत व्यक्ति की गुण-गरिमा के अनुसार ही होता है।

बुद्धिमानों की मित्रता बढ़ते हुए बालचंद्र के समान, तथा, मूर्खों की मित्रता घटते हुए पूर्ण चंद्र के समान होती है।

अपने माँस की वृद्धि के लिए दूसरे प्राणी के शरीर का भक्षण करने वाला दयावान कैसे हो सकता है?

कोई स्वयं अपनी रक्षा करना चाहे तो क्रोध से रक्षा करे। अन्यथा क्रोध ही उसे मार डालेगा।

लिखते समय नेत्र लेखनी को जैसे नहीं देखते, वैसे ही प्रियतम को देखते ही उनके दोष में नहीं देखती।

  • संबंधित विषय : आँख

श्रेष्ठता कुसंग से डरती है। नीचता ही उसे बंधु मानकर उससे घनिष्ठ संबंध स्थापित कर देती है।

प्रियतम आवे तो निद्रा नहीं आती, और अगर भी जाए तब भी नहीं आती। इनके मध्य में मेरे ये नेत्र असह्य दुःख से पीड़ित हैं।

इच्छा रखनी ही है तो पुनः जन्म लेने की इच्छा रखनी चाहिए।

वे ही संसार सागर से तरेंगे जो ईश्वर के श्री चरणों में स्थिर रहेंगे, अन्यथा तरना असंभव ही है।

अपना-अपना कर्म ही श्रेष्ठता नीचता को परखने की कसौटी है।

संसार का अस्तित्व वर्षा पर आधारित होने के कारण वही संसार की सुधा कहलाने योग्य है।

पिता के प्रति पुत्र का प्रत्युपकार लोगों से यह कहलाना ही है कि मालूम इसके पिता ने ऐसे पुत्र की प्राप्ति के लिए कैसा तप किया।

अग्नि का जला घाव तो भीतर से पूर्णतया ठीक हो जाता है, और बाहर एक चिह्न मात्र रह जाता है परंतु जिह्वा का लगा घाव कभी अच्छा नहीं हो सकता।

जिसका अध्ययन हो उस पर अपना अधिकार व्यक्त करना उसके ख़ूब अध्ययन किए हुए विषयों पर भी दूसरों में संदेह उत्पन्न करेगा।

कृषक सारे संसार के लिए किल्ली के समान है, क्योंकि वह अन्य सभी का भार वहन कर रहा है।

चाहे सूखी रोटी ही क्यों हो; परिश्रम के स्वार्जित भोजन से मधुर और कुछ नहीं होता।

उनको देखते समय उनके दोष नहीं दिखते, और उनको देखते समय उनके निर्दोष व्यवहार नहीं दिखते।

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